विपक्ष आपको हमेशा याद रखेगा अटल जी...

जिस शख्स ने नेहरू से लेकर नरसिम्हा राव तक के सामने खड़ा होकर विरोध किया हो, उस शख्स का कोई विरोधी नहीं है. यह अपने आप में एक सियासी अचरज है.

विपक्ष आपको हमेशा याद रखेगा अटल जी...

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (फाइल फोटो)

अटल बिहारी वाजपेयी की असली विरासत विपक्ष की राजनीति में है. विपक्ष की राजनीति विरोध की राजनीति होती है. 1957 से 1996 तक विरोध और विपक्ष की राजनीति में उनका जीवन गुज़रा है. उनके राजनीतिक जीवन का 90 फीसदी हिस्सा विपक्ष की राजनीति का है. इसके बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी का कोई विरोधी नहीं है. जिस शख्स ने नेहरू से लेकर नरसिम्हा राव तक के सामने खड़ा होकर विरोध किया हो, उस शख्स का कोई विरोधी नहीं है. यह अपने आप में एक सियासी अचरज है.

नेहरू के सामने उनकी नीतियों के कड़े आलोचक रहे. मगर जब जनता सरकार में पहली बार विदेश मंत्री बने तो गलियारे से नेहरू की तस्वीर ग़ायब देखा तो खटक गया. अटल जी ने बस इतना पूछ दिया कि वो तस्वीर कहां गई तो किसी ने जवाब नहीं दिया. अगले दिन नेहरू की तस्वीर वापस उस जगह आ गई. यह बात उन्होंने लोकसभा में खुद बताई थी. क्या आज उन्हीं की पार्टी के नेता ऐसा कर सकते हैं? 15 अगस्त को जब उनके ही नेतृत्व में पले बढ़े अरुण जेटली ने स्वतंत्रता दिवस पर एक पोस्टर के ज़रिए बधाई संदेश ट्वीट किया है. उस पोस्टर में गांधी, पटेल, तिलक, रानी लक्ष्मीबाई, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर थी मगर नेहरू की नहीं थी. क्या वाजपेयी होते तो ये बर्दाश्त कर लेते? क्या वे नहीं पूछते कि अरुण इस पोस्टर में गांधी के साथ पटेल हैं मगर नेहरू क्यों नहीं हैं? तब अरुण जेटली क्या जवाब देते? क्या वाजपेयी जी को जवाब दे पाते या वे चुपचाप दोबारा ट्वीट करते जिसमें नेहरू की भी तस्वीर होती?

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वाजपेयी और नेहरू का विचित्र संबंध रहा है. वाजपेयी का कोई भी सियासी मूल्यांकन नेहरू के बिना नहीं हो सकता है. नेहरू के निधन पर फूट फूट कर रोए थे. उन्होंने नेहरू को जो श्रद्धांजलि दी थी वो आज भी भारत की लोकतांत्रिक राजनीति का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. उसी का एक हिस्सा आप पढ़ सकते हैं.

"महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के संबंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे. पंडित जी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है. वह शान्ति के पुजारी किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे. वे अहिंसा के उपासक थे किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे. वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे. उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया."

भारत की राजनीति से अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरा उनके निधन से पहले ही समाप्त हो चुकी है. वे नेहरू युग के आखिरी नेता थे जिनका नेहरू से संबंध भी था और नेहरू से विरोध भी. उन्होंने विपक्ष की राजनीति की जो परंपरा कायम की थी, आज वो संकट में है. अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ सत्ता के लिए विपक्ष नहीं थे बल्कि उस पार्टी के भीतर भी विपक्ष थे जिसकी स्थापना में वे भी शामिल थे. भले ही कई बार वे अपनी पार्टी के भीतर कमज़ोर विपक्ष रहे हों. मगर जब वे प्रधानमंत्री बने तब बीजेपी के भीतर विरोध की आवाज़ आज से कहीं ज्यादा मुखर थी. हर दिन बीजेपी के ही नेता सवाल करते थे. उनके खिलाफ धर्म संसद होती थी. दिल्ली के रामलीला मैदान में राममंदिर को लेकर धर्म संसद बुलाई गई थी. वहां जिस तरह से अटल बिहारी वाजपेयी पर प्रहार किया गया वह हैरान करने वाला था. आज किसी धर्माचार्य में साहस नहीं है कि उस तरह से मौजूदा नेतृत्व के बारे में बोल दे. बोल भी दिया तो सबको पहले से पता है कि अंजाम क्या होगा. अटल जी के बारे में यही पता था जितना सुनाना है, उन्हें सुनाओ, अटल जी सुन लेते हैं.

2015 में जब अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिया गया तब उस मौके पर उनके पूर्व सहयोगी सुधींद्र कुलकर्णी ने एनडीटीवी के लिए एक लेख लिखा था. इस लेख में अटल बिहारी वाजपेयी के एक लेख का हवाला दिया गया है जो उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था. इस लेख में उन्होंने अपनी शैली में आरएसएस को नसीहत दी थी कि वह राजनीति से दूर रहे.

"आरएसएस सामाजिक और सांस्कृति संगठन होने का दावा करता है. संघ को यह साफ करना चाहिए कि वह कोई राजनीतिक भूमिका नहीं चाहता है. ऐसे प्रेस को संरक्षण देना जो सत्ता की राजनीति में किसी का पक्ष लेता हो, राजनीतिक दलों के युवा संगठनों में शामिल होना, ट्रेड यूनियनों की प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना, जैसे पानी की सप्लाई काट कर दिल्ली को लोगों को कष्ट पहुंचाना, इन सबसे दूर रहना चाहिए. इससे आरएसएस को ग़ैर राजनीतिक साख कायम करने में मदद नहीं मिलती है."

क्या आज कोई संघ को ऐसी सख़्त हिदायत दे सकता है? अटल जी ने अपने इस लेख में ऐसे प्रेस को संरक्षण देने की भी आलोचना की है जो सत्ता के खेल में किसी का पक्ष लेता हो. आज भारत के प्रेस की पहचान ही यही हो गई है. वह सत्ता के पक्ष में खड़ा होकर खेल कर रहा है. सवाल करने वालों पर हमला कर रहा है. उस परंपरा पर हमला कर रहा है जिसकी बुनियाद अटल बिहारी वाजपेयी और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने डाली थी.

आज की राजनीति बदल गई है. बीजेपी ही नहीं किसी भी दल में विपक्ष नहीं है. विपक्ष के खेमे में भी विपक्ष नहीं है और सत्ता के सामने भी विपक्ष बेहद कमज़ोर है. राजनीतिक खेमे से बाहर दूसरे मंचों पर विपक्ष को देश विरोधी निगाह से देखा जा रहा है. संघ और बीजेपी को सोचना चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरा कहीं उन्हीं के सियासी घर से तो कमज़ोर नहीं हो रही है. आज भारत के लोकतंत्र को विपक्ष की ज़रूरत है. उस अटल भावना की ज़रूरत है जिन्हें याद करने वाले भी भूल गए हैं. मगर अटल बिहार वाजपेयी को जब भी याद किया जाएगा, वह विपक्ष याद आएगा, जिसके हीरो अटल बिहारी वाजपेयी थे, हैं और रहेंगे.

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