पद्मावती विवाद : कल्पना के घोड़े पर सवार शख्स की उसी घोड़े के खिलाफ जंग

'पद्मावती विरोधी आक्रोश' (आंदोलन नहीं) में एक बड़ी चौंकाने वाली और विचारणीय बात दिखाई दे रही है. वह यह है कि रचना में (यह डाक्यूमेट्री नहीं है) कल्पना के अस्तित्व का घोर विरोध करने वाला यह आक्रोश स्वयं पूरी तरह कल्पना पर टिका हुआ है

पद्मावती विवाद : कल्पना के घोड़े पर सवार शख्स की उसी घोड़े के खिलाफ जंग

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

आज की ही राजनीति में नहीं, बल्कि लगता है कि यूनानी दार्शनिक प्लेटो के राजनीतिक विचारों में भी वर्तमान के संकट के उन बीजों को ढूंढा जा सकता है, जिनके आधार पर किसी शायर की यह एक पंक्ति बार-बार सही होती नज़र आती है - 'लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई...'
 
प्लेटो ने कहा था कि राजा को दार्शनिक होना चाहिए. लेकिन दूसरी ओर यह भी कहा था कि कवियों और कलाकारों को राज्य से निष्कासित कर देना चाहिए, क्योंकि वे प्रकृति (ईश्वर) के मूल की प्रतिकृति तैयार कर (कल्पना द्वारा) उसे भ्रष्ट कर देते हैं. यदि हम इन दोनों अलग-अलग वक्तव्यों को आमने-सामने रखकर देखें, तो प्लेटो के चिंतन का एक जबर्दस्त विरोधाभास सामने आता है कि वह कल्पनाहीन दार्शनिक की बात कर रहे हैं. क्या कल्पना के बिना दार्शनिक होना संभव है...? क्या उनके स्वयं का दर्शन एक काल्पनिक तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता...?इतिहास गवाह है कि जो भी समाज अपने युग की कल्पना के पंखों की उड़ान को कतरता और तर्क की धार को भोथरा करता है, वह निःसंदेह अपने भविष्य की मौत के कुबूलनामे पर दस्तखत कर रहा होता है. आने वाली पीढ़ियां उसकी सजा भोगने को अभिशप्त रहती हैं.
 
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इसके ठीक विपरीत भी होता है, और इतिहास के पास इसके भी भरपूर प्रमाण मौजूद हैं. यूरोप, आज भी अपने इतिहास के 'अंधकार युग' में खोया हुआ होता, यदि उसकी चेतना को 'रिनेसां काल' की उड़ान न मिली होती. हालांकि 'पद्मावती' फिल्म को लेकर फिलहाल जिस तरह का शोर-शराबा और चीख-चिल्लाहट मची हुई है, उस दौर में इस तरह की बातें करना अनर्गल प्रलाप से अधिक कुछ नहीं है, फिर भी मन है कि मानता नहीं. साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि जान-बूझकर इतिहास और तर्क की अनदेखी की जा रही है. यहां तक कि विधि और विधान भी हाथ बांधे खड़े दिखाई दे रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने ज़रूर इस मामले की सुनवाई न करके सेंसर बोर्ड (अब इसका नाम यही कर दिया जाना चाहिए) जैसी संस्था की मर्यादा का संदेश दिया है. लेकिन इस संदेश की मर्यादा को समझने वाली चेतना ने उसे समझने से साफ-साफ इंकार कर दिया है.
 
बजाय इसके कि सेंसर बोर्ड (?) फैलती हुई इस आग में पानी के छीटें डालता, उसने अपने अह्म को जाग्रत कर एक निहायत अलोकतांत्रिक सवाल खड़ा कर दिया कि हमें दिखाने से पहले फिल्म पत्रकारों को कैसे दिखा दी गई. बेहतर होता कि इस बोर्ड के वर्तमान प्रमुख एवं कवि-हृदय अपनी इस आपत्ति के साथ बोर्ड के नियम की धारा का भी हवाला देते. प्रसून जी ने 'मीडिया ट्रायल' का नाम ज़रूर सुना होगा. जब कोर्ट की सुनवाई के दौरान किसी मामले पर राष्ट्रीय बहस हो सकती है, तो क्या बोर्ड में भेजी गई फिल्म पर नहीं - उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए.
 
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'पद्मावती विरोधी आक्रोश' (आंदोलन नहीं) में एक बड़ी चौंकाने वाली और विचारणीय बात दिखाई दे रही है. वह यह है कि रचना में (यह डाक्यूमेट्री नहीं है) कल्पना के अस्तित्व का घोर विरोध करने वाला यह आक्रोश स्वयं पूरी तरह कल्पना पर टिका हुआ है. उसने फिल्म देखी ही नहीं है. इससे आगे की बात यह कि पद्मावती का सत्य भी कोई स्थापित ऐतिहासिक सत्य नहीं है. अन्यथा रम्या श्रीनिवासन अपनी पुस्तक का नाम 'द मैनी लाइव्स ऑफ राजपूत क्वीन' (राजपूत राजकुमारी की विभिन्न जीवनियां) नहीं रखतीं. इस पुस्तक में उन्होंने उत्तर भारत, राजस्थान से लेकर बंगाल तक प्रचलित रानी पद्मावती के चरित्रों का वर्णन किया है.
 
साथ ही यह भी सोचें, क्या इतिहास पूर्ण सत्य की गारंटी दे सकता है...? क्या वहां कल्पना के लिए 'स्पेस' नहीं होता...?
 
दरअसल, कल्पना एक ऐसा वायवीय सत्य होता है, जिसका हर कोई अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल कर सकता है. फिलहाल यही हो रहा है. साथ ही कल्पनाओं को नियंत्रित किए जाने की कोशिश भी. ये दोनों कभी भी एक साथ नहीं निभ सकते. हम जैसा 'आज' रचेंगे, वहीं 'कल' के रूप में हमें मिलेगा.
 
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
 
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