अंतिम यात्रा नहीं सियासी दस्तावेज थी अटल जी की विदाई...

मेरी निगाह बरबस सड़क के उस पार एक मस्जिद के किनारे खड़े तमाम मुस्लिम नौजवानों और बच्चों पर पड़ी. सिर पर झक सफेद टोपी लगाए वे 'अटल जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे.

अंतिम यात्रा नहीं सियासी दस्तावेज थी अटल जी की विदाई...

'हुजूम'...पत्रकारीय दुनिया में इस शब्द से सैकड़ों बार साबका हुआ. अनेकों बार इसे लिख-लिखकर कागज कारे किये, लेकिन वाकई हुजूम क्या होता है वह कल देखा. और यह भी तय हो गया कि अब जब कभी इस शब्द का जिक्र होगा तो शायद जेहन में एक ही तस्वीर उभरेगी. वह तस्वीर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा की होगी. बीजेपी मुख्यालय से जब अटल जी की अंतिम यात्रा शुरू हुई तो सूरज तकरीबन सिर के उपर था. धूप तीखी थी और सीधे चुभ रही थी, लेकिन उस जन-सैलाब के आगे शायद ही सूरज की चुभन किसी को महसूस हो रही हो. जो महसूस हो रहा था वह एक 'जन नेता' के लिए लोगों का प्यार और स्नेह. पैर खुद-ब-खुद बढ़े जा रहे थे. 

अपने राजनैतिक जीवन में व्यक्तिगत हानि-लाभ और स्वार्थ से परे 'लोकतंत्र की बुलंदी' की बात करने वाले अटल जी की अंतिम यात्रा में भला वह कौन वर्ग था जो शामिल नहीं हुआ था. अंतिम यात्रा के दौरान मेरी निगाह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर पड़ी. देश भर में अपनी हिंदूवादी छवि और सियासत के लिए नामचीन योगी आदित्यनाथ को जगह-जगह भीड़ घेर लेती. तस्वीर लेने का प्रयास करती. पीछे जय श्रीराम के नारे लग रहे थे. यात्रा आईटीओ से थोड़ा आगे बढ़ी तो मेरी निगाह बरबस सड़क के उस पार एक मस्जिद के किनारे खड़े तमाम मुस्लिम नौजवानों और बच्चों पर पड़ी. सिर पर झक सफेद टोपी लगाए वे 'अटल जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे. मोबाइल से अंतिम यात्रा की तस्वीरें लेने का प्रयास कर रहे थे. फूल बरसा रहे थे. 

ये महज दो दृश्य नहीं थे. इसे भाजपा की सियासी यात्रा का दस्तावेज भी कह सकते हैं. एक यात्रा जो अटल जी की थी. जहां, 'टोपी-गमछा' सब स्वीकार्य था. कमियों-खामियों को स्वीकार करने का माद्दा था. फिर चाहे अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को 'राजधर्म' की याद दिलाने की बात हो या फिर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाने पर पार्टी के नेताओं को फटकार लगाने की बात. और उनकी जिंदादिली भी तो अलग ही थी. अटल जी सक्रिय सियासी पारी के दौरान उन्हें करीब से कवर करने वाले पत्रकार साथी बताते हैं कि वे सर्व सुलभ थे. क्या छोटा और क्या बड़ा संस्थान. फोटो जर्नलिस्ट साथी अपनी सहूलियत के हिसाब से तस्वीरें ले सकते थे. सहूलियत को फोटो जर्नलिस्ट साथियों की भाषा में 'ऐंगल' भी कह सकते हैं.

बहरहाल, वह दौर दूसरा था और यह दौर दूसरा है! अंतिम यात्रा में बिहार के समस्तीपुर के रहने वाले संतोष जी मिले. स्मृति स्थल के गेट पर ठसाठस भीड़ थी. संतोष अंदर जाने का प्रयास कर रहे थे पर भीड़ के रेले में उन्हें सफलता नहीं मिली. थक-हारकर चेहरे पर मायूसी का सबब लिए एक कोने में खड़े हो गए. पूछने पर बताया कि 'चालू' टिकट लेकर बिहार से यहां अटल जी के आखिरी दर्शन के लिए आए थे. दर्शन भले ही न मिला हो पर उन्हीं के शब्दों में 'तीर्थ का पुण्य' तो मिल ही गया था. वह तबका भी मिला जिसे प्रधानमंत्री के रूप में या तो इंदरा (इंदिरा गांधी) या फिर बाजपेयी (अटल बिहारी वाजपेयी) याद रहे. अटल जी की अंतिम यात्रा महज यात्रा नहीं थी. यह दस्तावेज है, राजनीति के एक युग का, जन-मानस की स्मृति में अंकित होने वाले नेताओं की एक पीढ़ी का और एक नेता के लिए लोगों के प्यार का. 

(प्रभात उपाध्याय Khabar.NDTV.com में चीफ सब एडिटर हैं...)

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