प्रेमचंद@135 : बेहतर तो होता कि आज आप प्रासंगिक न होते

प्रेमचंद@135 : बेहतर तो होता कि आज आप प्रासंगिक न होते

वाराणसी:

देश का मीडिया मुंबई बम काण्ड के दोषी याकूब मेमन की फांसी पर बहस मुबाहिसों में फंसा हुआ है। उसके पास उस सामाजिक सरोकार के लिए उतना समय नहीं है, जिसे  मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कथावस्तु बनाया था। यानी आप कह सकते हैं कि आज मीडिया के लिए मुंशी प्रेमचंद के मायने कम हो गए हैं, खास तौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए। पर कथा सम्राट के के चाहने वाले उनके जन्म दिवस पर उनके गांव लमही में श्रद्धा सुमन अर्पित करने ज़रूर पहुंचे।  

इन्ही लोगों में कुछ प्रगतिशील लेखक भी थे, जो चर्चा कर रहे थे कि प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं। इसे सुनकर लगा कि अगर मुंशी जी आज भी प्रासंगिक हैं तो उनकी कथाओं के चरित्र आज भी हमारे समाज में ज़िंदा हैं। और अगर ऐसा है तो क्या 21 वीं सदी के इस सभ्य समाज पर यह एक करारा तमाचा  नहीं है? यह सवाल लिए जब हम लमही के द्वार पर पहुंचे तो प्रेमचंद  जी की 125 वीं जयंती पर मुलायम सरकार ने उनके जिन पात्रों को किताब के हर्फों से निकाल कर लमही के द्वार पर मूर्त रूप दिया था, उनमें  होरी ,बूढ़ी काकी, हामिद , हल्कू , घीसू , माधव , हीरा मोती तब से लमही  के द्वार पर बैठे  मुंशी  प्रेमचंद की हो रही  उपेक्षा को निहारते नज़र आए।  

यह निराशा उनके उस मकान में भी दिखाई पड़ी, जहां यह पात्र न सिर्फ पैदा हुए थे बल्कि जवान भी हुए थे। आज उस मकान में इन्हीं चरित्रों को लेकर बच्चों ने चित्र प्रदर्शनी लगाई है।  उसे देखकर उनका यह मकान खुश है, हालांकि मुंशी जी की 125 वीं जयंती पर यहां सूबे के बड़े-बड़े नेताओं ने जो लंबे-लंबे  वादे किए थे उनमें से कोई भी पूरे नहीं हुए. सिर्फ एक पुस्तकालय जरूर बनकर खड़ा हो गया है, अभी शुरू नहीं हुआ है।  

मुंशी जी के घर के बगल में उन्हीं के गांव के सुरेश चंद दुबे निःशुल्क पुस्तकालय चलाते हैं, जो आज भी उनकी लगन के कारण ही चल रहा है। गांव  के तालाब के पास मेला लगा है, जहां आसपास के गांव के लोग अपने मुंशी जी का जन्म दिन मनाने के लिए आए हैं। इसी तालाब के पास युवा रंगकर्मी बड़ी शिद्दत के साथ कहानी 'सवा सेर गेहूं' , 'पंच परमेश्वर' , 'पूस की रात' के नाट्य रूपांतरणों का मंचन कर रहे हैं।

प्रेमचंद के गांव लम्ही में बने स्मारक बनी एक कलाकृति

इन प्रस्तुतियों को देखकर हम उस कालखंड में चले जाते हैं, जब हमारे अपने  प्रेमचंद ने हर तरफ से निराश हो कर खाली हो चुके पूस की रात के हल्कू की उस संवेदना को समझा था जो आगे चलकर सवा सेर गेहूं के कर्ज के कम्बल में लिपटी किसान की हताशा में दिखाई पड़ी। उसका कर्ज आने वाली पीढ़ी भी अदा नहीं कर पाती ,तो फिर वही किसान कफ़न का घीसू और माधव बन जाता है। उनकी सूख चुकी संवेदना आज के प्रगतिशील समाज पर करारा तमाचा नज़र आती है, क्योंकि यह पात्र आज भी हमारे इर्द गिर्द घूमते हुए नज़र आते हैं। परिवार से उपेक्षित बूढ़ी काकी अपनी आंखों में सपने लिए एक पल का प्यार ढूंढ रही हैं तो वहीं मालिक का दिल जितने वाले  'हीरा' और  'मोती'  भी  लोगों  को  अपनी  उपयोगिता  समझाने  के  लिए  बतियाना  चाहते   हैं।
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प्रेमचंद  ने जिस ईदगाह के मैदान में एक रंग एक कपड़े में बिना भेदभाव  के  गले  मिलते  समाज  की  परिकल्पना  की  थी  वह  आज  निजी  स्वार्थ  और तुच्छ   राजनैतिक  इच्छा  के  कारण  जातियों  और  उपजातियों  में  बंट गए  हैं।   लिहाजा ऐसे समाज में आज घीसू और माधव कहीं ज्यादा मर्मान्तक वेदना सह रहे हैं। आज का हर गबरू जवान गोबर की तरह गांव छोड़कर शहर जा रहा है और एक नहीं हजारों होरी हर रोज़ पैदा हो रहे हैं। लेकिन  इस  सबसे  अलग  बाजारीकरण  के  आज  के  मेले  में  जहां  वकील और सिपाही खिलौने की तरह न सिर्फ  ख़रीदे और बेचे जा रहे हैं,बल्कि जरा सी चोट पर टूट भी रहे हैं।


ऐसे  दौर  में भी  "हामिद  " का  चिमटा  शेर  से  लड़ने  का  माद्दा  लिए  हुए  आज  भी  समाज  के  सामने  सवाल  बनकर खड़ा  है  कि आज उनके यह पात्र क्यों हमारे लिए सिर्फ मनोरंजन के साधन बन गए हैं? क्यों हमारे लिए प्रेमचंद के पात्र कौतुक के विषय बन जाते हैं? उनके दर्द को कम करने का हमारे पास कोई साधन क्यों नहीं है? हम ऐसे समाज को ले के कहां जाएंगे? प्रगतिशील लेखक जब यह कहते हैं कि प्रेमचंद हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैं, तो मन में दुःख होता है क्योंकि प्रेमचंद अगर आज प्रासंगिक हैं तो निश्चित रूप से समाज में कहीं न कहीं होरी ,बूढ़ी  काकी, हामिद , हल्कू , घीसू , माधव , हीरा मोती ज़िंदा हैं। बेहतर तो होता कि  इक्कीसवीं  सदी के इस सभ्य समाज में प्रेमचंद प्रासंगिक न होते। इससे तो वह भी खुश ही होते कि जिस समाज की उन्होंने परिकल्पना की थी वह आज पूरी हो गई।