राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और प्रतीक की राजनीति...

विपक्ष के सामने ऐतिहासिक अवसर था जब वह सहमति की राजनीति से भारतीय राजनीति को सकारात्मक मोड़ दे सकता था, या फिर दलित के बजाय किसी अन्य वर्ग से अपना उम्मीदवार लाने का जोखिम उठाता

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और प्रतीक की राजनीति...

सन 1992 में राष्ट्रपति के चुनाव होने में अभी लगभग दो साल बाकी थे कि देश के अनुसूचित-जाति, जनजाति सांसदों का एक प्रतिनिधि मंडल राष्ट्रपति से मिलने गया. उस समय राष्ट्रपति थे वैंकटरमन. राष्ट्रपति ने इस प्रतिनिधि मंडल को संदेश भिजवाया कि वे पूरे प्रतिनिधि मंडल से नहीं मिलेंगे. उनके कुछ प्रतिनिधि आकर उनसे मिल सकते हैं. सांसद उनके इस संदेश से भड़क उठे. इसे उन्होंने अपने वर्ग का अपमान मानते हुए उस विशाल भवन के सामने फैले भूरे रंग के उस चौडे़ मैदान में संकल्प लिया कि ‘‘तो ठीक है. अब अगला राष्ट्रपति हमारे ही वर्ग से होगा.’’

और उनके इस संवेदनशील तथा अत्यंत चर्चित संकल्प ने शंकरदयाल शर्मा जी के सामने एक बहुत बड़ा धर्मसंकट पैदा कर दिया था, जो उस समय देश के उपराष्ट्रपति थे, तथा जाहिर है कि राष्ट्रपति बनने की इच्छा रखते थे. कहा गया था कि यह इच्छा वैंकटरमन जी की भी थी. लेकिन सांसदों की इस घोषणा ने उनके पुनर्निर्वाचन की संभावना को खत्म करके उन्हें इस दौड़ से एकदम बाहर कर दिया. साथ ही देश को एक ऐसे दलित व्यक्ति की खोज में लगा दिया, जिसे इस पद पर बैठाया जा सके.

राष्ट्रपति बनने के लिए योग्यता से अधिक तत्कालीन राजनीतिक समीकरण काम करते हैं. सौभाग्य से ये समीकरण डॉ शंकर दयाल शर्मा के काफी पक्ष में थे. लेकिन सांसदों के उस संकल्प ने उस रास्ते के बनने की शुरुआत कर दी थी, जिस पर उनके वर्ग का एक व्यक्ति राष्ट्रपति भवन के ड्राइंग रूम का मुखिया बन सके. इसकी शुरुआत के रूप में केआर नारायणन सन 1992 में उप राष्ट्रपति चुने गए और बिना अधिक विवाद और विचार के पांच साल बाद देश के राष्ट्रपति. दलित वर्ग से आए हुए प्रथम राष्ट्रपति, न कि दलित वर्ग राष्ट्रपति. राष्ट्रपति पूरे राष्ट्र के लिए होता है, किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं.
और अब बीस साल की अवधि के बीच यह दूसरा मौका है, जब फिर से देश का राष्ट्रपति इसी वर्ग से होगा.

यह स्वागत योग्य है.  यही लोकतंत्र है, और लोकतांत्रिक प्रणाली में अन्तर्निहित ‘दबाव समूहों’’ की शक्ति भी. किन्तु यहां एक तथ्य जरूर विचारणीय है कि आजादी के सत्तर साल के बाद की हमारी आज की राजनीति भी जाति की नींव पर खड़ी रहने के लिए अभिशप्त क्यों है? बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने कोविंद को एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करते हुए आरम्भ में ही इस बात का बहुत साफ तौर पर उल्लेख किया कि ‘वे दलित वर्ग से आते हैं.’’ जबकि यह इस पद के लिए कोई निर्धारित या अपेक्षित योग्यता नहीं है. निर्धारित योग्यताएं उनमें हैं. साथ ही वे अपेक्षित योग्यताओं से भी सम्पन्न हैं-संविधान के रक्षक के रूप में संविधान का ज्ञान (वे उच्चतम न्यायालय में वकील रहे), सांसद एवं राज्यपाल के रूप में भारतीय राजनीति की समझ तथा अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष के रूप में सामाजिक-स्थितियों की व्यावहारिक समझ. किन्तु फिलहाल ये द्वितीयक हो गये हैं. उनकी जातिगत पहचान को प्रथम बना दिया गया है.

विपक्ष के सामने यह एक ऐसा ऐतिहासिक अवसर था, जब वह दो में से कोई एक कदम उठाकर भारतीय राजनीति को एक सकारात्मक मोड़ दे सकता था. पहली थी सहमति की राजनीति. दूसरा यह कि वे किसी दलित के बजाय किसी अन्य वर्ग से अपना उम्मीदवार लाते. लेकिन तब उनके सामने ‘‘दलित विरोधी’’ कहलाने का भयानक जोखिम उठ खड़ा होता. लेकिन जोखिम उठाए बिना परिवर्तन होते भी कहां हैं.

यहां मूल चिंता यह है कि वह दिन कब आएगा, जब इस देश के वंचित वर्ग का व्यक्ति अपनी जाति से नहीं बल्कि अपनी योग्यता से जाना जाएगा, क्योंकि जाति का लेबल उसकी योग्यता को निरस्त करके उसे अनावश्यक ही कुंठित कर देता है. सन् 2015 की आईएएस की परीक्षा में इसी वर्ग की लड़की ने टॉप करके राष्ट्र को कुछ अलग ही तरह का संकेत दिया था. समय-समय पर इस तरह के अत्यंत महत्वपूर्ण संकेत हमें मिलते रहते हैं, जिनका विश्लेषण करके परम्परागत नीतियों में परिवर्तन किया जाना चाहिए. प्रतीकों की राजनीति से इस वर्ग का हित सधने वाला नहीं है. यह एक प्रकार के ‘छद्म प्रयास’ से अधिक कुछ नहीं है. ठोस मुद्दों पर काम किए जाने की जरूरत है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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