प्राइम टाइम इंट्रो : अरुण जेटली ने इतिहास का हवाला देकर मीडिया से किया सवाल

प्राइम टाइम इंट्रो : अरुण जेटली ने इतिहास का हवाला देकर मीडिया से किया सवाल

वित्‍त मंत्री अरुण जेटली

वित्त मंत्री अरुण जेटली भुवनेश्वर में मेक इन उड़ीसा कांक्लेव में बोल रहे थे. उन्होंने ऐसा भारी सवाल दाग़ दिया है कि जवाब देने से पहले आपको 2016 से चलकर 1947 में जाना होगा. 69 साल पीछे जाकर उस समय के अख़बारों के पन्ने पलट कर ही वित्त मंत्री जेटली के सवालों का जवाब दिया जा सकता है. ऐसा हो नहीं सकता कि 1947 के अख़बार बंटवारे की भयावह दास्तानों से नहीं भरे होंगे. उनमें सिर्फ आज़ादी का ही जश्न होगा. नोटबंदी कवर कर रहे तमाम पत्रकारों को वित्त मंत्री के सवाल से बचने की जगह सामना करना चाहिए. एक छोटी सी कोशिश मैं भी करूंगा.

जेटली जी ने कहा कि पीड़ा, हिंसा,पलायन ये सब जीवन की एक वास्तविकता है. उस वक्त का सहारा लेकर इस वक्त की तकलीफों के बारे में मंत्री जी ने ऐसा कहा है. कम से कम उन्होंने ये नहीं कहा कि नोटबंदी से हो रही परेशानियां वास्तविकताएं नहीं हैं. उनकी शिकायत है यह कि फैसले के मकसद और असर को कम जगह मिल रही है. इस मकसद की तुलना वे आज़ादी के लम्हों से करते हैं.

सरकार लगातार अपने विज्ञापनों और नेताओं, मंत्रियों के भाषणों के ज़रिये मकसद की बात रख रही है. मकसद की बात लोगों तक पहुंची भी है,तभी तो बैंकों की कतार में खड़े लोग कह रहे हैं कि फैसला ऐतिहासिक है. बहुत से कहते हैं कि वे मोदी जी के साथ हैं. क्या यह बात लोगों तक सिर्फ सरकार के ज़रिये ही पहुंची है. क्या इसमें टीवी, रेडियो और अख़बारों का कोई योगदान नहीं होगा. आप दर्शकों को भी पूरा मूल्यांकन करना चाहिए कि नोटबंदी के बाद परेशानियों को ही जगह मिली या इस फैसले के मकसद को उसकी तुलना में कम जगह मिली. इसमें संपादकीय लेखों को भी शामिल कीजिएगा. परेशानी की खबरें आलोचना नहीं है. परेशानी की खबरें तात्कालिक हैं. नोटबंदी के कारण कई मजदूरों से काम छिन गया, रेहड़ी पटरी वालों की कमाई कम हो गई,शादियों के घर में पैसे नहीं जुटे, बीमारों पर बिजली गिर गई, किसानो को पैसे नहीं मिले खेती के लिए. बैंकों की कतार में खड़े खड़े पुरानी बीमारियां उग्र हो गईं, तमाम अखबारों में जगह जगह से लोगों के दम तोड़ने की ख़बरें छपीं. टीवी में आईं. जानवरों को चारा नहीं मिला. कई उद्योगों को लाखों से लेकर करोड़ों का नुकसान हुआ. तब भी इनमें से ज्यादातर लोग फैसले को तुगलकी नहीं कह रहे थे. विरोधी नेता ज़रूर कह रहे थे. क्या ये वास्तविकताएं उस मकसद को बड़ा नहीं बनाती हैं. क्या उनका कवरेज़ अतिवाद है.

बहरहाल जेटली जी ने पूछा है कि 1947 के वक्त आज का टीवी मीडिया होता तो पीड़ा दिखाता या आज़ादी दिखाता. आज की पीढ़ी तीन मूर्ति लाइब्रेरी में रखे उस साल के अखबारों की माइक्रो फिल्म देख सकती है. बंटवारे के कारण जो हिंसा हुई उसमें लाखों लोग मारे गए. लाशों के अंबार लग गए. उस वक्त के अखबार इन खबरों से अगर अनजान रहे होंगे तो वे अखबार कहे जाने लायक नहीं है. मगर ऐसा हो ही नहीं सकता.

सारे पुराने अखबार हैं. इंटरनेट पर मौजूद हैं. बर्थ आफ इंडिया फ्रीडम, नेशन वेक्स टू न्यू लाइफ. मिस्टर नेहरू काल्स फार बिग एफर्ट फ्राम पीपल. इंडिया इंडिपेंडेंट, ब्रिटिश रूल एंड्स. टू डोमिनियन्स आर बॉर्न. इस तरह की सुर्खियां  हैं उस दिन के अखबारों की. जेटली जी की बात सही है कि 15 अगस्त के दिन आज़ादी की ही सुर्खियां हैं.

अख़बारों ने 9 नवंबर 2016 को वैसी ही बड़ी बड़ी सुर्ख़ियां लगाई हैं जैसी 15 अगस्त के रोज़ के अखबारों में छपी थी. पहले दो तीन दिनों तक बल्कि उससे आगे तक मीडिया में नोटबंदी को लेकर उत्साहवर्धक ख़बरों की मात्रा अधिक थी. सभी बड़े उद्योगपति इस फैसले की तारीफ ही कर रहे थे और कर रहे हैं. जब बैंक खुले और लोगों को कैश नहीं मिला तो समस्याएं बढ़ने लगी. इन समस्याओं की खबरों से सरकार ने भी अपने फैसले लेने की गति को बेहतर किया. इन खबरों में यही था कि पैसे नहीं मिल रहे हैं. बहुत कम ये आलोचना कर रहे थे कि सरकार ने गलत फैसला लिया. ये किसी भी सरकार के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है. चलिए एक और सवाल पूछते हैं. जब देश आज़ादी के जश्न में डूबा हुआ था तब गांधी जी क्या कर रहे थे. क्या वे आज़ादी के मकसद के साथ थे या लोगों की पीड़ा के साथ...

15 अगस्त 1947 के रोज़ गांधी नई दिल्ली में नहीं थे. गांधी जी 9 अगस्त को ही कलकत्ता पहुंच गए थे जिसे आज कोलकाता कहते हैं. कोलकाता से वे आज के बांग्लादेश में मौजूद नोआखली गए और वहां से लौट कर बिहार आए, फिर सिंतबर महीने में दिल्ली आए. जनवरी 1948 में दिल्ली के दंगे नहीं रुके तो आमरण अनशन पर बैठ गए. कलकत्ता में दंगे हो रहे थे और गांधी उन दंगों को शांत करने पहुंचे थे. गांधी ने किसी भी तरह के जश्न में शामिल होने से इंकार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि मैं 15 अगस्त की ख़ुशी नहीं मना सकता हूं. मैं आपको धोखा नहीं दे सकता. लेकिन मैं यह भी नहीं कहूंगा कि आप जश्न न मनायें. दुर्भाग्य से जो आज़ादी हमें मिली है उसमें भविष्य के भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव के बीज हैं. वहां गांधी वापस जाओ के नारे लगते, मगर फिर भी वे प्रार्थना सभा कर रहे थे, हिन्दू मुस्लिम दंगों में पागल हो चुके लोगों को शांत करने उन्हें फिर से इंसान बनाने में लगे थे. 1916 से 1947 के बीच 31 साल तक जिस आंदोलन का नेतृत्व किया, जब वो आंदोलन आज़ादी की मंज़िल पर पहुंचा तो गांधी उस जश्न से दूर हो गए. उनकी कोशिश कामयाब हुई. थोड़े ही दिनों में दंगों का उफान शांत होने लगा. लार्ड माउंटबेटन ने कहा था कि पंजाब में 55 हज़ार सैनिक तैनात थे फिर भी वहां बड़े पैमाने पर दंगे होते रहे. बंगाल में एक ही सिपाही था वहां दंगे रूक गए.

गांधी के इस प्रसंग से जेटली जी को कुछ जवाब मिल सकता है. 15 अगस्त को जब नेहरू अपना ऐतिहासिक भाषण अंग्रेज़ी में पढ़ रहे थे, गांधी उपवास का एलान कर रहे थे. चरखा चला रहे थे. प्रार्थना कर रहे थे. आज के दौर में मीडिया विश्वसनीयता के घोर संकट से गुज़र रहा है, उसकी साख की वापसी के आसार दिनों दिन कम होते जा रहे हैं. तमाम राजनीतिक दलों के बड़े नेता आलोचनाओं को लेकर असहनशील होते जा रहे हैं. मीडिया सरकार की बात करे या जनता की बात करे, या उसका संतुलन कैसा हो, यह एक चुनौती का काम है. उस जनता को क्या जवाब दिया जाए जो कहती है कि मीडिया सिर्फ सरकार की बात करती है, उस सरकार से क्या कहा जाए जिसे लगता है कि उसकी बात हो ही नहीं रही है. फिर से गांधी जी का सहारा लेता हूं. 15 अगस्त के बाद 12 नवंबर 1947 भी आया.

इस दिन महात्मा गांधी पहली बार आल इंडिया रेडियो के स्टूडियो में पहुंचे. गांधी ने पहली बार और आखिरी बार रेडियो से संबोधन किया. गांधी जी को कुरुक्षेत्र जाना था जहां वे पाकिस्तान से आए दो लाख शरणार्थियों को संबोधित करना चाहते थे. वहां भी लोग उत्साहित थे कि गांधी जी आएंगे तो उनसे मिलकर अपनी पीड़ा बतायेंगे. लेकिन तभी घोषणा हुई कि कुछ कारणों से गांधी कुरुक्षेत्र नहीं जाएंगे और आल इंडिया रेडियो से संबोधित करेंगे. कुरुक्षेत्र के कैंप में टेबल पर मर्फी रेडियो रखा गया. उसके सामने लाउडस्पीकर रखा गया ताकि सब तक गांधी की आवाज़ पहुंच सके. लगे कि गांधी जी ही बोल रहे हैं, इसलिए उनकी तस्वीर भी रख दी गई. गांधी ने रेडियो का इस्तेमाल आज़ादी के जश्न के लिए नहीं किया. बल्कि हिंसा और पलायन के शिकार लोगों की पीड़ा को सुकून देने के लिए किया. इसी लिए 12 नवंबर को जन प्रसारण दिवस के रूप में मनाया जाता है. 8 नवंबर को नोटबंदी हुई. चार दिन बाद 12 नवंबर को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में जन प्रसारण दिवस मनाया गया.

उस वक्त गांधी रेडियो को लेकर आश्वस्त नहीं थे. दूसरे विश्व युद्ध में रेडियो का इस्तमाल प्रोपेगैंडा के लिए ज़्यादा हुआ था. हिटलर का ज़िक्र करना ठीक नहीं क्योंकि हिटलर का नाम आते ही हमारी राजनीतिक बहसें सड़कछाप हो जाती हैं. गांधी रेडियो को ज़रूरी नहीं मानते थे. उन्हें लगता था कि लोगों के बीच जाकर बात करना ही बेहतर है. वे नहीं चाहते थे कि रेडियो का प्रभाव इतना बढ़ जाए कि मशीन बड़ी हो जाए और व्यक्ति छोटा हो जाए. कहीं आज ये तो नहीं हो गया है कि चैनल बड़े हो गए हैं, लाखों करोड़ों लोग पीछे रह गए हैं. आदमी छोटा हो गया है. जैसे एंकर मसीहा हो गया है, रिपोर्टर और उसकी ख़बरें धुआं धुआं. आम लोगों की ख़बरें गायब हैं. बड़े नेताओं के भाषण पर बहसें हैं. हालांकि 1947 के साल में रेडियो ने गुमशुदा लोगों को मिलाने का बड़ा उपयोगी काम किया था. गुमशुदा लोगों की जानकारियां खूब प्रसारित होती थीं.

लोग परेशान हैं इसे सिर्फ जीवन की एक वास्तविकता कहने की सुविधा वित्त मंत्री के पास हो सकती है. लगातार कैश का आश्वासन दिया जा रहा है लेकिन लोगों का अनुभव बैंकों के पास जाकर वैसा नहीं है. बैंकों के आगे सिर्फ कतारें नहीं हैं. बहुत सी ऐसी कहानियां हैं जो दर्ज होनी चाहिए. अगर जेटली जी के अनुसार नोटबंदी के ये पचास दिन आज़ादी के लम्हे जैसे हैं तो इन कतारों में छिपी कहानियों को भी उसी तरह दर्ज किया जा सकता है जैसे आज़ादी से पहले और बाद के महीनों के दौरान उस वक्त के अख़बारों में दर्ज किया गया होगा. बैंकों के आगे कतारों की कहानियों से सरकार को भी मदद मिला. उसके फैसलों में इसकी झलक मिलती है.

हमारे सहयोगी सौरभ शुक्ला की मुलाकात हीरादेवी से हुई. आगरा से दिल्ली आकर हीरादेवी दो तीन घरों में काम करती हैं. उम्र के कारण इतना ही कर सकती हैं. हर घर से कैश ही मिलता है. हीरादेवी को आज किसी घर से सैलरी नहीं मिली. यही जवाब मिला कि एक हफ्ते बाद ले लेना. सौ दो सौ करके ले लेना. अभी सारा पैसा नहीं मिलेगा. वे लोग भी रोज़ बैंक की लाइन में लग कर आ जा रहे हैं. जब उन्हें ही पैसे नहीं मिलेंगे तो हमें कहां से देंगे. हीरादेवी की हालत ख़राब है. हम उनके घर तो नहीं गए पर यकीन करते हैं कि वो सही ही बोल रही होंगी. उन्होंने कहा कि उनके अपने घर का राशन ख़त्म होने के कगार पर है. आठ तारीख के बाद से नवंबर तो किसी तरह गुज़र गया लेकिन दिसंबर की शुरुआत मायूस करती है.

वित्त मंत्री ने कहा है कि नेता और मीडिया वाले नहीं बदले, इसके अलावा देश में सब बदल गया. सही तो कह रहे हैं. वैसे देश में सब बदल गया, ये भी सही है. वैसे पांच सौ के नोट को लेकर सरकार का फैसला 8 नवंबर से लेकर 1 दिसंबर तक कई बार बदल गया. 2 दिसंबर की आधी रात से 500 के नोट पेट्रोल पंप,गैस की दुकानों में नहीं लिये जायेंगे. पहले इसकी तारीख 15 दिसंबर तक थी. लेकिन 15 तारीख तक आप 500 के पुराने नोट से बस और रेल का टिकट खरीद सकते हैं. नेशनल हाईवे के टोल पर आप 3 से 15 दिसंबर तक 500 के पुराने नोट दे सकते हैं. अब आपको वहां फ्री सुविधा नहीं मिलेगी. अब आते हैं एक और खबर की तरफ. क्या सरकारी अधिकारी अपने मातहतों का इस्तेमाल कर रहे हैं नोट बदलवाने के लिए. दिल्ली में डीटीसी में ऐसा ही मामला आया है जिसकी जांच हो रही है. हरियाणा रोडवेज़ के दर्जनों कंडक्टरों ने अपने अधिकारियों पर इस बात का आरोप लगाया है कि उन पर दबाव डाला जा रहा है कि पुराने नोट के बदले सौ सौ के नोट लाकर दें जो यात्रियों से मिल रहे हैं.

 यह रिपोर्ट हमारे सहयोगी हरिकिशन ने भेजी है. दिल्ली के कश्मीरी गेट वाली आईएसबीटी में हरियाणा रोडवेज की ज्यादातर बसें खड़ी कर दी गईं. हरियाणा जाने वाली बसों के कंडक्टरों ने बसें खड़ी कर दीं. धरने पर बैठ गए. इनका आरोप है कि 25 साल के नौजवान सहयोगी सुंदर की हार्ट अटैक से मौत हो गई क्योंकि फ्लाइंग स्क्वायर्ड ऑफिसर ने कैश की तलाशी के लिए सुंदर के कपड़े उतरवा कर तलाशी ली. इससे अपमानित सुंदर की हालत बिगड़ गई. ये कंडक्टरों का आरोप है. कंडक्टर सिर्फ आरोप नहीं लगा रहे बल्कि ऐसी बातें कह रहे हैं जिस पर सरकार को तुरंत ध्यान देना चाहिए. कंडक्टर बता रहे हैं कि दरअसल इस तरह की कार्रवाई उनपर दबाव बनाने के लिए होती है, अफसर कंडक्टरों को रोजाना दस पंद्रह या फिर बीस हजार तक की रकम पांच सौ और हजार के नोटों में देते हैं जिन्हें शाम तक उन्हें सौ सौ के नोटों में वापस करना होता है. आईएसबीटी पर दो तरह के काउंटर हैं एक तो जहां टिकट कटते हैं और दूसरे जहां टिकटों की एडवांस बुकिंग होती है. हरियाणा के परिवहन मंत्री ने कंडक्टरों की बात मान ली और प्राइम टाइम शुरू होने से पहले धरना खत्म हुआ. सुंदर को दस लाख का मुआवज़ा भी देने का ऐलान हुआ है.

सरकार ने कहा है कि काला धन के खिलाफ उसका अभियान नोटबंदी तक नहीं रुकेगा. सोने को लेकर बहुत सारी अफवाहें फैलाई जा रही थीं तो सरकार ने अपनी तरफ से बात रख दी है. बताया गया है कि इनकम टैक्स कानून में किए संशोधन में पुश्तैनी गहनों या सोने की ऐसी जूलरी पर टैक्स नहीं लगेगा जो घोषित आय या declared इनकम से खरीदी गई है. दरअसल ऐसी अफ़वाहें थी कि नए इनकम टैक्स बिल के बाद घर में रखा सोना भी जांच के दायरे में आएगा और छापे के दौरान ये ज़ब्त किया जा सकता है. इन ग़लत फ़हमियों को दूर करने के लिए सरकार ने साफ़ कर दिया है कि पुश्तैनी गहनों पर कोई टैक्स लगाने का प्रावधान नहीं है. घोषित आय से ख़रीदे गए सोने पर भी कोई टैक्स नहीं लगेगा. छापा पड़ने की हालत में विवाहित महिला से 500 ग्राम सोने तक कोई पूछताछ नहीं होगी. इसी तरह अविवाहित महिला 250 ग्राम सोना रख सकेंगी. पुरुष 100 ग्राम तक सोना रख सकेंगे.

 बैंको के आगे कतार में खड़े लोगों में से किसकी कहानी क्या होगी कहना बेहद मुश्किल है. एक बुजुर्ग सुबह 11 बजे से कतार में खड़े रहे. चार घंटे बाद भी जब पैसे नहीं मिले तो बताया घर में पत्नी का शव पड़ा है, अंतिम संस्कार के पैसे नहीं है लेकिन बैंकवाले भीतर नहीं जाने दे रहे तो लाइन में खड़े हैं. मामले की गंभीरता देकर एक और कोशिश की गई, बुजुर्ग पैसा लेकर अपने घर की तरफ दौड़ पड़ते हैं, एक शक भी होता है कहीं ये झूठ तो नहीं, कैमरा उस बुजुर्ग का घर तक पीछा करता है जहां मौत का मातम है, इतनी देर में दूसरे लोग किसी तरह संस्कार कर चुके थे. पता चला मौत कैंसर से हुई थी और घर में पैसे नहीं थे.


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