यह ख़बर 03 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

दिल्ली में फिर चुनाव के आसार

नमस्कार, मैं रवीश कुमार। 14 फरवरी यानी वैलैंटाइन दिवस के दिन न तो शपथ लेना चाहिए न इस्तीफा देना चाहिए। आधी जनता भविष्य के जुगाड़ में होती है और बाकी जनता उस जुगाड़ की पहरेदारी में। जिसने बगावत न की उसने मोहब्बत क्या की, लेकिन ये बात आशिक मिज़ाज लोगों के लिए है न कि सियासत वालों के लिए। इस साल 14 फरवरी 2014 के दिन अरविंद केजरीवाल ने 49 दिनों तक मुख्यमंत्री रहने के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।

जिस टीवी ने उस इस्तीफे को अमर गाथा में बदलने का प्रयास किया अब उसी टीवी से उस इस्तीफे का मंज़र और खंजर दोनों गायब है। लोग भूल चुके हैं कि इस्तीफा क्यों हुआ, अरविंद माफी मांग चुके हैं कि गलती हो गई। बीजेपी कह चुकी है कि सरकार चली नहीं तो छोड़ दिया। कैसे कनाट प्लेस के दफ्तर की पहली मंज़िल की खिड़की से अरविंद ने एलान किया था कि वे मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़ रहे हैं। कैसे नाटकीय हो चले इस्तीफे के दौर में एक इस्तीफा नैतिक रूप धारण करता हुआ लग रहा था।
इसी दिन मैं मुंबई से दिल्ली आ रहा था। एयरपोर्ट पर जहां जहां टीवी लगा था लोग चिपके थे कि अरविंद अब क्या करेंगे। उस शाम दिल्ली में ख़ूब बारिश हुई थी।

लेकिन 14 फरवरी से आज तक दिल्ली की सियासी बहस जनलोकपाल और लोकपाल के डाकबंगले की तरफ नहीं लौटी। 2011 से 2013 के बीच इस मुद्दे ने लोगों को घरों से खूब निकाला। एक तरफ लोग जंतर मंतर रामलीला मैदान के लिए निकलते दूसरी तरफ कुछ लोग हैबिटैट और इंटरनेशनल सेंटरों में अन्ना आंदोलन और लोकपाल पर बुक लांच करने लगे।

आंदोलन के नेता अरविंद केजरीवाल की भी एक किताब आ गई। स्वराज। लेकिन आंदोलन की किताब कुछ और होती चली गई। किरण बेदी और अन्ना हज़ारे दूसरी दिशा में गए। अरविंद केजरीवाल राजनीति की दिशा में। इस्तीफा देने के लिए माफी भी मांगी जा चुकी है।

जनलोकपाल अब आम आदमी पार्टी के लिए भी जी जान का मुद्दा नहीं रहा। लोकपाल को लेकर कसमें खाने वाले नेता अब किसी और मुद्दे पर कसमें खाने लगे हैं। आपको ही बेहतर पता होगा कि नाके से लेकर ठेके तक में भ्रष्टाचार कितना खत्म हुआ है। आज नहीं अभी लाओ लोकपाल की जगह पता नहीं कब आयेंगे लोकपाल हो गया है।

19 दिसंबर 2013 को संसद ने लोकपाल विधेयक को पास कर दिया था। तब इसे पास कराने के लिए किरण बेदी के तेवरों को देख लगता था कि वाकई इससे समझौता नहीं होना चाहिए। बाबा रामदेव के वो वाले तेवर ग़ायब हैं जिनकी सभा में हुई लाठीचार्ज से गुड़गांव की राजबाला की मौत हो गई। अब उन्हें प्रधानमंत्री पर भरोसा है। तब अनशन के नाम से ही दिल्ली की सरकार डर जाती थी। कई लोगों को यकीन हो गया कि भ्रष्टाचार नामक फिल्म का दि एंड होने वाला है। मैं जानबूझ कर रंगीन तस्वीर को सिपिया टोन में दिखा रहा हूं ताकि आपको अतीत का बोध हो सके। लगे कि आप स्वतंत्रता सेनानी नहीं हुए तो क्या हुआ।

भ्रष्टाचार से लड़ाई में भाग लेने तो गए ही थे। देखते देखते सबके पास वही टोपी हो गई सबके हाथ में वही झाड़ू आ गया। झाड़ू के कई प्रतीक यानी कई ब्रांड लांच होने लगे। भ्रष्टाचार का मसला बीजेपी आम आदमी पार्टी के समर्थकों में बंट गया है। राबर्ट वाड्रा का आर यू सीरीयस वाला वीडियो न आता तो कांग्रेस भी लोकपाल के लिए सीरीयस हो जाती। पहले लोग बोलते थे नेता सुनते थे। अब वित्तमंत्री अरुण जेटली काले धन की सूची में शामिल नाम न बताने के लिए ब्लाग लिख रहे हैं। प्रधानमंत्री रेडियो पर बोल रहे हैं कि किसी को मालूम ही नहीं कि कितना काला धन है, लेकिन आप पाई पाई के लिए उन पर विश्वास कीजिए।

उधर, कुछ लोग याद दिला रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने चुनाव में फिर क्यों कहा कि काला धन आएगा तो हर नागरिक को तीन-तीन लाख रुपये मिलेंगे। जब किसी को पता नहीं था तब यह आंकड़ा कहां से आया। जो भी है भ्रष्टाचार का पचरंगा अचार बन चुका है।

यही समझने की बात है। अब भ्रष्टाचार के मसले पर जनता की भावुकता कम से कम टीवी स्टुडियो से दूर लगती है। जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के बिना आम आदमी पार्टी कैसे इस चुनाव में खुद को बचायेगी कैसे तीन लाख रुपये न लाकर मगर अन्य कदम उठाकर बीजेपी इस मुद्दे पर अपनी दावेदारी करेगी, ये सवाल तो है मगर इस बार दिल्ली भ्रष्टाचार के मुद्दे पर फैसला देगी कहना मुश्किल है।

सोमवार शाम को लेफ्टिनेंट गवर्नर ने बीजेपी, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को बुलाया। सुबह ही बीजेपी के दो नेताओं ने उपराज्यपाल को चिट्ठी दे दी कि हमारी सरकार बनाने की कोई मंशा नहीं है। शाम को उपराज्यपाल का बयान आया कि तीनों ने सरकार बनाने से इंकार कर दिया है। वे अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेज देंगे। इससे पहले कई राज्यों में चुनाव और उपचुनाव हुए मगर दिल्ली में तीन सीटों के लिए उपचुनाव नहीं हुए।

अब झारखंड और जम्मू कश्मीर के साथ उपचुनाव का एलान हुआ है तो इस पर भी सवाल खड़ा हो गया है कि दिल्ली में चुनाव इसी दौर में पूरे हो जायेंगे या फरवरी में होंगे। बीजेपी दायें बायें से और कभी-कभी सीधे दावे करती रही है कि बना लेगी। अरविंद बयान देते रहे हैं कि उनके विधायक तोड़े जा रहे हैं। प्रदेश बीजेपी के उपाध्यक्ष शेर सिंह डांगर का स्टिंग भी आ गया कि वे चार करोड़ की पेशकश कर रहे हैं। ख्वामख़ाह वे किसी नैतिक दबाव में नप गए। आम आदमी पार्टी बीजेपी पर चुनाव से भागने का आरोप लगा रही थी।

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आखिर बीजेपी ने इस फैसले का एलान खुलकर क्यों नहीं किया। एक सवाल यह भी है कि बीजेपी ने इतना वक्त क्यों लिया। लगता है पार्टिओं से ज्यादा उनके विधायक ही ज्यादा नैतिक निकले। कम से कम दिल्ली का कोई विधायक टूटा तो नहीं। इतनी दाद तो दे ही सकते हैं आप। त्रिलोकपुरी के बाद बवाना की घटना संकेत तो दे ही रही थी कि चुनाव हैं। जागरण और महापंचायतों ने दिल्ली की दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया है। तो दिल्ली के चुनावी मुद्दे महापंचायत तय करेंगे या जागरण या फिर वो भ्रष्टाचार का अधमरा सा मुद्दा जिसे अब सब छोड़कर जा चुके हैं।

(प्राइम टाइम इंट्रो)