प्राइम टाइम इंट्रो : भोपाल जेल में रमाशंकर यादव की हत्या कैसे हो गई, बाकी सुरक्षाकर्मियों ने क्या किया?

प्राइम टाइम इंट्रो : भोपाल जेल में रमाशंकर यादव की हत्या कैसे हो गई, बाकी सुरक्षाकर्मियों ने क्या किया?

रमाशंकर यादव के परिवार को सांत्वना देते मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान

मंगलवार को भोपाल में हेड कांस्टेबल रमाशंकर यादव का पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया. रमाशंकर यादव यूपी के बलिया के रहने वाले थे, मगर इनका परिवार भोपाल में ही बस गया था. बच्चे भी यहीं पले बढ़े हैं. रमाशंकर यादव ने भोपाल सेंट्रल जेल के पीछे अहिल्या नगर में अपना मकान बनाया. यहीं से 9 दिसंबर को उनकी बेटी सोनिया यादव की शादी तय थी. रमाशंकर यादव के दो बेटे हैं. बड़ा बेटा हवलदार शंभुनाथ 36-37 साल का है, जो असम में है. छोटा बेटा लांसनायक प्रभुनाथ हिसार में तैनान है. दोनों बेटों की शादी हो गई है, लेकिन बेटी की शादी के बारे में परिवार फैसला करने की स्थिति में नहीं है कि 9 दिसंबर को ही होगी या इसे टाला जाए. सारी तैयारियां लगभग अंतिम चरण में ही थीं. जेल में रमाशंकर यादव चीफ वार्डर के पद पर तैनात थे. हिन्दी में इस पद को प्रधान प्रहरी कहा जाता है. रमाशंकर यादव की ड्यूटी अतिसुरक्षा वाले सेल में ही थी. दिवाली की रात सेंट्रल जेल से फरार हुए आतंक के मामलों के आठ आरोपियों ने उनकी हत्या कर दी थी. अहिल्या नगर में जेल के कई कर्मचारियों ने अपना घर बनाया है. हमारे सहयोगी सिद्धार्थ रंजन दास और नीता शर्मा से परिवार के सदस्यों ने बातचीत में बताया कि शरीर पर चोट के निशान बताते हैं कि रमाशंकर यादव ने फाइट किया था. बेटे ने कहा है कि उनके पिता की हत्या की जांच होनी चाहिए.

बेटे का भी सवाल है कि यह बात क्लियर होनी चाहिए कि पिता की हत्या कर वे कैसे भाग निकले. इस पूरे मामले में तीन प्रकार के सवाल उठ रहे हैं. पहला सवाल ये है कि रमाशंकर यादव की हत्या कैसे हो गई, बाकी सुरक्षाकर्मियों ने क्या किया, क्या उनका ध्यान बिल्कुल ही रमाशंकर पर नहीं गया. दूसरा सवाल ये है कि आतंक के मामले के आठ आरोपी कैसे भाग गए और तीसरा सवाल एनकाउंटर को लेकर उठ रहा है.

अहिल्या नगर जहां रमाशंकर यादव का घर है, वहां रमाशंकर यादव को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी अंतिम श्रद्धांजलि देने पहुंचे. उन्होंने अहिल्या नगर का नाम रमाशंकर नगर करने का एलान किया है. सम्मान राशि के रूप में दस लाख और बेटी को सरकारी नौकरी की पेशकश की है. शिवराज सिंह चौहान ने भी शव को उठाया. उनके जाने के बाद हाल ही में मंत्री बने स्थानीय विधायक विश्वास नारंग ने रमाशंकर यादव को कंधा दिया और वे श्मशान घाट तक गए. पुलिस के अधिकारी भी मौजूद थे. मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि सवाल नहीं होना चाहिए. लोग रमाशंकर यादव के लिए कम बोल रहे हैं, इन आतंकवादियों के लिए क्यों ज़्यादा बोल रहे हैं.

रमाशंकर यादव के साथ एक और सिपाही चंदन अहिरवार के भी घायल होने की ख़बर आई थी. इनके बारे में पता चला है कि भागने वाले प्रतिबंधित सिमी कार्यकर्ताओं ने रस्सी से बांध कर सेल में डाल दिया था. हमारे सहयोगी श्रीनिवासन जैन ने चंदन अहिरवार जी से भी बात करने का प्रयास किया, चंदन सदमे में हैं, बताया कि उनके पास हथियार नहीं था.

परिवारवालों ने बताया कि 58 साल के रमाशंकर यादव आतंकवादी सेल में तैनात थे और दोपहर से मध्य रात्रि की ड्यूटी पर थे. एक बैरक के भीतर कई सेल होते हैं. हर सेल का अपना दरवाज़ा होता है. उसके बाद बैरक के बाहर भी एक दरवाज़ा होता है जिस पर ताला लगा होता है. पहला सवाल इसी को लेकर उठा कि दो दरवाज़े तोड़ कर कोई कैसे बाहर आ गया. क्या लकड़ी की चाबी या चम्मच की चाबी की बात सही हो सकती है. हमारे सहयोगी श्रीनिवासन जैन ने हेड जेलर एस. के. एस. भदौरिया से भी बात की. भोपाल सेंट्रल जेल आई एस ओ प्रमाणित जेल है तब भी इसके मुखिया कह रहे हैं कि सिमी के इतने लोग बंद रहेंगे तो जेल ब्रेक की घटना हो सकती है. क्या इन्होंने सरकार से यह बात लिखित में कही थी. पुलिस से लेकर हेड जेलर तक सभी कह रहे हैं कि सभी अलग-अलग सेल में थे. सोमवार को आईजी योगेश चौधरी ने भी कहा था कि भागने वाले सभी क़ैदियों को अलग-अलग बैरक में रखा गया था, जो अलग-अलग सेक्टर में थे.

जेल की तीन दीवारों को समझना ज़रूरी है. जिस सेल में आतंकवादी रखे जाते हैं, पहली दीवार उससे सत्तर से अस्सी फीट दूर थी. ये दीवार करीब 35 फीट ऊंची थी. इसके बाद दूसरी दीवार 20 फीट की होती है. सबसे बाहर की दीवार जिसे हम बाउंड्री वाल कहते हैं, वो चार या पांच फीट की होती है. बाहरी चारदिवारी का दायरा दो किमी है. जेल के अंदर 42 सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. आतंक के इन आरोपियों को बी और सी सेक्शन में रखा गया था, जिसके चार सीसीटीवी कैमरे काम नहीं कर रहे थे. हमारी सहयोगी नीता शर्मा का कहना है कि इनसे कुछ भी नहीं मिला है. अब यह साफ नहीं है कि एक बैरक जिसके भीतर कई सेल होते हैं, वहां चार ही सीसीटीवी कैमरे होते हैं या और भी अधिक होते हैं.
जेलर ने बताया कि जेल में 5-6 कैमरे 360 डिग्री पर घूमने वाले हैं. क्या इनसे भी आठों के आठों बच गए.

इस घटना ने जेल के सिस्टम को एक्सपोज़ किया है इसलिए भागे जाने को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि कोई बिना किसी प्रतिरोध के इतनी बड़ी संख्या में कैसे भाग गया, वो भी एक जवान की हत्या करके। जेल मंत्री ने श्रीनिवासन जैन के साथ बातचीत में माना कि उनकी ज़िम्मेदारी बनती है, लेकिन वो डेढ़ महीना पहले जेल मंत्री बनी हैं. ये बात भी ठीक है. मंत्री को हटा देने से सवालों के जवाब नहीं मिल जाते हैं, क्योंकि जेल का निर्माण तो डेढ़ महीने पहले नहीं हुआ है.

सीसीटीवी का फुटेज अब भागने वालों से ज्यादा रमाशंकर की हत्या का पता लगाने के लिए ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि अगर रमाशंकर की शहादत के नाम पर सवालों को संदिग्ध किया जा रहा है तो कम से कम उनकी हत्या का मामला ज़रूर खुलना चाहिए. जेल की पुलिस और राज्य की पुलिस दो अलग-अलग संस्थाएं हैं. मध्य प्रदेश के गृहमंत्री ने सोमवार को 'प्राइम टाइम' में बताया था कि 12 से 3 बजे के बीच घटना हुई और साढ़े चार बजे के करीब राज्य पुलिस को सूचना मिली. डेढ़ घंटे की देरी हुई. भागने वालों के पास इतने हथियार कैसे आ गए, अगर हथियार आए तो भागने के लिए गाड़ी भी मिल सकती थी, और जेल से सटे हाईवे की तरफ भी ध्यान जा सकता था. हमारी सहयोगी नीता शर्मा ने एनकाउंटर की जगह का मुआयना करते हुए दिखाया कि चोटी से थोड़ी दूर एक झोपड़ी है वहां पर पहले ये छिपे हुए बताये जा रहे थे. रात अंधेरे किसी सुरक्षाकमर्मी की हत्या कर भागेगा तो यहां इस झोपड़ी में क्यों छिपेगा. वो भी इनमें से तीन भागने वाले पहले भी खंडवा जेल से भाग चुके हैं. वो काफी लंबे समय तक फरार रहे थे और कथित रूप से कई तरह की आपराधिक और आतंकी गतिविधियों में इन पर शामिल रहने का आरोप भी लगा.

रमाशंकर यादव की हत्या, जेल प्रशासन की चूक इन दो सवालों के बाद आता है, एनकाउंटर का सवाल. कई तरह के आए बयानों और वीडियो फुटेज ने भी सवाल की गुंज़ाइश पैदा की है. एक बयान आया कि ये जेल से भागकर वारदात करने वाले थे. जब ये पता था कि वारदात करने वाले थे तो क्या ये पता नहीं लगा कि ये जेल से भी भागने वाले थे. यह बात भी सही है कि अगर इनका एनकाउंटर नहीं होता, या ये पकड़े नहीं जाते तो आज मध्य प्रदेश पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की हालत ख़राब होती. लेकिन इस तरह से एनकाउंटर का होना आप चाहें भी तो सवालों से नहीं बच सकते हैं. श्रीनिवासन जैन ने आई जी योगेश चौधरी से भी बात की. एनकाउंटर के चौबीस घंटे बाद भी आई जी योगेश चौधरी कह रहे हैं कि जो तीन जवान धारदार हथियार से घायल हुए हैं. फरार कैदियों की तरफ से पुलिस की ओर गोलियां चलाई गईं. फिर धारदार हथियार यानी शार्प वेपन से जवान कैसे घायल हो गए. क्या ये एनकाउंटर एकदम पास पास हो रहा था. तेज़ हथियार से घायल तो तभी होगा जब दोनों पक्ष एक दूसरे के करीब हों. गांव के सरपंच मोहन सिंह मीणा ने भी समाचार एजेंसी ए एन आई से बात की. मीणा के जवाब से मालूम पड़ता है कि वे पत्थर चला रहे थे. पुलिस कहती है कि उनके पास देसी बंदूकें थीं, मगर एनकाउंटर में जो तीन सिपाही घायल हुए हैं वो धारदार हथियार से घायल हुए हैं. क्या पत्थर भी शार्प वेपन में गिना जाता है.

कई लोग मारे गए आठ लोगों को आतंकवादी कह रहे हैं. हमें पत्रकारिता में सिखाया गया है कि साबित होने से पहले तक आरोपी या कथित रूप से आरोपी लिखना चाहिए. मगर सब आतंकवादी कह रहे हैं जबकि किसी को सज़ा नहीं हुई है. अतीत में कई ऐसे मामले हुए हैं, जिनमें आतंक के मामले में लोग दस बीस साल तक जेल में बंद रहे, उन्हें आतंकवादी ही कहा जाता रहा मगर उनके खिलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला और वे सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए. आतंक के आरोप में तमाम अदालतों से बरी हुए 24 ऐसे लोगों की कहानी संकलित कर जामिया टीचर्स सोलिडेरिटी एसोसिएशन ने एक किताब प्रकाशित की थी. किताब का नाम है Framed Dammed Aquitted. इस किताब में बरी हुए हर केस के पीछे मीडिया की क्लिपिंग भी है, जिसमें आप देख सकते हैं कि गिरफ्तारी के वक्त मीडिया कैसे आतंकवादी कहने लगता है. मीडिया ही नहीं, रिश्तेदार, दोस्त-यार सब दूरी बना लेते हैं.
 


आप हमारे स्क्रीन पर इस वक्त दो तस्वीरें देख रहे हैं. एक तस्वीर उस नौजवान की है, जब वो 20 साल था यानी 1994 की. एक तस्वीर 31 मई 2016, अब उम्र है 43 साल. इन दो तस्वीरों के बीच इस शख्स की ज़िंदगी के 8150 दिन जेल में गुज़रे हैं. 23 साल जेल में गुज़ारने के बाद एक दिन जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन बयानों के आधार पर निसार को आजीवन कारावास की सज़ा काटनी पड़ी है वो सबूत के तौर पर पर्याप्त नहीं हैं. जेल से बाहर आकर निसार को लगा कि अब वो सिर्फ एक ज़िंदा लाश की तरह बचा हुआ है. 23 साल तक बग़ैर किसी गुनाह के जेल में रहने के बाद जब घर आया तो अब्बा इस दुनिया से जा चुके थे. अपनी अम्मी से लिपटा तो रो पड़ा, शायद बहुत ही रोया होगा.

कई राज्यों की पुलिस ने निसार को कई बम धमाकों में आरोपी बनाकर 23 साल तक जेल में रखा मगर सुप्रीम कोर्ट ने यही कहा कि इकबालिया बयान पर्याप्त रूप से सबूत नहीं है. अब आप दर्शक तय करें. यह पूछा जा रहा है कि भोपाल के भागे सिमी कार्यकर्ताओं को कुछ लोग या कुछ पत्रकार आतंकवादी क्यों नहीं कह रहे हैं. इस सवाल का जवाब दिया जाना चाहिए और पूछने वाले बिल्कुल सही सवाल पूछ रहे हैं. मैं छोटा सा प्रयास करता हूं. सोशल मीडिया पर भद्दी गालियों के साथ सवाल पूछने वाले कह रहे हैं कि क्या इन्हें आतंकवादी इसलिए नहीं कहा जा रहा है क्योंकि ये मुसलमान हैं. अव्वल तो ज़्यादातर चैनल और अखबार आतंकवादी ही लिख रहे हैं, इसलिए ये शिकायत वाजिब नहीं है. शिकायत ये होनी चाहिए कि क्यों आतंकवादी लिख रहे हैं... पर ख़ैर. निसार का ही केस लीजिए. मुझे आप पर यकीन है. आप निसार की कहानी जानकर ये नहीं कहेंगे कि मुसलमान के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए. यही कहेंगे कि किसी भी भारतीय के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए, तो भोपाल मामले में जिन्हें आरोपी कहा जा रहा है, उन्हें आतंकी कहने की ज़िद क्यों हैं. हां, वो आतंक के आरोप में बंद ज़रूर हैं और एक सिपाही की हत्या करने का भी आरोप लगा है. एक केंद्रीय मंत्री ने भी इशारे में धर्म के कारण इनसे सहानुभूति की बात कही है. एनकाउंटर ने सबको सताया है. हिन्दू को भी, सिख को भी, आदिवासी को भी और न जाने किस-किस को. हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में एक ख़बर छपी थी.
 
(आईएएस अफसर किंजल)

लखनऊ से मनीष साहू की ये स्टोरी है. ये आई ए एस अधिकारी किंजल हैं, जो स्टोरी लिखे जाने के वक्त बहराइच की डीएम थी. किंजल के पिता के पी सिंह यूपी पुलिस में डी एस पी थे. जब वो पांच साल की थी तब उसके पिता को पुलिस के ही लोगों ने एनकाउंटर कर दिया. एनकाउंटर साबित करने के लिए के पी सिंह के साथ साथ गांव के 12 लोगों को मार दिया. 31 साल तक बेटी ने ये मुकदमा लड़ा. इस बीच वो आई ए एस अफसर बन गई. मगर बाप अपराधियों की संगत में एनकाउंटर में मारा गया, कैसे बर्दाश्त कर सकती थी. 31 साल बाद कहानी ये निकली कि के पी सिंह खुद दो अपराधियों को पकड़ने गए थे, लेकिन पीछे खड़े सब इंस्पेक्टर आर बी सरोज ने उनकी छाती में गोली उतार दी. इंस्पेक्टर सरोज को आजीवन कैद की सज़ा हुई. 12 पुलिस अधिकारियों को सज़ा हुई. इनमें हिन्दू भी थे और मुसलमान भी. इसलिए पुलिस के एनकाउंटर पर सवाल उठते रहे हैं. इसका हिन्दू या मुसलमान से कोई लेना देना नहीं है.

इसका मतलब यह नहीं है कि भोपाल जेल से भागने वाले अपराधी निर्दोष हैं. जब तक आरोप साबित नहीं होता तब तक वे निर्दोष भी नहीं हैं, लेकिन एनकाउंटर पर सवाल क्यों नहीं किया जा सकता है. जेल से कैसे भागे, क्यों नहीं सवाल हो सकता, रमाशंकर यादव की हत्या कैसे हुई क्यों नहीं सवाल हो सकता. हमने यह भी देखा कि मालेगांव बम धमाके की आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के बारे में मीडिया ने कैसे लिखा है. आरोपी लिखता है या आतंकवादी लिखता है. हम सारे अखबारों को तो खंगाल नहीं सके लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की हेडिंग में सीधे पूरा नाम लिखा है. हेडिंग में आरोपी भी नहीं लिखा है, आतंकवादी भी नहीं लिखा है.

बेहतर है कि आप सरकार और अदालत मिलकर तय कर लें कि अब से पुलिस जिसे भी पकड़ लेगी, वो चोर, डाकू, हत्यारा या आतंकवादी कहलाएगा. आरोपी या कथित रूप से आरोपी नहीं लिखा जाएगा. सबके लिए ये नियम बन जाना चाहिए. जबतक ये नियम न बन जाए, मुझे आरोपी लिखने में कोई दिक्कत नहीं है. शायद नासिर या आई ए एस अफसर किंजल को भी दिक्कत नहीं होगी.

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