प्राइम टाइम इंट्रो : असमानता की खाई - एक तरफ 62, दूसरी तरफ साढ़े तीन अरब

प्राइम टाइम इंट्रो : असमानता की खाई - एक तरफ 62,  दूसरी तरफ साढ़े तीन अरब

प्रतीकात्मक चित्र

अगर हम आपको यह बताएं कि दुनिया में 62 ऐसे लोग हैं जिनके पास इतनी दौलत है जितनी इस धरती पर मौजूद आबादी के आधे सबसे गरीब लोगों के पास भी नहीं है तो आपको आश्चर्य होगा या आप यह कहेंगे कि कौन सी नई बात है? तो क्या आप यह नहीं पूछेंगे कि विकास और तरक्की के दावे सिर्फ कुछ लोगों को अमीर बनाने के लिए हैं? गरीब अगर और गरीब हुआ तो क्या यह चिन्ता की बात नहीं है? क्या अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ना समाज या आपके लिए चिन्ता की कोई बात ही नहीं है?

62 लोग जो सिर्फ एक बड़ी बस में समा सकते हैं, के पास इतनी दौलत है जितनी दुनिया के साढ़े तीन अरब लोगों के पास कुल मिलाकर भी नहीं है। यह आंकड़े एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ Oxfam के हैं जो हर साल जनवरी के महीने में दुनिया में गरीबों की हालत को आंकड़ों के जरिए दिखाती है।

Oxfam 90 देशों में काम कर रही 17 संस्थाओं का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है जिसका मकसद गरीबी, भुखमरी और अन्याय से लड़ना है। Oxfam के मुताबिक दुनिया का हर तीसरा आदमी भारी गरीबी में जी रहा है और Oxfam की कोशिश लोगों की सामूहिक शक्ति को जुटाकर गरीबी, भुखमरी के खिलाफ मुहिम छेड़ना है। इस सिलसिले में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीतियों को प्रभावित करना है ताकि हर गरीब को उसका वाजिब हक मिल सके।

Oxfam के आंकड़ों के मुताबिक आर्थिक गैर बराबरी पिछले कुछ सालों में बड़ी ही तेज़ी से बढ़ी है। सन 2010 से लेकर 2015 के बीच दुनिया के आधे सबसे गरीब लोगों यानी 3.6 अरब लोगों की कुल संपत्ति में 41 फीसदी की गिरावट आई है, यानी एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर। जबकि इसी दौर में दुनिया के 62 सबसे अमीर लोगों की दौलत 500 अरब डॉलर से बढ़कर 1.76 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हो गई है यानी करीब 250% ज़्यादा।
Oxfam की रिपोर्ट "An Economy for the 1%", के मुताबिक बीते बारह महीनों में दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब लोगों के बीच यह आर्थिक खाई सबसे ज्यादा बढ़ी।

2011 में दुनिया के 388 सबसे अमीर लोगों के पास आधी ग़रीब दुनिया के बराबर दौलत थी, जो 2012 में ये 177 अमीरों के पास सिमट गई। 2014 में यह 80 लोगों के पास रह गई और 2015 में 62 सबसे अमीर लोगों के पास।

इन अमीरों के बीच भी एक गड़बड़ है। ज्यादा अमीर पुरुष ही हैं। महिलाएं बहुत कम हैं। 62 सबसे अमीर लोगों में से सिर्फ नौ महिलाएं शामिल हैं। स्विट्ज़रलैंड के डावोस में दुनिया के अमीर देशों की सालाना बैठक वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम से ठीक पहले यह रिसर्च जारी की गई है। डावोस में यह बैठक 20 जनवरी से 23 जनवरी के बीच होनी है। Oxfam के चीफ एग्ज़िक्यूटिव मार्क गोल्डरिंग के मुताबिक उनकी संस्था डावोस में जमा हो रहे दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों और नेताओं के बीच यह मुद्दा उठाएगी। उनका कहना है कि आर्थिक गैर बराबरी को लेकर दुनिया के नेताओं की चिंता अभी तक किसी ठोस कार्रवाई में नहीं बदली है।

मार्क गोल्डरिंग के मुताबिक ऐसी दुनिया में जहां हर नौ में से एक आदमी को रात में भूखा ही सोना पड़ता है वहां अमीरों को समृद्धि का इतना बड़ा हिस्सा नहीं दिया जा सकता। हमें टैक्स छूट के ठिकानों यानी tax havens का दौर खत्म करना होगा जिसने अमीर लोगों और मल्टीनेशनल कंपनियों को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भागने का मौका दिया है, क्योंकि यह लोग अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा विदेशों में उन tax havens में जमा कर देते हैं।

Oxfam की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के गरीब देशों की हालत तो और भी खराब है। अनुमान है कि अफ्रीका के देशों की 30 फीसदी संपत्ति विदेशों में safe tax havens में जमा की गई है। यह पैसा दुनिया के सबसे गरीब लोगों का है। इससे अफ्रीकी देशों की सरकारों को टैक्स राजस्व में 14 अरब डॉलर के नुकसान का अनुमान है, जो इतने बच्चों और उनकी मांओं की सेहत की देखभाल के लिए इस्तेमाल हो सकता है जिससे हर साल 40 लाख बच्चों की जान बचाई जा सके। यही नहीं यह इतना पैसा है कि हर अफ्रीकी छात्र को स्कूल में भेजा जा सके।

ऑक्सफ़ैम के मुताबिक दुनिया के अमीर लोगों ने 7.6 ट्रिलियन डॉलर संपत्ति दूसरे देशों में छुपा रखी है। अगर इस संपत्ति से होने वाली आय पर टैक्स लगता तो दुनिया की सरकारों को 190 अरब डॉलर हर साल मिल सकते थे। ऑक्सफैम ने अपनी रिपोर्ट में गंभीर आर्थिक गैर बराबरी को रोकने के लिए तीन तरफा कोशिशों की जरूरत बताई है। टैक्स से बचने के रास्तों पर कार्रवाई, जनसेवाओं में ज्यादा निवेश और कम तनख़्वाह पाने वालों के वेतन में ज्यादा इजाफ़ा।

ऑक्सफैम के मुताबिक अमीर लोग और कंपनियां टैक्स बचाने के लिए जिन जगहों पर यानी tax havens में अपने पैसे को जमा करते हैं उन्हें बंद किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने से गरीबी और गैर बराबरी का मुकाबला करने के लिए जरूरी संसाधन सरकारों को नहीं मिल पाते।

ऑक्सफैम का कहना है कि वह डावोस में मल्टी नेशनल कंपनियों के अधिकारियों को उनकी टैक्स नीतियों पर सवाल-जवाब करेगी। ऑक्सफैम के मुताबिक वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के 10 कॉर्पोरेट पार्टनरों में से नौ ने कम से कम एक टैक्स हेवन में अपना पैसा छुपाया हुआ है। 201 में से 188 बड़ी कंपनियां टैक्स बचाने के लिए अपना पैसा टैक्स हेवन में जमा कर रही हैं। अनुमान है कि मल्टीनेशनल कंपनियों की ओर से इस तरह टैक्स बचाने से विकासशील देशों को हर साल 100 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है।

तो यह तो रही दुनिया की बात, अगर भारत की बात करें तो आर्थिक गैर बराबरी का यह सिलसिला यहां भी कमोबेश ऐसा ही है। भारत आज दुनिया के तीसरे सबसे ज्यादा अरबपति धन कुबेरों का देश बन चुका है, लेकिन साथ ही साथ इसके अंदर दुनिया की गरीब और भूखी आबादी का एक तिहाई हिस्सा निवास करता है।

सन 1990 में भारत में दो ऐसे उद्योगपति थे जिनकी आय 32 अरब डॉलर थी। 2012 में यह संख्या बढ़कर 46 हो गई और उनकी कुल दौलत 176 अरब डॉलर पहुंच गई। देश के जीडीपी में उनका हिस्सा एक से दस फीसदी तक पहुंच गया। इसके मुकाबले अगर खरीद क्षमता के आधार पर देखा जाए तो देश की अस्सी फीसदी से ज्यादा ग्रामीण आबादी और 70 फीसदी से ज्यादा शहरी आबादी गरीब है। इसके बावजूद गरीबी से निपटने को तरजीह नहीं दी जा रही है। तमाम योजनाओं के पीछे भले ही गरीबी मिटाने के दावे किए जाते हों, लेकिन हालत यह है कि कॉर्पोरेट इंडिया को पांच लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट मिल रही है। इतने पैसे से शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य के भारी अंतर को पाटा जा सकता था। सरकार सेना पर स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले करीब दोगुना खर्च करती है। जिस पैसे को असमानता से निपटने के लिए खर्च किया जा सकता है, उसे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और टैक्स ब्रेक के द्वारा डाइवर्ट कर दिया जाता है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक अगर भारत गैर बराबरी में बढ़ोत्तरी का यह सिलसिला रोक दे तो 2019 तक भारत में नौ करोड़ लोगों को भारी गरीबी के दायरे से बाहर लाया जा सकता है। और अगर गैर बराबरी में 36 फीसदी की कमी आ जाए तो भारत में सभी लोगों को बेहद गरीबी से बाहर निकाला जा सकता है।

भारत के अलावा अगर पूरे एशिया की हालत देखें तो यहां आर्थिक असमानता तो है ही पुरुष और महिलाओ में गैर बराबरी भी काफी ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र संघ दक्षिण एशिया को दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र मानता है जहां महिलाएं असमानता से ग्रस्त हैं।

भारत और पाकिस्तान में 3 में से 1 महिला तनख्वाह पर काम करती है। बांग्लादेश में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा 21% कम तनख्वाह पाती हैं। एशिया के तकरीबन आधे देशों में कानून और परंपराओं की वजह से महिलाओं को जमीन पर अधिकार नहीं मिल पाता। महिलाओं की आर्थिक स्थिति पर इस तरह के पहरे होने के बावजूद एशिया की दो-तिहाई जनसंख्या गरीबी में जी रही है।

महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व कम होने की वजह से वे इस असमानता के खिलाफ ज्यादा कुछ कर भी नहीं पाती हैं। गरीबी और असमानता को दूर करने के लिए दुनिया भर में अलग-अलग आर्थिक मॉडल पेश किए गए हैं। इस साल अर्थशास्त्र का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार भी इसी क्षेत्र में शोध के लिए दिया गया। यह पुरस्कार दुनिया में उपभोग, गरीबी और कल्याण का विश्लेषण करने वाले प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एंगस डीटॉन को दिया गया। प्रोफेसर एंगस डीटॉन ने आंकड़ों के आधार पर दुनिया में आर्थिक गैर बराबरी का पता लगाने का काम किया और उसे दूर करने के लिए आर्थिक नीतियों को तैयार करने की सलाह दी है। प्रोफेसर डीटॉन ने यह पता लगाने की कोशिश की कि आय बढ़ने पर गरीबों के रहन-सहन उपभोग खासतौर पर भोजन में कितना और कैसा अंतर आता है। इसके अलावा आय बढ़ने का गरीबों की सेहत से क्या संबंध है।  

गैर बराबरी की जब भी बात होती है तो यह भी सामने आता है कि किस तरह राजनीतिक ताकत अमीरों और ऊंचे रसूख वालों के हाथों की कठपुतली बन जाती है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन से बेहतर इसे कौन समझेगा। कल ही रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक के कर्मचारियों को एक संदश में खरी-खरी बात कही। उन्होंने कहा कि अमीर, ऊंचे रसूख और बड़ी पहुंच रखने वाले लोग गलत काम करने पर भी बच जाते हैं। अक्सर कहा जाता है कि भारत एक कमजोर देश है। हम पर न केवल यह आरोप लगता है कि हम प्रशासनिक तौर पर गलत काम रोकने की क्षमता नहीं रखते बल्कि यह भी कि हम गलत करने वाले को भी सजा नहीं देते जब तक कि वह कमजोर और छोटा न हो। राजन का कहना है कि अगर हमें लगातार विकास करते रहना है तो इस संस्कृति को खत्म करना होगा। राजन की यह बात इसलिए भी अहम हो जाती है क्योंकि बैंकों के सामने कई बड़े-बड़े डिफॉल्टर्स हैं जिनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, जबकि छोटे कर्जदारों के साथ कड़ा सलूक होता है। राजन ने साफ किया कि वे अमीर लोगों या कारोबार के खिलाफ नहीं हैं बल्कि गलत करने वालों और कानून तोड़ने वालों के खिलाफ हैं। राजन ने यह भी कहा कि ऐसा लगता है कि हम नियमों का पालन नहीं करवा पा रहे हैं। मुझे लगता है कि हमें जांच और गलत करने वालों की सख्ती से पहचान करनी होगी और छोटे से लेकर बड़ों तक नियमों का पालन न करवाने वालों पर पैनल्टी करनी होगी। राजन का यह बयान ऐसे समय आया है जब रिजर्व बैंक और पूरा बैंकिंग सेक्टर non-performing assets (NPAs) और जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई में संघर्ष करता दिख रहा है।

पीकिंग विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार चीन में भी यही हाल है। वहां भी गरी,ब गरीब हो रहे हैं और अमीर सिर्फ अमीर। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीस साल में चीन में आर्थिक असामनता काफी बढ़ी है। आप जानते हैं कि इन्हीं तीस सालों में चीन ने काफी तेजी से तरक्की की है। इन तीस सालों के ज्यादातर हिस्से में जीडीपी की दर डबल डिजिट में रही है, तब यह हाल है। यही नहीं असमानता बढ़ने की दर भी पहले से तेज हो गई है यानी गरीब और गरीब ही नहीं हो रहे बल्कि और तेजी से गरीब होते जा रहे हैं। चीन में एक प्रतिशत लोगों के पास पूरे मुल्क की एक तिहाई संपत्ति है।

असामनता की रिपोर्ट सिर्फ आक्सफाम की नहीं है। कई अर्थशास्त्री विकास के दावे को चुनौती दे रहे हैं। मशहूर अर्थशास्त्री थामस पिकेटी ने तो कैपिटल नाम से एक मोटी से भी ज्यादा मोटी किताब लिखी है जिसमें यह दर्शाया है कि कैसे अमरीका में एक प्रतिशत लोग ही अमीर हुए हैं। उनके इस शोध की आलोचना भी होती है। लेकिन हांगकांग के एक धनाड्य जिन्हें एशिया का अमीर होने का खिताब हासिल है, ली का शिंग ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि उन्हें इस असमानता को देख रातों को नींद नहीं आती है।

सरकार को ऐसी नीतियां लागू करनी चाहिए तो समाज में संपत्ति या संसाधन का फिर से वितरण करे। कोई तरीका ढूंढना ही होगा जिससे यह असमानता कम हो वर्ना असंतोष बढ़ने लगेगा।

2015 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार एंगल डीटन को मिला था। डीटन भी अपने शोध से इस असमानता के पक्ष को मजबूती से उभारते हैं और दुनिया का ध्यान इस ओर खींचने का प्रयास कर रहे हैं कि उसी दौर में जब ज्ञान और टेक्नालजी का इतना विस्तार हो रहा है तब गरीबी क्यों बढ़ रही है। कुछ ही लोग क्यों अमीर हुए जा रहे हैं। अगर आप दुनिया के उन एक प्रतिशत या कुछ प्रतिशत में शामिल है जो पहले से अमीर हुए हैं तो चिन्ता की बात नहीं है।

(रवीश कुमार NDTV इंडिया में सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं.)

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