आप दर्शकों ने वाजिब सवाल उठाए हैं। जनवरी में जब फ्रांस में ही शार्ली एब्दो पर हमला हुआ और 17 लोग मारे गए तब भी वहां की मीडिया और खासकर समाज का संयम गज़ब तरीके से सामने आया। हर कोई इस बात को लेकर सतर्क था कि ऐसी बात न करें, जिससे किसी समुदाय को बेवजह ठेस पहुंचे। फ्रेंच समाज और मीडिया देख पा रहा था कि यह कुछ लोगों की खूनी करतूत है। इसे सामाजिक, धार्मिक मान्यता हासिल नहीं है। भारत में ऐसा नहीं होता है। राजनीतिक प्रवक्ता, एक्सपर्ट, न्यूज एंकर खूब चीखते-चिल्लाते हैं और उसी वक्त प्रधानमंत्री को नकारा साबित कर देते हैं। यही सवाल आप खुद से भी पूछिए। आप क्यों ऐसे चैनलों को देखते हैं जिनके एंकर चीखते-चिल्लाते हैं। जिनकी ब्रेकिंग न्यूज़ वाली पट्टी से आग के शोले निकलते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि भारतीय मीडिया को लेकर आपका सवाल गलत है। दुख है कि इतनी सी बात आपको सीएनएन और बीबीसी देखने के बाद पता चली। वैसे वहां की मुख्यधारा की मीडिया की भाषा के संयम पर मत जाइए। उस राजनीति पर जाइए, जो आतंक के पीछे की साज़िशों को आसानी से कालीन के नीचे सरका देता है। जैसे अंकारा और बेरूत में हुए आतंकी हमले की ख़बरों को प्रमुखता नहीं दी गई।
हर आतंकी हमले के बाद दुनिया एकजुट होने का संकल्प करती है। सीसीटीवी कैमरों की खपत बढ़ जाती है और और कुछ जासूसों की भर्ती निकल जाती है। इसके बाद सब अपने-अपने काम में लग जाते हैं और आतंक फिर से कहीं आ धमकता है।
याद कीजिए इसी साल एक सितंबर की एक तस्वीर ने पूरी दुनिया खासकर यूरोप को झकझोर दिया था। समंदर के किनारे तीन साल के बच्चे आयलन का एक शव पड़ा था। सीरीया से ग्रीस भागते वक्त तुर्की के पास नाव पलट गई और सब कुछ खत्म हो गया है। इस तस्वीर ने शरणार्थी की समस्या को लेकर पूरे यूरोप में सनसनी पैदा कर दी। यूरोप पर आरोप लगा कि वो शरणार्थियों के प्रति संवेदनशील नहीं है। फ्रांस ने कहा था कि यूरोप को आपात स्तर पर इस समस्या के प्रति कदम उठाने होंगे। फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, ब्रिटेन में बहस होने लगी। सीरिया से भागने वाले शरणार्थियों को शरण दी जाए या नहीं। चार साल से सीरिया युद्ध ग्रस्त है। वहां अनगिनत लोग मारे गए और घायल हुए हैं। युद्ध से आजीज़ आकर लाखों लोग पलायन करने लगे। उन्हीं देशों में जिनकी सेना उनके घरों पर बम बरसा रही है। अब उन्हीं शरणार्थियों के खिलाफ आवाज़ उठने लगी है। हमारी भावुकता बदल चुकी है।
जर्मनी जो ज़्यादा उदार रहा है उस पर अपनी सीमा को सील करने का दबाव बढ़ेगा। चांसलर एंजेला मार्केल जो शरणार्थियों को लेकर उदार थी, अब संकट में पड़ सकती हैं। पोलैंड अभी से कहने लगा कि बिना सुरक्षा की गारंटी के वो अब शरणार्थी को अपनी ज़मीन पर नहीं आने देगा।
फ्रांस ने हमले का बदला लेने के लिए इस्लामिक स्टेट के गढ़ माने जाने वाले रक्का पर हवाई हमला बोल दिया। सितंबर महीने में भी फ्रांस की सेना ने सीरिया पर हमला बोला था। हर हमले में ट्रेनिंग कैंप और कुछ ठिकानों पर हमला करने का दावा किया जाता है। फ्रांस के राष्ट्रपति ने तब कहा था कि जब भी हमारे मुल्क को खतरा होगा हम हवाई हमले करेंगे। कैसे होता है कि अलकायदा खत्म होता है तो ISIS आ जाता है। ISIS धर्म की गोद से पैदा हुआ या कुछ मुल्कों की सोच से मगर इस्लाम इसका बाहरी चेहरा तो है ही। दावे किए गए हैं कि सीरिया की बागी सेना के लोग इसमें गए हैं। सद्दाम हुसैन की बची खुची सेना के लोगों ने इसके आधार को मज़बूत किया है। अमेरिका और सीआईए का भी नाम आता है। अब सवाल है कि क्या यह जाने बगैर कि ISIS को किसने पैदा किया, उससे लड़ा जा सकता है। इसके पास हथियार और धन कहां से आ रहा है।
14 नवंबर को चुनावी बहस के सिलसिले में डेमोक्रेट नेता बर्नी सैंडर्स ने कहा कि 2003 में अमेरिका का इराक पर हमला करना उसकी विदेश नीति की सबसे बड़ी चूक है। सैंडर्स ने कहा है कि इराक हमले की गर्भ से ही अलकायदा और ISIS का जन्म हुआ है। क्या यह इतनी मामूली गलती थी कि इसे कोई देश यूं ही या ऐं वीं कहकर बच जाए। हिलेरी क्लिंटन ने कहा कि ISIS का प्रसार इंटरनेट के कारण हो रहा है। क्या यह हल्का जवाब नहीं है। गलती अमेरिका की थी तो अब हिलेरी क्लिंटन क्यों कह रही हैं कि यह सिर्फ अमेरिका की लड़ाई नहीं है। 25 अक्टूबर को ही ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने भी स्वीकार किया कि इराक पर अमेरिकी हमले का साथ देना बड़ी गलती थी। इस्लामिक स्टेट के उभार के पीछे यह भी एक वजह है।
आतंकवाद हमसे लड़ रहा है। हम उससे नहीं लड़ पा रहे हैं। विमान से आतंकी ठिकानों पर हमला करने के साथ-साथ दुनिया को बताया जाना चाहिए कि तालिबान को किसने पैदा किया। अलकायदा के पीछे कौन था और ISIS के पीछे कौन है। कैसे एक साल के भीतर ISIS उभर आता है और पूरी दुनिया के लिए खतरा बन जाता है। यहीं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात लाना चाहता हूं। वे अपनी कई यात्राओं में कह रहे हैं कि आतंकवाद को परिभाषित करने की ज़रूरत है।
प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र के 70 साल होने के मौके पर कहा था कि हमें और समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। जिससे कि हमें पता चले कि कौन आतंकवाद के साथ है और कौन खिलाफ है। प्रधानमंत्री ने ये बात अपने हर दौरे पर दोहराई है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पेरिस हमले के बाद जागे हैं और कह रहे हैं कि आतंकवाद को रोकने के लिए वे एक व्यापक योजना प्रस्तुत करेंगे। अभी तक संयुक्त राष्ट्र क्या कर रहा था। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने आतंकवाद पर एक शिखर सम्मेलन बुलाने की बात कही है। क्या पश्चिमी मुल्क इन सवालों से टकराने का साहस दिखा पाएंगे कि ISIS को किसने पैदा किया। इस्लाम के सवाल से भी खुलकर टकराना होगा। इस्लाम का वहाबी चेहरा अगर कारण है और खतरनाक है तो उस पर भी बात होनी ही चाहिए।
कई जानकार लिखते हैं कि सऊदी अरब वहाबी इस्लाम का प्रसार कर रहा है, जिसके असर में इस्लाम के नाम पर आत्मघाती नौजवानों की खेप निकल रही है। यूरोप को अपने भीतर झांककर देखना होगा कि आखिर क्या वजह है कि उसके लड़ाके सीरिया की जंग में कूदने के लिए चले जा रहे हैं। शनिवार को सऊदी अरब के विदेश मंत्री ने कहा है कि जब तक सीरिया के राष्ट्रपति असद को हटाया नहीं जाता तब तक वह सीरिया के विद्रोहियों की मदद करता रहेगा। गार्डियन अखबार में खबर छपी है कि सऊदी अरब बागियों को ट्रेनिंग देने में लाखों डॉलर खर्च करेगा। फ्री सीरियन आर्मी बागी गुट है, जिसे अमेरिका ने खूब हथियार दिए। इसी का एक बड़ा हिस्सा इस्लामिक स्टेट में जा मिला है। रूस सीरिया के राष्ट्रपति असद का समर्थन करता है। अब सीरिया में कौन बागी है और कौन आतंकवादी इसी पर बहस होती रह जाएगी और दूसरा हमला हो जाएगा।
पेरिस के हमले के कई घंटे हो गए हैं। कई जगहों पर छापे पड़े हैं। फ्रांस में रॉकेट लॉन्चर और कलाशनिकोव की बरामदगी हुई है। बेल्जियम में कई लोगों को गिरफ्तार किया गया है। ISIS से लड़ने के नाम पर चंद हमले क्या आपको आश्वस्त करते हैं कि पश्चिमी देश आतंकवाद से लड़ने के लिए वाकई गंभीर हैं। आतंकवाद खतरा है या हथियारों के सौदागरों के लिए बिजनेस।