अब रियल एस्‍टेट बिल पर खींचतान

नई दिल्‍ली:

आपके सपनों वाले घर को खतरा सिर्फ भूकंप से नहीं बल्कि भूकंप पूर्व उन परिस्थितियों से भी है जब कोई प्रोजेक्ट समय पर पूरा नहीं होता है और आप घर के लिए इंतज़ार करते रह जाते हैं। जिस प्रोजेक्ट के लिए पैसा लगाया, बाद में पता चला कि उसके कागज़पत्र सही नहीं हैं। बड़े-बड़े डेवलपरों के यहां नारे लगाते-लगाते, न्यूज़ रूम में ईमेल करते-करते कई साल निकल जाते हैं।

दो साल से लेकर पांच साल तक लोग इंतज़ार करते रहते हैं, कई प्रोजेक्ट में तो 95 फीसदी पैसा तक दे देते हैं लेकिन प्रोजेक्ट पूरा होने का नाम नहीं लेता। बिल्डर डेवलपरों की अकूत ताकत इतनी होती है कि कोई राजनीतिक दल ऐसे खरीदारों की मदद के लिए जाता भी नहीं है। इसलिए 7 अप्रैल को जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने Real Estate (Regulation and Development) Bill को बदलाव के साथ मंज़ूरी दी तो कुछ दलों की तरफ से हल्की फुल्की सुगबुगाहट तो हुई मगर किसी को पता नहीं चला कि इस मुद्दे में इतनी राजनीतिक संभावना है।

इसलिए जब राहुल गांधी ने एनसीआर के होम बायर एसोसिएशन से मिलने का फैसला किया तो अखबारों ने लिखा कि किसानों के बाद अब वे मध्यमवर्ग के मुद्दे अपना रहे हैं। राहुल गांधी ने कांग्रेस मुख्यालय में अपने घरों के लिए गुमनाम संघर्ष कर रहे लोगों को बुलाया और उनसे समस्या पूछी। वैसे कई अखबार इनके मसलों को कवर करते रहे हैं।

आप जानते ही हैं कि यूपीए ने 2007 से रियल एस्‍टेट बिल पर काम शुरू किया तब जाकर 2013 में संसद में ला सकी और उसके बाद भी पास न हो सका। उससे पहले महाराष्ट्र में 2012 में महाराष्ट्र हाउसिंग एक्ट आ चुका था। 2013 में केंद्र सरकार भी अपना एक बिल लेकर आई मगर यह अभी तक कानून नहीं बन सका है। मंगलवार को राज्यसभा में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और लेफ्ट की मांग के बाद केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने कहा कि वे सभी दलों से बात कर रहे हैं। वेंकैया नायडू ने कहा कि 13 मई तक सदन फैसला कर ले कि इसे सलेक्ट कमेटी में भेजना है या नहीं।

कांग्रेस का कहना है कि एनडीए सरकार ने उनके 2013 के बनाए बिल को कमज़ोर कर दिया है। अगर यह कानून बन गया तो बिल्डरों की तूती बोलेगी और ख़रीदारों का हक मारा जाएगा। 2013 के बिल में कहा गया था, बिल्डर अपने पहले प्रोजेक्ट को अधर में छोड़कर दूसरे प्रोजेक्ट में न लगा सकें इसके लिए बुकिंग का 70 प्रतिशत पैसा उसी प्रोजेक्ट में लगाना होगा। 2015 के बिल में 70 प्रतिशत की मात्रा को घटाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया। डेवलपर का कहना है कि प्रोजेक्ट में देरी मंज़ूरी न मिलने के कारण होती है जबकि खरीदार देरी का मुख्य कारण एक प्रोजेक्ट का पैसा दूसरे में लगाना मानते हैं।

जो भी है बिना मंज़ूरी के प्रोजेक्ट लॉन्‍च करने की दलील भी कुछ जमती नहीं है। कई प्रोजेक्ट इस कारण भी अधर में लटक जाते हैं। मौजूदा सरकार ने 2013 के बिल में एक बात यह जोड़ी कि अगर मंज़ूर प्लान में कोई बदली करनी है तो बिल्डर को दो तिहाई ख़रीदारों से इजाज़त लेनी होगी। साथ ही रिहायशी के साथ-साथ कमर्शियल रीयल एस्टेट को भी शामिल किया गया जो 2013 के कानून में नहीं था।

इस बिल में प्रावधान है कि केंद्र और राज्य स्तर पर एक नियामक अथॉरिटी होगी जिसका संक्षिप्त नाम रेरा है। उसके ऊपर अपील के लिए भी एक संस्था बनेगी। रेरा के दफ्तर में सभी प्रोजेक्ट का पंजीकरण करवाना होगा। यह पंजीकरण तमाम मंज़ूरियों के बाद ही किया जा सकेगा तभी कोई बिल्डर फ्लैट की बुकिंग चालू कर सकते हैं। इसके तहत बिल्डर को सारी जानकारी सार्वजनिक करनी होगी। प्रोजेक्ट का प्लान क्या है, कब काम शुरू होगा, ज़मीन की कानूनी स्थिति क्या है, ठेकेदार से लेकर स्ट्रक्चरल इंजीनियर कौन है, इस तरह की तमाम सूचनाएं आपके लिए रेगुलेटर की वेबसाइट पर उपलब्ध करानी होगी।

अगर कोई भी सूचना गलत दी गई तो जुर्माने के साथ-साथ बिल्डर को तीन साल की जेल हो जाएगी। किसी प्रोजेक्ट का फ्लैट बेचने या खरीदने वाले ब्रोकर का भी रेगुलेटर के यहां पंजीकरण होगा। नियामक के प्रमुख को ज़िला जज का दर्जा हासिल होगा और 60 दिनों के भीतर नियामक को फैसला देना होगा। राज्यों को एक साल के भीतर अपने नियम बना लेने होंगे।

अगर यह बिल कानून बन गया तो वैसे प्रोजेक्ट भी इसके दायरे में आ जाएंगे जो इसके पास होने के वक्त पूरे नहीं हुए होंगे। नियामक किसी प्रोजेक्ट को रद्द भी कर सकता है। अगर समय पर फ्लैट नहीं मिला तो खरीदार ब्याज के साथ अपना पैसा ले सकता है और यह ब्याज 15 फीसदी से ज्यादा नहीं होगा। अब यह साफ नहीं है कि अगर किसी ने सवाल किया तो कहीं प्रोजेक्ट वाला ही पैसा पकड़ा कर उसे बाहर न कर दे। दावा किया गया है कि यह बिल काले धन के आदान प्रदान की गुंज़ाइश को कम करता है पर यह मेरी समझ में नहीं आ सका कि कैसे कम होगा।

मुंबई की कैंपा कोला सोसायटी का मामला तो आपको याद ही होगा। बिल्डर ने अवैध मंज़िलें बनाकर बेच दी। जिन लोगों ने अपनी पूरी कमाई लगा दी वे किसी अदालत में जीत नहीं सके। इसी तरह के मामले नोएडा ग्रेटर नोएडा में खूब हुए हैं। प्राधिकरण के अधिकारियों से सांठ गांठ कर बिल्डरों ने जैसे तैसे प्रोजेक्ट की मंज़ूरी लेकर लॉन्‍च कर दिया। यादव सिंह नाम के ऐसे ही अधिकारी के खिलाफ गंभीर जांच चल रही है।

इस तरह आए दिन ख़रीदार ठगा जाता है। उसके साथ धोखा होता है। एक समस्या और है। फ्लैट मिल जाने के बाद सोसायटी के भीतर किसका नियंत्रण हो इसे लेकर भी लंबी लड़ाई चलती रहती है। आए दिन डेवलपर और आरडब्लूए के बीच मारपीट तक की खबरें आती रहती हैं, क्या इस समस्या का समाधान भी नए कानून में है यह भी एक सवाल है। महाराष्ट्र में भी केंद्र से पहले जो कानून बना था उस पर मैंने इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में एक लेख पढ़ा जिसमें बताया गया है कि नए कानून ने उपभोक्ता के अधिकारों को और कमज़ोर ही किया है।

पहले पार्किंग अपार्टमेंट का हिस्सा होता था, 2012 के कानून में इसे अलग कर दिया गया। आपको पार्किंग के अलग पैसे देने होते हैं। यूपीए के बनाए ड्राफ्ट में कवर्ड पार्किंग को अपार्टमेंट का हिस्सा माना गया है लेकिन खुली पार्किंग को कॉमन एरिया का हिस्सा। तो इस तरह से तमाम बारीकियों को समझना होगा।

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कुछ का कहना है कि पारदर्शिता के बावजूद रियल एस्टेट में काले धन के लेन देन पर इससे रोक नहीं लगती है। फिर भी क्या यह बिल उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करता है?