जातिगत जनगणना का सवाल : आंकड़े सार्वजनिक क्‍यों ना किए जाएं?

जातिगत जनगणना का सवाल : आंकड़े सार्वजनिक क्‍यों ना किए जाएं?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

नई दिल्‍ली:

हमारी राजनीति कब राष्ट्रवादी हो जाती है और कब जातिवादी इसका संबंध इस बात से है कि किस राज्य में चुनाव होने वाले हैं। डेढ़ साल पहले लोकसभा चुनावों में वन इंडिया अभियान के नायक को अब क्यों देश का पहला ओबीसी प्रधानमंत्री बताया जा रहा है। पटना में सम्राट अशोक की जाति खोजने के प्रयासों के बाद अगर आप पिछले एक साल में बिहार में हुए जातिगत स्वाभामिमान सम्मेलनों का रिकार्ड निकालेंगे तो पता चलेगा कि दल भले अलग अलग हों जाति को लेकर सबका नज़रिया एक ही है। आखिर एक भारत श्रेष्ठ भारत के नायक को इन दिनों ओबीसी प्रधानमंत्री क्यों बताया जा रहा है।

बताने वाले कोई और नहीं, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह हैं। पिछड़ा मोर्चा की बैठक में उन्होंने कहा कि बीजेपी ने देश में सबसे अधिक ओबीसी मुख्यमंत्री दिये हैं। देश का पहला ओबीसी प्रधानमंत्री भी बीजेपी ने ही दिया है। अगर दलित मोर्चा की भी बैठक होती तो यह भी बताने का मौका मिलता कि कितने दलित मुख्यमंत्री बनाए हैं लेकिन खैर उनके इस बयान पर गूगल से पहले लालू यादव ने बता दिया कि 1996 में जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते उन्होंने ही देवेगौड़ा के नाम का ऐलान किया था। वोक्कालिगा जाति के देवेगौड़ा ही पहले ओबीसी प्रधानमंत्री हैं। देवेगौड़ा भी बोल रहे हैं कि मैं हूं पहला ओबीसी प्रधानमंत्री। जब तक अमित शाह देवेगौड़ा और लालू यादव के बयान का खंडन नहीं कर देते तब तक बीजेपी अध्यक्ष के बयान के कारण पहली बार प्रधानमंत्री दूसरे नंबर पर नज़र आ रहे हैं। यह भी कहा जाने लगा है कि प्रधानमंत्री की भी जाति कुछ साल पहले ओबीसी की सूची में शामिल की गई और लोकसभा चुनावों में उन्होंने पहली बार अपने भाषणों में अपनी जाति का अलग-अलग तरीके से इस्तमाल किया।

महाराष्ट्र हरियाणा और दिल्ली में चुनाव हो गए लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद ओबीसी नहीं बताये गए, बिहार के चुनाव में ऐसा क्या है कि बिना ओबीसी हुए काम नहीं चल रहा है। अमित शाह ने कहा कि सिर्फ बीजेपी ही पिछड़ों का कल्याण कर सकती है, पिछड़ी जाति के कल्याण के लिए बने राजनीतिक दल अपने ही समुदाय तक सिमट कर रह गए हैं। लोकसभा चुनावों में शाह और मोदी की जोड़ी ने यूपी बिहार के ओबीसी नेताओं को न सिर्फ शिकस्त दी बल्कि दलितों की सबसे बड़ी नेता मायावती को ज़ीरो पर पहुंचा दिया लेकिन उसी जोड़ी पर यह आरोप क्यों लग रहा है कि जाति आधारित जनगणना क्यों सार्वजनिक नहीं हो रही है। इस पर एक दिलचस्प विश्लेषण इकोनोमिक टाइम्स में पढ़ा।

राजेश रामचंद्रन ने लिखा है कि जब अफसरों ने देखा कि इस गिनती में अपर कास्ट ख़तरनाक रूप से संख्या में कम हैं तो उन्हें लगा कि अब तो और भी प्रमाणिकता के साथ यह सवाल उठेगा कि जिसकी संख्या सबसे कम है सरकार में उसकी भागीदारी सबसे अधिक क्यों हैं। राजेश का अनुमान है कि इसी आशंका से रिपोर्ट दबाई जा रही है। राजेश ने भी अपने लेख में इस जानकारी पर पूरी तरह से दावा नहीं किया है लेकिन उन्होंने एक गणित बताया है जिससे आप इस खेल को समझ सकते हैं।

मोदी कैबिनेट में एकमात्र असरदार बैकवर्ड कास्ट मंत्री अगर कोई है तो ख़ुद मोदी ही हैं। 27 सदस्यों की उनकी कैबिनेट में वर्चस्व अपर कास्ट का ही है। 8 कैबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं और चार क्षत्रिय हैं1 जब सारा खेल इसी पर है तो खेल के नियम पारदर्शी तरीके से क्यों न तय किये जाएं। क्या बीजेपी इसलिए डर रही है कि इस रिपोर्ट के बाद सरकार पर शिक्षा और नौकरियों में ओबीसी आरक्षण कोटा बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा जबकि बीजेपी और संघ परिवार के समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा यह उम्मीद रखता है कि ओबीसी प्रधानमंत्री आरक्षण समाप्त कर देंगे। वैसे बीजेपी हमेशा ही आरक्षण समर्थक रही है।

आखिर क्यों लालू यादव और नीतीश कुमार जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग पर खूब ज़ोर दे रहे हैं। लालू यादव ने पटना में राजभवन तक मार्च किया और कहा कि प्रधानमंत्री मोदी बैकवर्ड कास्ट के दुश्मन हैं। अगर वे हितैषी हैं तो जाति जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करके दिखायें। नीतीश कुमार ने दिल्ली में कहा जब सर्वेक्षण कराया गया, गणना कराई गई तो उसकी रिपोर्ट आनी चाहिए और लोगों को संख्या के बारे में मालूम होना चाहिए और समाज के जो विभिन्न समूह हैं, उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में, सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलनी चाहिए। बीजेपी की तरफ से बैटिंग करते हुए रामविलास पासवान ने कहा कि कल पब्लिश हो जाएगा तो कल ही क्या हो जाएगा। हम अपने समय से करेंगे, वैसे जाति की जनगणना की एक शर्त यह भी थी कि इसे पब्लिश नहीं किया जाएगा।

क्या पासवान सही बोल रहे हैं। मेरी जानकारी में ऐसी कोई शर्त नहीं है कि जाति की जनगणना सार्वजनिक नहीं की जाएगी। 2010 में जाति आधारित जनगणना को लेकर काफी बहस हुई थी। 1931 के बाद भले ही जाति की गिनती नहीं हुई लेकिन कहा गया कि 1980 के मंडल कमीशन से मोटा मोटी मालूम चल गया था कि देश में 54 प्रतिशत ओबीसी हैं, 30 प्रतिशत के आस पास अनुसूचित जाति और जनजाति और 16 से 18 प्रतिशत अपर कास्ट। अगर अपर कास्ट का अनुपात दस प्रतिशत से भी कम हुआ तो प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर भारतीय राजनीति में फिर से भूचाल आ सकता है।

उस समय की रिपोर्ट के अनुसार अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जाति आधारित जनगणना के हक में थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके पक्ष में नहीं था। उसी तरह से कांग्रेस में चिदंबरम, आनंद शर्मा विरोध में थे तो वीरप्पा मोइली व्यालार रवि पक्ष में। लेफ्ट, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और खासकर शरद यादव ने काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी।

3 जुलाई को जब भारत सरकार ने सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना रिपोर्ट 2011 जारी की तब ग्रामीण भारत का ऐसा चेहरा दिखा था जिससे विकास के तमाम दावे अपने आप ध्वस्त हो रहे थे। पता चला कि भारत आज भी एक ग्रामीण राष्ट्र है। इसके साढ़े चौबीस करोड़ परिवारों में से करीब अठारह करोड़ परिवार गांवों में रहते हैं। लेकिन जब इस सर्वे में अनुसूचित जाति जनजाति की संख्या बता दी तो बाकियों की क्यों नहीं बताई गई।

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जब बीजेपी प्रधानमंत्री की जाति बता सकती है तो जाति की गिनती क्यों नहीं।