प्राइम टाइम इंट्रो : जम्मू-कश्मीर की कुर्सी का किस्सा

प्राइम टाइम इंट्रो : जम्मू-कश्मीर की कुर्सी का किस्सा

पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती (फाइल फोटो)

नई दिल्‍ली:

ख़ाली कुर्सी है और दावेदारों का पता नहीं। राजनीति में ऐसा कम होता है मगर होता है। जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री बनने के लिए न तो कोई किसी के घर जा रहा है। न कोई किसी को तोड़ रहा है। न कोई हितों के हित में अपने आप फूट रहा है। 6 साल के लिए जम्मू कश्मीर में सरकार चुनी जाती है। अभी तो काफी वक्त है फिर भी कोई बेचैन नहीं है। पीडीपी उत्साहित नहीं है। बीजेपी भी पीडीपी को प्रोत्साहित नहीं कर रही है। 25 फरवरी 2015 को जब बीजेपी और पीडीपी की सरकार बनी तो इसे कई मायनों में हिन्दुस्तान और कश्मीर की राजनीति में मील का पत्थर माना गया। अब उस मील के पत्थर का हाल देखिये। न मील का पता है न पत्थर का। साल भर के भीतर दोनों विपरीत दिशा में चलने लगे हैं।

पीडीपी अब उस बीजेपी से हाथ नहीं मिलाना चाहती है। उसे लग रहा है कि बीजेपी से हाथ मिलाकर जनाधार खोती जा रही है लेकिन क्या एक साल तक सत्ता में रह कर अलग होने का फैसला उस नुकसान की भरपाई इतनी आसानी से कर देगा। कश्मीर के जानकार बताएंगे कि इससे पहले किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में या सभा में महबूबा मुफ्ती या उनके दिवंगत वालिद पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसका इशारा भी किया था कि बीजेपी के साथ अलायंस कर पछता रहे हैं। लोगों को पसंद नहीं आया। बीजेपी धोखा दे रही है या गठबंधन धर्म का पालन नहीं हो रहा है। आखिर क्या वजह है कि महबूबा मुफ्ती ने अपने पिता के फैसले की निरंतरता में कुर्सी नहीं संभाली, क्या वो नए सिरे से मान्यता चाहती हैं।

सवाल बीजेपी से पूछा जा सकता है कि वो इस बार सरकार बनाने को लेकर सक्रिय क्यों नहीं है। एक साल पहले लिया गया इतना साहसिक फैसला अब लड़खड़ाता नज़र आ रहा है। क्या बीजेपी को भी कोई अफसोस है या वो इस बात को लेकर चिन्तित है कि कहीं महबूबा मुफ्ती साहब की तरह खामोश मुख्यमंत्री साबित नहीं हुईं और दावेदारी करने लगी तो क्या होगा। क्या प्रधानमंत्री या बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व मुफ्ती साहब और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी में कोई बुनियादी अंतर देख रहे हैं।

एक निशान, एक विधान और एक प्रधान सिर्फ नारा नहीं था बीजेपी के लिए। आप बीजेपी और संघ से जुड़े किसी भी साहित्य को उठा कर देखेंगे तो पता चलेगा कि यह नारा उनके वजूद का हिस्सा है। फिर भी बीजेपी ने कहा था कि जनता और देश के हित में उसने अपने आग्रहों को किनारे रखकर यह गठबंधन किया गया है। 2 दिसंबर 2013 में जम्मू की रैली में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी ने कहा था कि संविधान के हिसाब से धारा 370 पर बहस चलती रहेगी लेकिन कम से कम इस पर बहस होनी चाहिए कि धारा 370 से क्या जम्मू कश्मीर को लाभ हुआ है। बीजेपी ने सरकार में आने के बाद कोई बड़ा प्रयास किया हो अभी मेरे ध्यान में नहीं आ रहा है। प्रधानमंत्री ने भी कभी इस धारा का ज़िक्र नहीं किया। न ही किसी दूसरे ज़िम्मेदार नेता ने। फिर भी अगर पीडीपी को लगता है कि बीजेपी ने ऐसा किया तो उसने पब्लिक में स्टैंड क्यों नहीं लिया। प्रधानमंत्री से कोई कमिटमेंट क्यों नहीं मांगी। पिछले साल नवंबर में जब प्रधानमंत्री राज्य के दौरे पर गए थे तब 80 हज़ार करोड़ के पैकेज की घोषणा की थी।

जम्मू कश्मीर में ये सारे मुद्दे उठ रहे थे। सामने से नहीं बल्कि अदालत के रास्तों से। राज्य बीजेपी के नेता धीरे-धीरे एक निशान एक विधान और बीफ के मसले पर बोलने लगे थे। वे अदालत जाकर सरकार को घेरने लगे थे। बीजेपी के विरोध के बाद 12 मार्च 2015 को राज्य सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर आदेश दिया कि तिरंगे के साथ राज्य का झंडा नहीं फहराया जाएगा। जिसके विरोध में कोई प्राइवेट पर्सन अदालत चला गया और फिर आदेश आ गया कि दोनों झंडे एक साथ फहराये जायेंगे। अब इस आदेश के विरोध में बीजेपी के दो प्रमुख नेता कोर्ट चले गए और 1 जनवरी 2016 को स्थगन आदेश ले आए। इसके बचाव में बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव ने कहा कि वे राज्य में आतंकवाद और अलगाववाद से लड़ते रहे हैं और अब वे इसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं। इस पर पीडीपी के नेताओं को लगा कि जम्मू कश्मीर में अफसरी करते वक्त दोनों झंडों को सलाम करते रहे होंगे अब उन्हें इनमें से एक अलगाववाद का प्रतीक लगता है। संघ के थिंक टैंक जम्मू कश्मीर स्टडी सेंटर ने आर्टिकल 35-ए को अदालत में चुनौती दे दी। इस धारा के तहत राज्य के अपने कानूनों को विशेष संरक्षण प्राप्त है। सितंबर 2015 में जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई कि राज्य में अफसरों से मिलीभगत के कारण कई जगहों पर बीफ की बिक्री हो रही है। कोर्ट ने आदेश जारी कर 150 साल पुराने कानून को सख्ती से लागू करने के लिए कहा और बीफ पर बैन को सक्रिय कर दिया। बीजेपी के राज्य प्रवक्ता ने कहा कि अगर पाबंदी को हटाने का प्रयास हुआ तो उनकी पार्टी पुरज़ोर विरोध करेगी। पीडीपी के नेता सुप्रीम कोर्ट चले गए।

तो क्या राज्य के नेताओं ने इस गठबंधन को मुश्किल में डाला। उस दूरी को केंद्र की चुप्पी ने और बढ़ाया। खुलकर भले न कही गई हों बातें, पीडीपी को अगर यह बात सही लगती है तो वो खुलकर क्यों नहीं बोलती है। अगर वो गठबंधन में कोई नई संभावना टटोल रही है तो खुलकर क्यों नहीं बोलती कि हम कुछ नई शर्तों के साथ गठबंधन चाहते हैं।

पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने रविवार को पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मुलाक़ात के बाद सोमवार को श्रीनगर में विधायकों से मुलाकात की। पीडीपी नेता नईम अख़्तर ने कहा कि बीजेपी के साथ गठबंधन का फ़ैसला लोकप्रिय फ़ैसला नहीं था लेकिन जनता के हितों को देखते हुए पार्टी ने ये फ़ैसला लिया। इसके बावजूद बीजेपी के साथ ट्रस्ट डेफिसिट बना हुआ है, यानी भरोसे का संकट कायम है और जब तक साझा एजेंडा पर बीजेपी की ओर से भरोसा नहीं मिलता पीडीपी सरकार नहीं बनाएगी। पीडीपी चुनाव के लिए भी तैयार है। पार्टी ने कोई अंतिम फैसला तो नहीं किया है मगर महबूबा मुफ्ती को राज्यपाल से बात करने के लिए अधिकृत कर दिया है। शाम को भी पीडीपी की एक बैठक हुई है।

उधर जम्मू में बीजेपी के कोर ग्रुप के नेताओं की बैठक हुई। फैसला हुआ कि तीन नेता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से मिलने दिल्ली आएंगे। बीजेपी के नेता पीडीपी के दबाव में नहीं आना चाहते। उनका मानना है कि पार्टी महत्वपूर्ण मुद्दों पर पीडीपी को लिखित आश्वासन नहीं देगी। यह भी कहा गया कि दस महीनों में न्यूनतम साझा कार्यक्रम से कोई भटकाव नहीं हुआ है।

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मंगलवार को दोनों पक्षों को राज्यपाल ने बुलाया है। क्या इस बार यह गठबंधन हो सकेगा या राज्य में चुनाव तय सा लगने लगा है। महबूबा क्या चुनाव का जोखिम लेना चाहेंगी। फिर से वही नतीजे आ गए तो।