प्राइम टाइम इंट्रो : मरीज़ के परिजन क्यों आपा खो रहे हैं?

सवाल ख़ुद से पूछना चाहिए कि क्या हम हर हाल में हिंसा की संस्कृति के ख़िलाफ़ हैं. अगर हैं तो क्या सभी प्रकार की हिंसा के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं. आख़िर क्यों है कि पुलिस और अदालत के रहते हुए कई संगठन गले में का पट्टा डालकर खाने से लेकर पहनावे की तलाशी लेने लगते हैं. क्यों लोग इलाज में चूक होने पर सीधा डॉक्टरों को ही मारने लगते हैं. कानून अपने हाथ में लेने लगते हैं. क्या उन्हें पुलिस की जांच में भरोसा नहीं है. भीड़ बनाकर पुलिस पर दबाव डालने का विरोध और भीड़ बनकर अस्तपालों पर हमला करने का विरोध, दोनों होना चाहिए. वर्ना एक जगह डॉक्टर डरेंगे और दूसरी जगह लड़कियां. हालत ये है कि सड़क पर चलती कार में ख़रोंच आने पर चालक दूसरी कार के चालक को मार मार कर अधमरा कर देता है. ये गुस्सा कहां से आ रहा है. बता रहा है कि हम बीमार हैं. सामाजिक रूप से भी राजनीतिक रूप से भी.

जयपुर के एक रेस्त्रां को कुछ लोगों की भीड़ ने घेर लिया जबकि वहां पुलिस थी. शक था कि वहां गौ मांस बिक रहा है जबकि रेस्त्रां मालिक का कहना था कि नहीं बिक रहा है. जबकि एक साल पहले प्रधानमंत्री ने दिल्ली ने कहा था कि गौ रक्षा के नाम पर कुछ लोग अपनी दुकानें खोल कर बैठ गए हैं. मुझे इतना गुस्सा आता है. मैंने देखा है कि कुछ लोग जो पूरी रात एंटी सोशल एक्टिविटी करते हैं लेकिन दिन में गौ रक्षक का चोला पहन लेते हैं. मैं राज्य सरकारों को अनुरोध करता हूं ऐसे जो स्वंयसेवी हैं जो गौ रक्षक मानते हैं उनका डोसियर तैयार करो, सत्तर अस्सी फीसदी ऐसे गौरखधंधा करते हुए निकलेंगे जिन्हें समाज स्वीकार नहीं करता है. हमें नहीं मालूम जयपुर के रेस्त्रा में जिन लोगों ने हमला किया वो गौ रक्षा के नाम पर दुकान चलाने वाले नकली लोग हैं या असली गौ रक्षक हैं. राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री की बात का पालन करते हुए ऐसे संगठन का कोई डोसियर यानी फाइल तैयार की है या नहीं. प्रधानमंत्री को भी पूछना चाहिए कि 7 अगस्त 2016 के उनके बयान के बाद राज्य सरकारों ने सत्तर अस्सी फीसदी नकली गौ रक्षकों की कोई फाइल बनाई है या नहीं.

भीड़ की हिंसा को जब मान्यता देने लगते हैं तो अकेला आदमी भी खुद को भीड़ समझने लगता है. तभी तो शिवसेना के एक सांसद साहब एयर इंडिया के कर्मचारी को चप्पलों से पीटने लगते हैं. सांसद साहब भरे जहाज़ में कर्मचारी को मारने लगते हैं. पूरी दुनिया के सामने कह रहे हैं कि उन्होंने मारा है. उनके कारण सही भी होंगे तो क्या उन्हें छूट है कि वे किसी को चप्पलों से पीट सकते हैं. सांसद साहब को कोई पछतावा नहीं है. पत्रकारों से कहते हैं कि तुम भी फिल्म देखो. मैं भी फिल्म देखने चला गया था. 'बदरीनाथ की दुल्हनिया' देख रहे थे. इन सांसद साहब को इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें पता है कि उनके पास भीड़ है. जो पार्टी के नाम पर, धर्म के नाम पर या संस्कृति के नाम पर जमा हो जाएगी और पुलिस वैसे ही देखते रहेगी जैसे वो देखते रहती है.

क्या हम सामूहिक रूप से हिंसा और भीड़ की संस्कृति के ख़िलाफ हैं? क्या हम हिंसा से पहले कारण को समझने की प्रक्रिया में विश्वास रखते हैं? महाराष्ट्र में पिछले दो साल में 53 डाक्टरों पर हमला हुआ है, एक मामले में भी सज़ा नहीं हुई है. महाराष्ट्र ही नहीं, डाक्टरों के साथ हिंसा तो कई राज्यों में हो रही है. मगर जांच और सज़ा का आलम यही है.

धुले की घटना ने तो डाक्टरों को हिला दिया है. ऐसी स्थिति में कोई डाक्टर कैसे काम करेगा. क्यों इसके विरोध में 45000 रेज़िडेंट डाक्टर सामूहिक अवकाश पर जाने के लिए मजबूर हुए. अवकाश पर जाने के बाद डाक्टर तो सस्पेंड कर दिये जाते हैं, कोर्ट से फटकार मिल जाती है, लेकिन क्या हम जानते हैं कि एक रेज़िडेंट डाक्टर किस दबाव में काम करता है. कितने घंटे काम करता है. क्यों रेज़िडेंट डाक्टर ही हिंसा के शिकार हो रहे हैं. क्या उनके और अस्पताल पर मरीज़ों के दबाव को कम करने या बेहतर करने का कोई उपाय आपने सुना और देखा है. हुआ है तो उसके क्या नतीजे रहे हैं क्या कोई इस बहस में ये सब तथ्य सामने ला रहा है. क्या रेज़िडेंट डाक्टर ही सिस्टम के लिए ज़िम्मेदार है या किसी की ग़लती की सज़ा वो भुगत रहा है. दरअसल किसी के पास इतना धीरज नहीं बचा है समझने सुनने का. बस मारो. मार कर गुस्सा निकालो. भारत के कई अस्पतालों के डाक्टरों ने महाराष्ट्र के डाक्टरों से अपनी सहमति जताई है. दिल्ली में भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं. इसलिए एम्स के डाक्टरों ने हेल्मेट पहनकर अपना विरोध जताया.

डाक्टरों को हड़ताल या सामूहिक अवकाश पर नहीं जाना चाहिए. अगर इस पर सहमति है लेकिन उनकी सुरक्षा के इंतज़ाम क्यों नहीं है. इसका समाधान सीसीटीवी या सुरक्षा ही है या कुछ और है. क्यों मरीज़ बेसब्र हो रहे हैं. क्या महंगे इलाज के कारण, क्या इलाज की तत्काल सुविधा नहीं होने के कारण. हम मरीज़ों की तरफ से यह सवाल क्यों नहीं पूछ रहे हैं.

महाराष्ट्र में 2010 में Doctors' Protection Act, 2010 बना था. इसके तहत डाक्टरों की हिंसा को ग़ैर ज़मानती अपराध बनाया गया था. तीन साल की जेल और 50,000 जुर्माना तय हुआ था. हिंसा करने वालों को भी अस्पताल के उपकरणों के नुकसान की भरपाई करनी होगी. इस एक्ट के बाद भी दो साल में 53 हिंसा की घटनाओं में एक में भी सज़ा नहीं हुई है. डाक्टरों ने प्रधानमंत्री कार्यालय में भी शिकायत की है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से भी मिले हैं. डाक्टरों का कहना है कि एक दो कदम से व्यवस्था में सुधार नहीं हो रहा है. डाक्टरों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है. मुख्यमंत्री इस बहस में जनता के पैसे और टैक्स का मसला ले आ रहे हैं लेकिन सवाल तो कुछ और है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्ययन के अनुसार कार्यस्थल पर 75 फीसदी डाक्टरों ने हिंसा का सामना किया है. पिछले पांच सालों में डाक्टरों पर हमला बढ़ता ही जा रहा है.

सरकार, अदालत और मरीज़ों के परिजनों की प्रतिक्रिया देखकर यही लगता है कि पब्लिक में डाक्टरों के प्रति किस प्रकार का विश्वास कायम है. इस बहस में यह सवाल भी ज़रूरी है कि कहीं मरीज़ और उसके परिजन महंगी इलाज और अस्पतालों में भीड़ के लिए डाक्टर को तो दोषी नहीं मान रहे हैं. क्यों डाक्टर अपनी एकता का प्रदर्शन सिर्फ सुरक्षा के सवाल को लेकर करते हैं. दूसरे सवालों को लेकर वे क्यों नहीं आगे आते हैं. क्यों आईसीयू को लेकर हंगामा होता है. क्यों नहीं आईसीयू की संख्या बढ़ाई जा सकती है. क्या आम जनता जानती है कि आईसीयू या इमरजेंसी में बिस्तर किस नियम के तहत मिलता है, उस नियम में कोई बदलाव नहीं हो सकता है, क्या डाक्टर के विवेक पर होता है कि किस मरीज़ को सबसे पहले आपरेशन या आईसीयू की ज़रूरत है, इसके बाद भी आईसीयू खाली न हो तो उसे क्या करना चाहिए, क्या ये सब तय है, क्या अस्पताल जनता को यह बात बताता है. बहुत रोल सूचनाओं की कमी का भी हो सकता है. ये सारे सवाल लेक्सिकन नाम की ऑनलाइन पत्रिका पढ़ते हुए सामने आए, जिसे डाक्टरी पढ़ने वाले छात्र चलाते हैं. उन्होंने ही मुझे एक मेल भेजा था.


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