क्या अब राजस्थान में सरकार की इजाज़त से ही होगी एफआइआर दर्ज, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

राजस्थान सरकार ने 23 अक्तूबर के रोज़ विधानसभा में जो विधेयक पेश किया है, उसे लेकर इस तरह के सवाल उभरने लगे हैं.

क्या अब राजस्थान में सरकार की इजाज़त से ही होगी एफआइआर दर्ज, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

क्या राजस्थान में या भारत में कहीं भी सिर्फ जज, मजिस्ट्रेट, अफसर, सासंद और विधायकों के ख़िलाफ़ झूठी एफआईआर होती है? अगर इन प्रभावशाली लोगों के खिलाफ झूठी एफआईआर होती है तो फिर आम लोगों के खिलाफ कितनी एफआईआर होती होंगी? ऐसे में किसी सरकार को क्या करना चाहिए? पहले आम लोगों की रक्षा करनी चाहिए या फिर अफसरों की? राजस्थान सरकार ने 23 अक्तूबर के रोज़ विधानसभा में जो विधेयक पेश किया है, उसे लेकर इस तरह के सवाल उभरने लगे हैं. यह विधेयक अगर कानून बना तो कोई मामला उजागर होने पर तब तक रिपोर्ट नहीं हो सकेगी जब तक सरकार एफआईआर दर्ज करने की अनुमति नहीं देगी. अगर वह 6 महीने में अनुमति नहीं देगी तो कारण भी नहीं बताएगी कि अनुमति क्यों नहीं दी गई. इस दौरान देरी का लाभ किसे मिलेगा ये आप समझ सकते हैं.

आप चाहें तो यह भी समझ सकते हैं कि 180 दिन तक सरकार एफआईआर की अनुमति नहीं देगी. तो खबर लेकर घूम रहे उस पत्रकार के साथ क्या-क्या हो सकता है. 6 महीने के दौरान सबूतों को गायब कर दिया जाएगा और खबर लिखने वाले का इंतज़ाम हो जाएगा. क्या आप ये चाहते हैं?

सोमवार को जब यह विधेयक पेश हुआ तो सदन के बाहर कांग्रेस के नेता मुंह पर काली पट्टी बांध कर प्रदर्शन कर रहे थे. कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने कहा है कि उनके नेताओं ने भी सदन के भीतर विरोध किया है. पायलट का कहना है कि ये काला कानून है और सरकार तानाशाही करना चाहती है. कांग्रेस भी हलचल में तभी आई जब मीडिया के एक हिस्से में प्रस्तावित विधेयक को लेकर सवाल उठने लगे. पिछले महीने जब राजस्थान सरकार अध्यादेश ले आई तो विपक्ष 7 सितंबर से लेकर 20 अक्तूबर तक कहां था. बीजेपी के भवानी सिंह राजावत, माणकचंद सुराणा और घनश्याम तिवाड़ी ने इसके प्रस्तावों का विरोध किया है. घनश्याम तिवाड़ी तो सदन से ही वाकआउट कर गए. घनश्याम तिवाड़ी ने सरकार के दावे को चुनौती दी है कि यह संशोधन ईमानदार अफसरों को कवच पहनाने के लिए लाया जा रहा है. तिवाड़ी ने कहा है कि क्या सरकार के पास कोई सूची है कि कौन से अधिकारी ईमानदार हैं और कौन से नहीं हैं. विधेयक पेश करते हुए गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया ने कहा है कि ज़रूरत पड़ी तो वे संशोधन के लिए तैयार हैं. 

18 दिसंबर, 2013 को लोकपाल कानून पास हुआ था. 24 अक्तूबर, 2017 तक लोकपाल नियुक्त ही नहीं हुआ है. वर्ना किसी अधिकारी या जज के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत लेकर लोकपाल के पास जाने की सुविधा होती. चालाकी से लोकपाल के मसले को गायब कर दिया गया है. अब तो करप्शन के मामले में एफआईआर के लिए राजस्थान सरकार अनुमति का अधिकार अपने पास रखना चाहती है. यह विधेयक अगर कानून बना तो राजस्थान में लोकायुक्त के क्या अधिकार रह जाएंगे, क्या इस कानून के ज़रिए लोकायुक्त को भी बेअसर किया जा रहा है? यही नहीं जब तक सरकार अनुमति नहीं देगी, कोर्ट भी एफआईआर के आदेश नहीं दे सकती है. क्या सरकार को कोर्ट पर भरोसा नहीं रहा? आरटीआई से मिलने वाली सूचना का क्या मतलब रह जाएगा, पहले आप उसी सरकार से भ्रष्टाचार की सूचना हासिल कीजिए, फिर आप उसी सरकार के पास जाइये कि फलां अधिकारी के खिलाफ एफआईआर की अनुमति मिल सकती है. यह भी तो हो सकता है कि सरकार विपक्ष के मामले में मुकदमा दायर करने की अनुमति देगी, अपने विधायकों के मामले में अनुमति ही नहीं देगी. 

राजस्थान सरकार ने 21 अक्तूबर को प्रेस रीलिज जारी कर सफाई दी है. राज्य सरकार ने अपनी प्रेस रिलीज में कहा है - क्योंकि धारा 156 (3) में अदालत के माध्यम से पुलिस थानों में अधिकतर छवि ख़राब करने, नीचा दिखाने और व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण किसी भी  प्रतिष्ठित और बड़े से बड़े लोकसेवक के खिलाफ मुकदमें दर्ज करवा दिए जाते हैं और मीडिया में उनके खिलाफ खबर छप जाती है. इससे लोकसेवक की छवि तो धूमिल हो ही जाती है और उसे मानसिक संताप तथा झूठी बदनामी का सामाना भी करना पड़ता है. बाद में ऐसे अधिकांश प्रकरण झूठे पाए जाते हैं.

उदाहरण के तौर पर 2013 से 2017 के बीच जितने भी मुकदमे 156(3) में दर्ज हुए हैं उनमें से करीब 73 प्रतिशत मुकदमों में पुलिस ने एफआर ( फाइनल रिपोर्ट) लगाई. यानी इस अवधि में करीब 73 फीसदी लोगों को झूठी बदनामी का सामना करना पड़ा. उन्हें दोषी न होते हुए भी न केवल मानसिक संताप झेलना पड़ा बल्कि न्यायालय और कार्यपालिका का समय भी जाया हुआ. 

 क्या जिन 73 प्रतिशत लोगों को झूठी बदनामी का सामना करना पड़ा, उनमें सिर्फ विधायक, सांसद, अफसर, मजिस्ट्रेट और जज ही थे? सरकार को यह भी बताना चाहिए था कि इस 73 फीसदी में कितने आम लोग हैं. सरकार के पास यह आंकड़ा कहां से आया, इसकी कोई जानकारी नहीं दी गई है. सरकार के पास एफआईआर से पहले जांच कराने की कौन सी एजेंसी होगी, इसकी भी कोई सूचना नहीं है. फिर पुलिस के होने का क्या मतलब रह जाता है. 

क्या जजों, मजिस्ट्रेट, अफसरों और सांसदों के लिए अलग पुलिस बनने जा रही है, उनके लिए अलग से जांच एजेंसी होगी? मत भूलिए कि सरकार की एजेंसियां भी नागरिकों के खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज करा देती हैं, आतंक के मामले में 20-20 साल नौजवान फर्जी मुकदमों में फंसा कर जेल में रखे गए हैं. इस विधेयक में इस बात का जिक्र क्यों नहीं है. सरकार ने झूठे मुकदमे दायर कराने वाले अफसरों के खिलाफ दो साल की जेल का प्रावधान क्यों नहीं रखा है. झूठे मुकदमे क्या पार्षद, मुखिया, जिला परिषद के सदस्यों के खिलाफ नहीं होते हैं, उनको क्यों छोड़ दिया है? 

राष्ट्रीय अपराध शोध शाखा ब्यूरो के 2015 के आंकड़े के मुताबिक, 2015 में आईपीसी के तहत दर्ज 40 लाख, 10 हज़ार, 195 मामले दर्ज किए गए. इनमें से 1 लाख, 13 हज़ार, 388 मामले झूठे पाए गए. कुल एफआईआर का 3 प्रतिशत भी नहीं है. राजस्थान सरकार को 73 फीसदी कहां से आंकड़ा मिला, क्या राजस्थान में झूठी एफआईआर ही दर्ज होती हैं. 
वैसे राजस्थान सरकार की प्रेस रिलीज़ में बहुत चालाकी से लिखा गया है. कहीं भी साफ-साफ नहीं लिखा है कि 73 फीसदी झूठी एफआईआर दर्ज हुई हैं. एक बार और ग्राफिक्स पर निगाह डालते हैं.

अगर आप सरकार की बातों को घ्यान से न देखें तो कब सड़क के बीच में ब्रेकर आ जाएगा पता ही नहीं चलेगा और आपका सर कार की छत से टकरा जाएगा. प्रेस रिलीज में कहा गया है कि 2013 से 2017 के बीच जितने भी मुकदमे 156(3) में दर्ज हुए हैं. उनमें से करीब 73 प्रतिशत मुकदमों में पुलिस ने एफआर (फाइनल रिपोर्ट) लगाई. प्रेस रिलीज में यह नहीं कहा कि पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट में 73 फीसदी एफआईआर को झूठा पाया है. यह कहा है कि 73 फीसदी मामलों में अंतिम रिपोर्ट पेश कर दी. इस अवधि में करीब 73 फीसदी लोगों को झूठी बदनामी का सामना करना पड़ा. उन्हें दोषी न होते हुए भी न केवल मानसिक संताप झेलना पड़ा.

एफआईआर होने से 73 ही नहीं 100 फीसदी लोगों को मानसिक संताप झेलना पड़ता है. इस बयान से ऐसा लगता है कि 27 फीसदी ऐसे भी हैं जो एफआईआर से खुश होते हैं, उन्हें किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती है. यह विधेयक मीडिया के ख़िलाफ भी है. जब तक सरकार एफआईआर की अनुमति नहीं देगी, मीडिया अपनी रिपोर्ट में उस अधिकारी, सांसद या विधायक का नाम नहीं ले सकता है. पहचान भी बता देगा तो दो साल की जेल. प्रथम सूचना रिपोर्ट में कहीं नहीं लिखा है कि जो लिखा गया है वह सबूत है या फैसला है. इतना ही मतलब होता है कि पुलिस इस मामले में तत्काल जांच शुरू करे. एडिटर्स गिल्ड ने कहा है कि प्रत्यक्ष रूप से ये न्यायपालिका और नौकरशाही को झूठे एफ़आइआर से बचाने के लिए लाया गया.

असलीयत में ये मीडिया को तंग करने, नौकरशाहों के ग़लत कामों को छुपाने और संविधान द्वारा दी गई प्रेस की आज़ादी पर लगाम लगाने का घातक हथियार है. एडिटर्स गिल्ड चाहता है कि राजस्थान सरकार तुरंत अध्यादेश वापस ले और इसे क़ानून बनाने से परहेज़ करे. फर्ज़ी और झूठे मुक़दमों के ख़िलाफ़ सख़्त क़दम उठा कर सज़ा देने के बजाए राजस्थान सरकार ऐसा अध्यादेश लाई है जो संदेशवाहक को चुप कराना चाहता है.

एडिटर्स गिल्ड ने यह भी कहा कि राजस्थान सरकार का ये क़दम कठोर है और ये जनहित की ख़बर देने वाले पत्रकारों को गिरफ़्तार करने तक की खुली छूट देता है. संसद ने 1970 में नई सीआरपीसी कोड बनाया था, इसमें लिखा है कि कोई व्यक्ति जो कि जज है या मजिस्ट्रेट है या लोकसेवक है, जिसे बिना सरकार की मंज़ूरी के नहीं हटाया जा सकता है, अगर वो किसी अपराध में शामिल पाया जाने का आरोपी बनता है तब बिना मंज़ूरी के अदालत उसके खिलाफ संज्ञान नहीं लेगी. यही नहीं विधेयक लाने से पहले राजस्थान सरकार ने राष्ट्रपति से अध्यादेश का अनुमोदन लिया है. अध्यादेश लाया भी जा चुका है और इसे कानून बनाने के लिए विधान सभा में पेश किया गया है. 

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ ने इस विधेयक को राजस्थान हाइकोर्ट में चुनौती देने का ऐलान किया है. इस बिल के खिलाफ राजस्थान के वकील एक के जैन ने अदालत में याचिका दायर की है. 

मान लीजिए कि यह विधेयक बग़ैर संशोधन के पास हो जाता है. उसके बाद किसी घोटाले की रिपोर्टिंग कैसे होगी. क्या रिपोर्टर खबर लेकर 180 दिन बैठेगा, सरकार के पास जाएगा कि आप एफआईआर अनुमति दीजिए तो हम छापें. प्लीज़, आप 180 दिन तक लटका दीजिए ताकि घोटालेबाज़ हमें और सबूत दोनों को साफ कर दे. फिर भी रिपोर्टिंग कैसे होगी, इसका एक नमूना पेश करता हूं. नमूना तो नहीं है बल्कि पूरा का पूरा कपड़े का थान है. 

रिपोर्टर को आरटीआई से हासिल जानकारी से पता चलता है कि एक विभाग में एक अधिकारी ने 200 करोड़ का गबन किया है. अब वह ख़बर कैसे लिखेगा क्योंकि दो साल की जेल से बचना भी है. प्रिय दर्शक और प्रियतम पाठक, आइये आप और हम दोनों मिलकर झील के किनारे चलते हैं और अपनी अपनी कल्पनाओं के इस्तेमाल से इस खबर को समझने का प्रयास करते हैं. 200 करोड़ के कथित रूप से हुए इस गबन का संबंध उस वाले सांसद से लगता है जो उस रोज़ दिल्ली से आए उस मंत्री के बगल में बैठे थे और चाय नहीं पी रहे थे, उसी वाले सांसद के उस करीबी अधिकारी ने उनके कहने पर नियमों को तोड़ा और उस वाले विधायक के करीबी ठेकेदार को 200 करोड़ का ठेका दे दिया. हम इतना जानते हैं कि जहां घोटाला हुआ है, वो विभाग एक सरकारी इमारत में है. जिसमें सौ कमरे हैं और जिनमें एक हज़ार कर्मचारी बैठते हैं. इन्हीं में से एक कमरे में वो वाला अफसर बैठता है जिसने 200 करोड़ का कथित रूप से घोटाला किया है. इस घोटाले में उसके रिश्तेदार भी कथित रूप से शामिल हैं मगर हम नाम बता देंगे तो 2 साल की जेल हो जाएगी. किस शहर में, किस मामले में, किस चीज़ का घोटाला हुआ है अगर हम इतना भी बता देंगे तो तो पता चल जाएगा कि वो विभाग कौन सा है, उस विभाग का सचिव कौन है, उस विभाग का मंत्री कौन है, और हमें दो साल की जेल हो जाएगी. आपको पता न चले इसलिए हम बता रहे हैं कि मामला जयपुर से उत्तर दिशा में स्थित एक विभाग का है जिसका नाम अ है, सचिव का नाम ब है और मंत्री का नाम स है, घोटाले की राशि द है. उस इमारत स्थित उस विभाग के उस अफसर ने उस मामले में 200 करोड़ का कथित रूप से वो वाला घोटाला किया है, जो वाला बिहार में हो चुका है. फिर भी किस इमारत में स्थित किस विभाग के किस अफसर ने किस मामले में 200 करोड़ का वो वाला घोटाला किया है, ये जानने के लिए आपको 6 महीने का इंतज़ार करना होगा, क्योंकि जब तक सरकार अपनी जांच के बाद एफआईआर करने की अनुमति नहीं देगी, हम इससे ज्यादा नहीं बता सकते. इसीलिए थोड़ा लिखा है ज़्यादा समझना. अगर, एफआईआर की अनुमति नहीं मिली तो समझिए कि उस इमारत में स्थित उस विभाग के उस अफसर ने उस मामले में 200 करोड़ का घोटाला नहीं किया है. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सरकारें इतना सब करने के बजाए एक कानून पास कर दें कि प्रेस में सिर्फ लोरी छपेगी. टीवी में एंकर लोरियां सुनाएंगे. 

बीजेपी के पास संपूर्ण बहुमत है, जिस तरह से वह अध्यादेश ले आई उसी तरह से वह इसे पास भी करा सकती है. अभी यह होता था कि अगर पुलिस एफआईआर नहीं कर सकती तो कोई कोर्ट जाकर आदेश ले आता था और जांच शुरू हो जाती थी. मगर यह विधेयक पास हुआ तो कोर्ट से भी अनुमति नहीं मिलेगी. यह ज़रूर है कि अगर राज्य सरकार छह महीने में इंजाज़त नहीं देती है तो ये माना जाएगा कि इजाज़त मिल गई है, यही नहीं विधेयक में यह भी लिखा है कि सरकार को अपने फ़ैसले के लिए कोई कारण बताने की ज़रूरत नहीं होगी. सांसद और विधायक का नाम है, मुख्यमंत्री का नहीं है, तो क्या मुख्यमंत्री के खिलाफ एफ आई आर हो सकती है या मुख्यमंत्री भी विधायक होते हैं या होती हैं तो उनके खिलाफ भी एफ आई आर के लिए उन्हीं से मंज़ूरी लेनी होगी. 

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर ऐसा ही एक मामला इलाहाबाद कोर्ट में लंबित है. इस बारे में हम मार्च 2017 की स्क्रोल डॉट इन की एक रिपोर्ट का सहारा ले रहे हैं जिसमें बताया गया है कि अखिलेश सरकार ने योगी आदित्यनाथ के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी. गृहमंत्रालय भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अधीन है तो क्या वे अपने ख़िलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देंगे? 

मामला 2007 का है, सांसद के तौर पर उन पर कथित रूप से हिंसा और नफरत भड़काने का आरोप है. गोरखपुर के पत्रकार परवेज़ परवाज़ ने एक एफआईआर दर्ज कराई थी जिसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी नाम था मगर सरकार ने मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी. 10 जुलाई, 2015 से यह मामला अनुमति का इंतज़ार कर रहा है. सात साल में भी अंतिम फैसला नहीं हुआ है. जबकि क्राइम ब्रांच ने जांच पूरी कर ली है. कोर्ट में सरकार के फैसले का बचाव करते हुए मुख्य सचिव ने कहा था कि परवेज़ ने जो सीडी जमा कराई थी उसमें छेड़छाड़ हुई है. मामला अदालत में है इसलिए ज़्यादा टिप्पणी करना उचित नहीं होगा. दैनिक जागरण ने लिखा है कि 23 अक्तूबर को इस मामले में सुनवाई हुई. 

गोदी मीडिया वैसे ही भजन-भोजन में लगा हुआ है अब कानून ही बन जाएगा तो सबको आराम हो जाएगा कि रिपोर्ट ही नहीं करनी है वर्ना जेल हो जाएगी लेकिन आप आम आदमी की निगाह से सोचिए, झूठे मुकदमे आपके खिलाफ होंगे तो उनका क्या होगा, क्या आपकी परेशानी किसी सांसद या विधायक या अफसर से कम है, उनका केस लड़ने के लिए तो सरकार के पास वकीलों की फौज होती है, आपके पास क्या होता है. कर्जा, पूजा और कोई नहीं है दूजा. प्रेस की आज़ादी पर हमला नहीं है तो क्या है. अगर झूठी एफआईआर लिखाई जा रही है तो इसका उपाय यह होना चाहिए दो चार लोगों के खिलाफ एफआईआर लिखवाना मुश्किल कर दो और बाकी का उनके हाल पर छोड़ दो. 


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