प्रदर्शन के मौलिक अधिकार पर बंदिश, रोजगार के अधिकार पर चुप्पी

यूनिवर्सिटी कैंपस में विरोध प्रदर्शन को दबाने के नाम पर तरह-तरह के नियम बनाए जा रहे हैं. ये सारे नियम सुप्रीम कोर्ट के ही फैसले के खिलाफ खड़े नज़र आते हैं, जिसने 2018 में कहा था कि प्रदर्शन करना मौलिक अधिकार है.

यूनिवर्सिटी कैंपस में विरोध प्रदर्शन को दबाने के नाम पर तरह-तरह के नियम बनाए जा रहे हैं. ये सारे नियम सुप्रीम कोर्ट के ही फैसले के खिलाफ खड़े नज़र आते हैं, जिसने 2018 में कहा था कि प्रदर्शन करना मौलिक अधिकार है. ज़रा-ज़रा सी बात पर छात्र को हॉस्टल से बाहर किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि हॉस्टल में भाषण देने से पहले डीन से अनुमति लेनी होगी. जिन पर लोकतांत्रिक होने की ज़िम्मेदारी है वो लोकतांत्रिक भावनाओं को कुचलने के नियम बना रहे हैं. टेलिग्राफ अखबार की यह खबर बताती है कि विश्व भारतीय यूनिवर्सिटी के वाइस चासंलर विद्युत चक्रवर्ती ने गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने भाषण में कह दिया कि आज जो नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे हैं, संविधान की प्रस्ताव पढ़ रहे हैं, लेकिन यह संविधान अल्पसंख्यक मतों द्वारा तैयार किया गया था. संविधान सभा के 293 सदस्यों ने मिलकर संविधान का ड्राफ्ट तैयार किया. अगर आप उस समय के पत्रों को पढ़ें तो पता चलेगा कि कई लोगों ने इसका विरोध किया था, लेकिन अब प्रस्तावना वेद बन गई है. लेकिन अगर हमें प्रस्तावना पसंद नहीं है तो मतदाता जो मिलकर संसद बनाती है, इसे बदल देंगे.

जब इसकी आलोचना हुई, प्रेस में यह बात छपी तो यूनिवर्सिटी ने जांच करवाई कि उस भाषण को कौन रिकॉर्ड कर रहा था. सीसीटीवी से एक छात्र की पहचान हुई जो भाषण को रिकॉर्ड कर रहा था. उसके बाद उस छात्र को हॉस्टल से निकाल दिया गया. संविधान बदलने की बात वाइस चांसलर कह रहे हैं. बल्कि आप देखेंगे कि धीरे-धीरे यह बात यहां वहां कही जाने लगी है. आपको इस खयाल से सहज किया जा रहा है. ख़ैर इस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए कि उसके वाइस चांसलर जो कह रहे हैं क्या सही है? साथ ही इस पर भी बात हो सकती है कि वाइस चांसलर ने कहा है कि संविधान की प्रस्तावना अल्पमत से पास हुई है. क्या यह ऐतिहासिक रूप से सही है?

तो आपने देखा कि किस तरह से गलत जानकारियां फैलाई जा रही हैं. वाइस चांसलर विद्युत चक्रवर्ती ने एक यूनिवर्सिटी के भीतर ये बात कही है. कायदे से वहीं इसे लेकर बहस होनी चाहिए, मगर कोई डर से बोलेगा भी नहीं. टैगोर की बनाई यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर कह रहे हैं कि अल्पमत से पास हुआ था तो फिर उस भारत की कल्पना साकार होते देखना शुरू कर दीजिए जहां की जनता और छात्र ग़लत तथ्यों से लैस किए जा रहे हैं. यही नहीं जिस छात्र ने विश्व भारती के वाइस चांसलर का भाषण रिकॉर्ड किया गया था उसे हॉस्टल से बाहर कर दिया गया है. क्या वाइस चांसलर के भाषण को रिकॉर्ड करना कोई अपराध है? जब टेलिग्राफ ने विश्व भारती यूनिवर्सिटी से पूछा कि किन नियमों के तहत छात्र को हॉस्टल से निकाला गया तो अखबार के अनुसार प्रवक्ता ने बताने से मना कर दिया. यानी अब इन बातों का कोई मतलब नहीं रह गया है. आप हर दिन ऐसी बातों को लेकर सहज होते जा रहे हैं, सिस्टम हर दिन आपकी पहुंच से दूर होता जा रहा है.

अब यूनिवर्सिटी ने एक नोटिस निकाल कर कई जगहों को नो डिस्टर्ब ज़ोन घोषित कर दिया है. इन जगहों पर कोई धरना प्रदर्शन नहीं हो सकेगा. लाइब्रेरी, प्रशासनिक भवन और अकादमिक और रिसर्च सेक्शन के क्षेत्र में अब छात्र धरना प्रदर्शन नहीं कर सकेंगे. एक तरफ सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में कहता है कि प्रदर्शन करने का अधिकार मौलिक अधिकार है, वहीं दूसरी तरफ यूनिवर्सिटी के भीतर प्रदर्शन के अधिकार सीमित किए जा रहे हैं. इसी तर्ज पर आईआईटी बांबे ने भी सर्कुलर निकाला है कि वे एंटी नेशनल गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले सके. इस सर्कुलर में 15 नियमों की सूची दी गई है जिसका पालन करने को कहा गया है. इस नियम के तहत लिखा है, भाषण, नाटक संगीत या अन्य गतिविधियां जिनसे छात्रावास का शांत माहौल प्रभावित हो सकता है, प्रतिबंधित है. अगर वहां शिक्षक होंगे तब भी इसकी इजाज़त नहीं है. सिर्फ वही सामग्री पढ़ी जा सकती है जिसे डीन की मंज़ूरी हासिल हो.

आईआईटी बांबे के छात्र दुनिया भर में फैले होंगे. कई बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे होंगे. क्या वो उन जगहों पर गर्व से बता सकते हैं कि उनके आईआईटी बांबे ने ऐसा फैसला किया है कि भाषण देने या नाटक करने से पहले संस्थान से अनुमति लेनी होगी? क्या यही लोकतांत्रिक भारत के नए पैमाने हैं? आईआईटी बांबे में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में लंबे समय तक प्रदर्शन चला है. वहां कोई हिंसा भी नहीं हुई है. ज़ाहिर है ऐसे नियमों की याद क्यों दिलाई गई है. क्या सरकार की नीति का विरोध करना एंटी नेशनल है? वैसे उस सूची में एंटी नेशनल परिभाषित नहीं किया गया है. क्या यह ज़रूरी नहीं है कि आईआईटी बांबे बताए कि उसके लिए एंटी नेशनल क्या है? एक सर्कुलर का कितना असर होता है, जब हमारी सहयोगी पूर्वा चिटनिस आईआईटी बांबे गईं तो कोई बात करने के लिए तैयार ही नहीं हुआ.

इस भावुक दौर में एक ही मुद्दा ऐसा है जिसे लेकर कोई भावुक नहीं है. वो है बेरोज़गारी का मुद्दा. बेरोज़गार भी अब बेरोज़गारी के सवाल को लेकर भावुक नहीं है. यह देखने में सही लगता होगा मगर भीतर-भीतर वह परीक्षा के फॉर्म भरता हुआ उसके होने की तैयारी में अपनी ज़िंदगी खपा देता है. करोड़ों नौजवानों की इस यात्रा को आप किसी भी सरकार के हिसाब से बांटकर देखे लें नतीजा एक ही मिलेगा. इस मुद्दे को खत्म करने में जितना योगदान नेताओं का है उतना ही नौजवानों का भी. इसलिए बेरोज़गारी के आंकड़े समाजशास्त्रीय अध्ययन और संपादकीय विश्लेषण के काम आकर ख़त्म हो जाते हैं. सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनमी के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि भारत में बेरोज़गारी की दर बढ़ कर 7.3 प्रतिशत हो गई है. सबसे अधिक बेरोज़गारी शहरों में है और ग्रेजुएट युवाओं में है. सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनमी के महेश व्यास ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि 2016 से भारत में रोज़गार की स्थिति कमोबेश स्थिर है. जनवरी 2016 से 12 राउंड के सर्वे में यह बात उभरकर सामने आई है कि 40 करोड़ के आस-पास ही रोज़गार का आंकड़ा घूम रहा है. इसमें से भी 30 साल के कम उम्र के नौजवानों की संख्या कम होती जा रही है. मतलब यह हुआ कि कम उम्र के नौजवान जो पढ़ कर कॉलेजों से निकल रहे हैं उनके लिए नई नौकरियां नहीं हैं. 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम के हैं और अगर तीस साल की उम्र की कैटगरी के रोज़गार में 5 प्रतिशत की गिरावट का आना चिन्ताजनक तो है ही.

यही नहीं वेतनभोगी कैटगरी में देखा गया है कि जनवरी 2016 से दिसंबर 2019 के बीच वेतनभोगी लोगों की संख्या स्थिर है.  इस दौरान 8 करोड़ 60 लाख से लेकर 8 करोड़ 80 लाख के बीच ही है. कुल रोज़गार के हिसाब से देखें तो वेतनभोगी वर्ग का हिस्सा कम हो गया है. 2016 में 30 साल से कम उम्र के 3 करोड़ युवाओं के पास सैलरी वाली नौकरी थी. 2019 में 50 लाख की कमी हो गई और संख्या ढाई करोड़ तक रह गई.

सैलरी वाली नौकरी नहीं मिल रही है. इसका अंदाज़ा मिलता है जब सरकारी नौकरी का विज्ञापन आता है. करोड़ों की संख्या में फॉर्म भरे जाने लगते हैं और फिर उसका पता नहीं चलता. महेश व्यास बता रहे हैं कि बेरोज़गारी के इन आंकड़ों में वो क्या पैटर्न देख रहे हैं. रोज़गार राजनीतिक मुद्दा नहीं है, लेकिन एक नौजवान का व्यक्तिगत संघर्ष तो है ही. वैसे उत्तरी दिल्ली नगर निगम के आठ हज़ार शिक्षकों को तीन महीने से वेतन नहीं मिला है. बजट आने वाला है, लेकिन अर्थव्यवस्था का कौन सा हिस्सा है जो इस वक्त उम्मीदें पैदा कर रहा है.ऑटो सेक्टर की खराब हालत से सब सामान्य हो चुके हैं. व्यावहारिक होकर सोचिए, जिस सेक्टर की हालत महीनों से नहीं सुधरी क्या एक बजट के फैसले से बदल जाएगी? इंतज़ार लंबा है.

इस जंग में लगातार जनता हार रही है कि उसके मुद्दों को जगह मिलेगी या नेताओं के पैदा किए गए मुद्दों को. इस बीच सिस्टम हर स्तर पर एकतरफा होता चला जा रहा है. वह अब उस लोक लाज से मुक्त बेपरवाह होने लगा है कि लोग उसे एक पार्टी या गोदी मीडिया के पत्रकार के साथ सिस्टम मिलकर कैसे काम करने लगा है. सत्ता और पत्रकारिता का विलय तो बहुत पहले हो चुका था. पहले इसका एलान पत्रकारिता ने किया कि गोदी मीडिया बन गया है और अब सिस्टम बताने लगा है कि जो गोदी मीडिया है उसी का है. आप इस सूत्र को अपने आस पास के अनेक उदाहरणों से परख सकते हैं. हर तरह की चेतावनी अब बेकार होती जा रही है. हो सकता है कि अब आपके घर की बिजली पानी की सप्लाई काट दी जाए, सड़क पर चलने से रोका जाने लगे, क्योंकि आपने किसी को कुछ कहा है, किसी से बहस की है या सरकार के खिलाफ कुछ बोला है. सिस्टम इस आधार पर काम कर रहा है कि कोई सरकार की तरफ से किसी को कुछ भी बोल सकता है और उसे पूरा संरक्षण मिलेगा. अगर उसी तरह की बात कोई बोलेगा तो उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाएगा.

स्टैंड अप कॉमेडियन कुणाल कामरा के साथ यही हुआ. यह वीडियो कुणाल कामरा ने ही पोस्ट किया है. इसमें मुंबई से लखनऊ जा रहे इंडिगो विमान के भीतर अर्णब गोस्वामी से कुणाल सवाल पूछने लगते हैं और अर्णब नोटिस भी नहीं करते हैं. इस वीडियो के बाद बहस छिड़ गई कि कुणाल ने सही किया या नहीं? एक राय कहती है कि गलत किया. दूसरी राय पुराने उदाहरणों को दिखाकर कहती है कि कुछ भी ऐसा नहीं किया. कुणाल कामरा ने कहा कि उसने अर्णव गोस्वामी से बात करनी चाही, वे फोन पर थे. फोन खत्म होने के बाद फिर बात शुरू की तो बात नहीं की. तब कुणाल ने बताना शुरू किया कि वह उनकी पत्रकारिता के बारे में क्या सोचते हैं तो अर्णब ने कहा कि वह मानसिक रूप से संतुलन बिगड़ा हुआ है. फिर सीट बेल्ट के साइन आ गए. तब वह एयर होस्टेस के कहने पर तुरंत अपनी सीट पर बैठ गया. उड़ान भरने के बाद कुणाल फिर से अर्णव के पास गए. जब अर्णब ने बात नहीं कि तब मैंने वो किया जो रिपब्लिक टीवी के पत्रकार लोगों के प्राइवेट स्पेस में घुसकर करते हैं. मुझे इसका अफसोस नहीं है. अगर मैं क्रिमिनल हूं तो वो भी क्रिमिनल है. 

कुणाल ने अपने बयान में कहा है कि मैंने किसी भी तरह से गतिरोध पैदा नहीं किया न ही कैबिन क्रू या कप्तान की बात को टाला. न ही मैंने किसी तरह से यात्रियों को जोखिम में डाला. सिर्फ यही नुकसान किया कि एक पत्रकार के अहं को नुकसान पहुंचाया, जिसका अफसोस नहीं है. मैंने सभी क्रू के सदस्यों से माफी मांगी. दोनों पायलट से भी माफी मांगी. मुझे नहीं लगता कि मैंने कोई अपराध किया है. मेरी बहादुरी की भी बात नहीं है. मैं सभी यात्रियों से भी माफी मांगता हूं सिर्फ एक को छोड़कर. कुणाल इस वीडियो में कह रहे हैं कि आपने रोहिता वेमुला की जाति पर सवाल उठाया था, आपको इंसान बनने के लिए उसका सुसाइड नोट पढ़ना चाहिए. जिस तरह से कुणाल कामरा को अभिव्यक्ति का अधिकार है उसी तरह अर्णब गोस्वामी को भी किसी से नहीं बात करने का अधिकार है. यह बात दोनों को समझना चाहिए.

ऐसा ही वाकया शशि थरूर के साथ हुआ था, मगर ज़मीन पर. शशि थरूर जवाब नहीं देना चाहते थे, मगर पत्रकार उनका पीछा करने लगते हैं और कावर्ड यानी डरपोक बोलने लगते हैं. जो भाषा है वो आप सुनेंगे तो दिमाग सुन्न हो जाएगा. पत्रकारिता के सारे नियमों को ध्वस्त करने के बाद सड़क पर या विमान में घेरकर सवाल पूछने और अपराधी की तरफ दिखाने के कैमरा एंगल की शुरुआत भयानक है. बहुत ज़रूरी है कि पब्लिक स्पेस में एक व्यवस्था बनी हो जहां सहमति और असहमति का आदर के साथ प्रदर्शन हो. पत्रकारों को घेर कर मारना और कैमरे के साथ किसी को घेर लेना दोनों ही अनुचित है. आप इस वीडियो को सुनें. जिस भाषा का इस्तेमाल हो रहा है वो बता रहा है कि पत्रकार के हाथ में माइक अब किसी और काम कर रहा है.

आप यूट्यूब पर जाकर शशि थरूर के साथ ऐसे बर्ताव के वीडियो देखिए. कई वीडियो मिलेंगे. एक ही चैनल के दो-दो रिपोर्टर थरूर का अपराधियों की तरह पीछा करते हैं. रिपोर्टर की भाषा आप सुनेंगे तो व पत्रकार वाली नहीं है. मीडिया ट्रायल का यह रूप कभी नहीं देखा गया. कुणाल कामरा प्रकरण के बाद शशि थरूर ने ट्वीट किया, 'सच यह है कि वक्त आ गया था कि कोई उन्हें उनकी ही दवा का स्वाद देता. इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल वे लोगों के साथ करते हैं, उनपर हमला करने के लिए. वो बहुत ही तेज़ आवाज़ में और दादागीरी के अंदाज़ में करते हैं. किसी के साथ हुआ था, इसलिए किसी के साथ होना सही है. यह सही नहीं है. न कानून का रास्ता है न लोकतांत्रिक रास्ता है. लेकिन कानून एक व्यक्ति से ऊपर होता है. क्या वो एक के लिए सारी प्रक्रियाओं को ताक पर रख सकता है? जब बीजेपी की सांसद प्रज्ञा ठाकुर प्राइवेट एयरलाइन्स में इमरजेंसी सीट नहीं दिए जाने पर धरने पर बैठ गईं और क्रू मेंबर के साथ दुर्व्यवहार किया, लेकिन उनके साथ कुछ नहीं होता है. मगर कुणाल कामरा को तुरंत ही छह महीने के लिए बैन कर दिया जाता है और उसके बाद दूसरी कंपनियां भी ऐसा करने लगती हैं.

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इसलिए अब बहस इस पर शिफ्ट हो गई है कि विमान कंपनियों ने किन नियमों के तहत ऐसा किया है. हफपोस्ट ने नागरिक उड्डयन निदेशालय डीजीसीए के निदेशक अरुण कुमार का बयान छपा है. इंडिगो को छह महीने के लिए बैन करने से पहले आंतरिक जांच का इंतज़ार करना चाहिए था. अगर कोई यात्री विमान के भीतर ग़लत व्यवहार करता है तो उस पर 30 दिनों के लिए बैन लग सकता है. उसके बाद एक रिटायर्ड जज से इस मामले की जांच करानी होती है. इस बयान के छपने के बाद पीटीआई के ज़रिए बयान आता है कि इंडिगो और अन्य एजेंसियों ने नियम के अनुसार फैसला लिया है. इतनी जल्दी बयान पूरी तरह बदल जाते हैं, लेकिन हमारे सहयोगी विष्णु सोम के अनुसार सूत्र बता रहे हैं कि विमान कंपनियों ने बैन लगाने से पहले नियमों और प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है. ज़ुबानी कहासुनी के मामले में 3 महीने की रोक की सज़ा है. शारीरिक धक्कामुक्की के लिए छह महीने की. बगैर रिटायर्ड जज की जांच के विमान कंपनियां किसके दबाव में कानून की प्रक्रियाओं की धज्जी उड़ा रही हैं.