तथ्यों और संदर्भों से जूझता प्रधानमंत्री का भाषण

दो सीरयस बाते हैं. प्रधानमंत्री के भाषण में फेकिंग न्यूज वेबासाइट की बात कैसे आ गई और दूसरा क्या प्रधानमंत्री नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में नेहरू-लियाकत पैक्ट का जिक्र सही तरीके से कर रहे हैं?

दो सीरयस बाते हैं. प्रधानमंत्री के भाषण में फेकिंग न्यूज वेबासाइट की बात कैसे आ गई और दूसरा क्या प्रधानमंत्री नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में नेहरू-लियाकत पैक्ट का जिक्र सही तरीके से कर रहे हैं? सवाल यह होना चाहिए कि 24 घंटे से अधिक होने को आया अभी तक प्रधानमंत्री ने अपने उस बयान में संशोधन नहीं किया है जो उमर अब्दुल्ला ने कहा ही नहीं था. जिस हिस्से का उन्होंने जिक्र किया है वो छह साल पुराना है और हंसी ठिठोली करने वाली वेबसाइट फेकिंग न्यूज से लिया गया है. लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के कारणों का ज़िक्र किया. पहले उमर अब्दुल्ला के बारे में प्रधानमंत्री ने क्या कहा वो वाला हिस्सा सुनते हैं. 

पीएम मोदी ने कहा, 'कुछ लोग कहते हैं कुछ नेता जेल में हैं. फलाना है, ढिमकाना है. महबूबा ने पांच अगस्त को कहा था भारत ने कश्मीर के साथ धोखा किया है. हमने जिस देश के साथ रहने का फैसला किया था, उसने हमें धोखा किया है. ऐसा लगता है कि हमने 1947 में गलत चुनाव कर लिया था. क्या यह संविधान को मानने वाले लोग इस प्रकार की भाषा को स्वीकर कर सकते हैं क्या उनकी वकातलत? उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि आर्टिकल 370 को हटाना ऐसा भूकंप लाएगा कि कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा. फारूक अब्दुल्ला जी ने कहा था कि 370 का हटाया जाना कश्मीर के लोगों की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त करेगा. भारत का झंडा फहराने वाला कोई नहीं बचेगा.' ऑल्ट न्यूज़ ने कम से कम समय में चेक कर बता दिया कि उमर अब्दुल्ला ने तो ऐसा कोई बयान ही नहीं दिया है.

ऑल्ट न्यूज़ ने बताया है कि उमर के जिस बयान का प्रधानमंत्री ने ज़िक्र किया है वो 6 साल पुराना है. फेकिंग न्यूज़ की वेबसाइट पर 28 मई 2014 को छपा है. हुआ यह था कि इसके एक दिन पहले यानी 27 मई को उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया था कि अगर धारा 370 हटा तो जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा. उसके अगले दिन फेकिंग न्यूज़ ने चुटकी ली थी और उनके बयान में भूकंप जोड़ दिया. प्रधानमंत्री ने इस वाले हिस्से को लोकसभा में बोल दिया, लेकिन छह साल पहले दिए गए इस बयान पर उस समय मोदी सरकार ने तुरंत ही एक्शन क्यों नहीं लिया? कायदे से पीएम को इसका जवाब देना था. 6 साल बाद जेल में बंद करने का ख्याल क्यों आया? जिस वेबसाइट से पीएम ने उमर का बयान बोला है उस पर लिखा है कि इसे लिखने वाले इडियट 420  हैं.

5 अगस्त 2019 को जब धारा 370 हटाई गई थी तब उमर अब्दुल्ला ने दो ट्वीट किए थे. इस ट्वीट में उमर अब्दुल्ला ने ऐसी कोई बात नहीं कही थी, जिससे शांति व्यवस्था को खतरा पहुंचने का अंदेशा हो. अग्रेज़ी में किए गए ट्वीट में उमर अब्दुल्ला ने कहा था मेरा ध्यान कश्मीर पर ही रहा है लेकिन करगिल, लद्दाख और जम्मू के लिए कुछ कहना चाहता हूं. मुझे पता नहीं कि राज्य में क्या होने वाला है. अच्छा तो नहीं लग रहा. मुझे पता है कि आपमें से कई नाराज़ होंगे, लेकिन कानून अपने हाथ में मत लीजिए. शांत रहिए. दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा, 'हिंसा से आप उन्हीं के हाथों में खेलेंगे जो राज्य के हित की नहीं सोचते हैं. यह वो भारत नहीं है जिसमें जम्मू कश्मीर शामिल नहीं हुआ था, लेकिन मैं इतनी जल्दी उम्मीद नहीं छोड़ने वाला हूं. अभी शांति बने रहने दीजिए. ईश्वर आपके साथ है.

महबूबा मुफ्ती की बेटी ने कहा है कि महबूबा से जब सरकार बनानी होती है तो उनकी हां का इंतज़ार होता है, लेकिन उनके किसी बयान को लेकर आज गिरफ्तारी को सही बताया जा रहा है. मीडिया के लिए यह सवाल अब टालने का सवाल हो गया है. जब वह खुद गोदी मीडिया बन गया है तो दूसरों के लोकतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी कैसे करेगा. राजनीतिक दलों ने आवाज़ उठाई मगर उसमे औपचारिकता की खानापूर्ति ज़्यादा नज़र आई. वो नेता जो आज सरकार में हैं आज तलक आपातकाल के समय जेल की यादों को पब्लिक में भुना रहे हैं, लेकिन वो भी चुप हैं खासकर उन नेताओं की गिरफ्तारी को लेकर जिनके साथ वे दशकों काम करते रहे.

जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में बड़ी संख्या में राजनीतिक गिरफ्तारी हुई है. विपक्ष के नेताओं ने राष्ट्रपति से मुलाकात तो की मगर कश्मीर को लेकर अन्य सवालों के साथ एक सवाल यह भी था. राजनीतिक बंदियों के अधिकार को लेकर विपक्ष ने कोई सक्रिय अभियान नहीं चलाया. जनवरी महीने में उमर अब्दुल्ला की तस्वीर को देखकर ममता बनर्जी ने ट्वीट किया कि मैं उमर को पहचान नहीं पाई. मैं दुखी हूं. दुर्भाग्य की बात है कि यह सब हमारे लोकतांत्रिक मुल्क में हो रहा है. यह कब खत्म होगा? सीताराम येचुरी ने भी ट्वीट किया था कि एक पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंदीय मंत्री को बिना किसी चार्ज के महीनों बंद किया गया है, जबकि वो और उनकी पार्टी भारत समर्थक रहे हैं.

डीएमके नेता स्टालिन ने ट्वीट किया था कि उमर की तस्वीर देखकर मैं बहुत व्यथित हूं. उतना ही परेशान मैं फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और बाकी कश्मीरी नेताओं के लिए भी हूं जिन्हें जेल में बंद किया गया है. बिना ट्रायल का मौका दिए. केद सरकार को तुरंत सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करना चाहिए. एमडीएमके नेता वाइको ने फारूक अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. एनडीए की बैठक में अकाली दल से राज्यसभा सासंद ने ज़रूर कहा कि उम्र को देखते हुए लोकसभा सांसद फारूक अब्दुल्ला को रिहा कर दिया जाए, मगर यह भी एक किस्म की औपचारिकता ही थी. इन दोनों के कितने ही दलों से राजनीतिक संबंध रहे होंगे मगर किसी भी दल के नेता ने इनकी रिहाई के लिए बयान देने की औपचारिकता से आगे बढ़कर कुछ नहीं किया. इनके साथ प्रधानमंत्री मिलते रहे, महबूबा के साथ बीजेपी ने सरकार बनाई, उनकी हां के लिए इंतज़ार किया, उमर अब्दुल्ला वाजपेयी सरकार के मंत्री भी थे. राजनीतिक दलों के लिए लोकतांत्रिक मूल्य कितने अहम हैं आप इन दो गिरफ्तारियों से आंक सकते हैं. हमारे सहयोगी नज़ीर का कहना है कि उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को किन आधार पर बंद किया गया है, उनके पास डोसियर नहीं हैं, लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि क्या बाकी नेताओ ने भी ऐसा ही कुछ बयान दिया था या किया था, जिसके कारण इनकी गिरफ्तारी हुई?

अब जिस पब्लिक सेफ्टी एक्ट उमर अब्दुल्ला या महबूबा मुफ्ती के खिलाफ लगाया गया है उस कानून का अपना इतिहास है और सबक है. सबक ये है कि कोई भी राजनीतिक दल जब सत्ता में आता है तो  इस तरह के अलोकतांत्रिक कानून बनाता है, अपनी सुविधा के लिए. वरना लकड़ी के माफिया को पकड़ने के लिए ऐसे कानून की ज़रूरत नहीं होती. जब ये नेता सत्ता में होते हैं एक दूसरे के खिलाफ दुरुपयोग करते रहते हैं. शेख अब्दुल्ला के समय आया यह कानून कई संशोधनों से गुज़रते हुए काफी बदल गया है. इसमें यह भी प्रावधान जोड़ा गया कि डिविजनल कमिश्नर और ज़िला अधिकारी उसे गिरफ्तार कर सकते हैं जो धर्म या लिंग या जाति के आधार पर भड़का रहा हो. इस आधार पर दिल्ली चुनाव में जाने कितने नेता जेल चले जाते. फैज़ान मुस्तफा यूट्यूब में हिन्दी के परीक्षार्थियों के लिए एक लीगल सीरीज़ चलाते हैं. जिसमें वे सरल तरीके से समझाते हैं ताकि छात्रों की मदद हो सके. हम कुछ हिस्सा आपको दिखा रहे हैं.
 
प्रधानमंत्री या बीजेपी के नेता बार-बार नेहरू-लियाकत पैक्ट का ज़िक्र क्यों करते हैं? नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में प्रधानमंत्री के भाषण में नेहरू-लियाकत समझौते का ज़िक्र आया है. क्या वो सही संदर्भ में नेहरू-लियाकत पैक्ट का ज़िक्र कर रहे हैं? भारत और पाकिस्तान में रहने वाले माइनॉरिटीज की सुरक्षा को लेकर यह समझौता हुआ था. समझौते का आधार पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं होगा. पाकिस्तान मे रहने वाले जो लोग हैं उनमें जो धार्मिक अल्पसंख्यक हैं जिनकी बात हम बोल रहे हैं उनके संबंध में नेहरू लियाकत के बीच एग्रीमेंट हुआ था.

नेहरू-लियाकत पैक्ट 1950 में हुआ. भारत का नागरिकता कानून 1950 में बना. इसे ध्यान में रखते हुए आप नेहरू-लियाकत पैक्ट की भाषा देखिए. आपको माइनॉरिटी शब्द मिलेगा, लेकिन यह कहीं नहीं लिखा है कि हिन्दू माइनॉरिटी या मुस्लिम माइनॉरिटी. बल्कि यह लिखा है कि माइनॉरिटी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा. पहली ही लाइन में इर्रेस्पेक्टिव ऑफ रिलीजन लिखा है. यहां तक सिख माइनॉरिटी भी नहीं लिखा है. प्रधानमंत्री जिस कानून का बचाव कर रहे हैं उसमें धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात है, लेकिन 1950 में माइनॉरिटी को धर्म के आधार पर परिभाषित नहीं किया गया है. यही नहीं इसके पांच साल बाद जब भारत नागरिकता का कानून बनाता है तो उस समय की संसद में कांग्रेस का बहुमत था. नेहरू चाहते तो नागरिकता कानून में माइनॉरिटी को धर्म के आधार पर परिभाषित करते. प्रधानमंत्री मोदी आपको यह नहीं बताते हैं.

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आप खुद भी 1955 का नागरिकता कानून पढ़ें. नागरिकता वाले सेक्शन में जाकर. इस कानून में कहीं नहीं लिखा है कि पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता मिलेगी. बल्कि यह लिखा है कि पाकिस्तान से 19 जुलाई 1948 के पहले कोई भी आ जाए वो भारत का नागरिक होगा. 26 जनवरी 1950 को अपने आप नागरिक बन जाएगा. नेहरू के बनाए नागरिकता कानून में कहीं नहीं लिखा है कि जो हिन्दू आएगा उसे नागरिकता मिलेगी और जो मुसलमान आएगा उसे नहीं मिलेगी. पाकिस्तान एक इस्लामी राष्ट्र है, वो भी धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं देता है. अफगानिस्तान भी धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं देता है और बांग्लादेश भी नहीं देता है. बेशक पाकिस्तान का रिकॉर्ड अल्पसंख्यकों के मामले में बहुत खराब है. हिन्दू अल्पसंख्यक के मामले में और मुस्लिम अल्पसंख्यक के मामले में भी. हमने इतिहासकार सलिल मिश्रा से एक लंबी बात की है. पूछा है कि इस पैक्ट की पृष्ठभूमि क्या थी, इसका मकसद क्या था.