तो क्या आप देश का भी नाम बदलेंगे...?

दरअसल शहर राजनीतिक नामकरणों से नहीं बनते, वे स्मृतियों में धीरे-धीरे बसते रहते हैं. फ़ैज़ाबाद के बावजूद अयोध्या बना हुआ था और इलाहाबाद के बावजूद प्रयाग बचा हुआ था. बनारस वाराणसी भी है और काशी भी.

तो क्या आप देश का भी नाम बदलेंगे...?

फ़ैज़ाबाद अयोध्या हो गया, इलाहाबाद प्रयागराज हो गया, अहमदाबाद को कर्णावती करने की तैयारी है. नाम बदलने की इस राजनीति का विरोध आप किस आधार पर करेंगे...? मुंबई और चेन्नई पहले बंबई और मद्रास थे, बेंगलुरू बंगलौर था - यह सब बदल गए. दुनियाभर में नाम बदले जाते रहे हैं. रूस के दूसरे सबसे बड़े शहर सेंट पीटर्सबर्ग का नाम रूसी क्रांति के बाद पेत्रोग्राद कर दिया गया. लेनिन के निधन के बाद पेत्रोग्राद लेनिनग्राद हो गया, लेकिन सेंट पीटर्सबर्ग बना रहा. अब वह फिर सेंट पीटर्सबर्ग है. रूस में ही स्टालिन के जीते जी स्टालिनग्राद बन गया. स्टालिन की मौत के बाद ख्रुश्चेव ने उसे वोल्गाग्राद कर दिया. देशों के भी नाम बदलते हैं. कंपूचिया कंबोडिया हो चुका है और बर्मा म्यांमार हो चुका है. ऐसे उदाहरण और भी हैं.

यानी विचारधाराएं अपनी आस्था के अनुसार जगहों के नाम बदलती रही हैं. कुछ व्यावहारिक और कुछ बड़ी मुश्किलों के अलावा इसमें ख़तरा बस इतना है कि सत्ता बदलने के साथ ये नाम नए सिरे से बदल दिए जा सकते हैं. उत्तर प्रदेश में यह तमाशा हमने बार-बार देखा और अब ठीक से याद भी नहीं रहता कि किस पुराने शहर को किस नए नाम से पुकारा जाए.

दरअसल शहर राजनीतिक नामकरणों से नहीं बनते, वे स्मृतियों में धीरे-धीरे बसते रहते हैं. फ़ैज़ाबाद के बावजूद अयोध्या बना हुआ था और इलाहाबाद के बावजूद प्रयाग बचा हुआ था. बनारस वाराणसी भी है और काशी भी. दिल्ली को कुछ दिलजले अब भी शाहजहानाबाद की तरह याद कर सकते हैं. इन नामों में आपस में कोई बैर नहीं रहा. इलाहाबाद और प्रयाग एक-दूसरे के ख़िलाफ़ कभी नहीं रहे. दिल्ली से इलाहाबाद ले जाने वाली सबसे लोकप्रिय ट्रेन प्रयागराज एक्सप्रेस ही है. किसी ने कभी नहीं पूछा कि इसका नाम इलाहाबाद एक्सप्रेस क्यों नहीं किया गया.

मौजूदा नामकरणों से बस एक अफ़सोसनाक बात इतनी हुई है कि कुछ देर के लिए प्रयाग और इलाहाबाद एक-दूसरे के ख़िलाफ़ दिखने लगे हैं, फ़ैज़ाबाद और अयोध्या एक-दूसरे से उलझे नजर आ रहे हैं. ज़ाहिर है, यह इस नामकरण का नकारात्मक पक्ष है, जिसके पीछे बस यह विचार काम कर रहा है कि जो मध्यकाल में मुस्लिम शासकों द्वारा दिए गए नाम हैं, उन्हें बदल दिया जाए. यह ज़िद इतनी बड़ी है कि अहमदाबाद का कोई पुराना प्रचलित नाम नहीं सूझा, तो इतिहास के किसी कबाड़ से उठाकर कर्णावती का नाम लाया गया. इतिहास में बेशक एक कर्णावती हुई हैं - चित्तौड़ की महारानी, जिसने हुमायूं को राखी भेज कर गंगा-जमुनी तहज़ीब का मुगलिया अध्याय अकबर से पहले ही शुरू कर दिया था.

लेकिन अब कर्णावती अहमदाबाद के ख़िलाफ़ हैं. नाम बदलने की मौजूदा मुहिम का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यही है. ये बदले हुए नाम एक बदली हुई मानसिकता के परिचायक हैं - उस मानसिकता के, जो मध्यकालीन भारत के इतिहास को जैसे पूरी तरह तहस-नहस कर देने पर आमादा है. वह ताजमहल का नाम बदलना चाहती है, कुतुब मीनार का इतिहास बदलना चाहती है, लाल किले और आगरा के किलों को नामंज़ूर करती है.

सवाल है, वह ऐसा क्यों करती है...? क्योंकि भारतीयता की उसकी परिभाषा में किसी प्राचीन काल की, किसी पुरातन गौरव की कल्पना इतनी प्रबल है कि उसके आगे कोई यथार्थ नहीं टिकता. बेशक, भारत का प्राचीन इतिहास अपने-आप में गौरवशाली है. साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में यहां जो काम हुआ, वह अब तक उल्लेखनीय बना हुआ है, लेकिन मध्यकाल ने भी हमें काफी कुछ दिया है. दुनिया की बेहतरीन इमारतें, दुनिया का बेहतरीन साहित्य और दुनिया का बेहतरीन संगीत इसी दौर में आए हैं. यह शायद रामविलास शर्मा थे, जिन्होंने मध्यकाल के तीन शिखरों की बात की थी. उनके मुताबिक ये तीन शिखर ताजमहल, तानसेन और तुलसीदास हैं. ताजमहल का नाम आप बदल देंगे, उन राग-रागिनियों का क्या करेंगे, जो अमीर ख़ुसरो से लेकर तानसेन तक ने बनाए और भारतीय शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया...? इसके अलावा आप तुलसीदास द्वारा इस्तेमाल किए गए उन शब्दों का क्या करेंगे, जो आपके हिसाब से विदेशी या आक्रामक हैं...? तुलसीदास मानस की एक ही चौपाई में राम को तीन बार ग़रीबनवाज़ पुकारते हैं और जाने-अनजाने उन्हें सूफ़ी परंपरा से जोड़ देते हैं. क्या आप इसे भी बदलेंगे...?

और फिर नाम बदलने की मुहिम यहीं क्यों रुके...? जब मुगलों से इतना परहेज है, तो जो असली आक्रांता हैं, उनके दिए नाम को आप क्यों नहीं बदलेंगे...? आपके तर्क से इस देश का नाम भारत या आर्यावर्त या जंबूद्वीप होना चाहिए, हिन्दुस्तान या इंडिया नहीं. लेकिन जो पुराना जनसंघ था, वह हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान की बात करता था और जो नई BJP है, उसे स्किल इंडिया, इंडिया फर्स्ट, न्यू इंडिया के अलावा कुछ सूझता नहीं.

तो नाम बदलने से पहले आप यह साफ़ करें कि नाम बदलने का मक़सद क्या है...? वह हिन्दुस्तान को जोड़ना है, बांटना है, या नया हिन्दुस्तान बनाना है... या पुराने हिन्दुस्तान की ओर लौटना है...? दुर्भाग्य से अभी जो हो रहा है, वह एक तरह से पीछे की तरफ़ लौटने की कोशिश दिख रहा है.

लेकिन आगे बढ़ना या पीछे लौटना - दोनों के लिए एक सुसंगत विचार चाहिए, बीमार क़िस्म के जुनून से आप कहीं नहीं पहुंच सकते. आपकी सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में भी यह सुसंगत विचार नहीं दिखता. स्मार्ट सिटी की अवधारणा के लिए आप हिन्दी में एक शब्द तक नहीं सोच सके. बनारस में आप जलमार्ग शुरू करते हैं, तो उसे वाटरवेज़ बताते हैं और इनलैंड पोर्ट बनने का जश्न मनाते हैं.

मूल विषय पर लौटें. नए नाम पुराने नामों को कभी पूरी तरह बेदखल नहीं कर पाते. अवध भी बचा हुआ है और मगध भी, पाटलिपुत्र भी बचा हुआ है और वैशाली भी. परंपरा दरअसल यही है - वह एक सिलसिले से बनती है - नया पुराने को ख़ारिज नहीं करता, उसे आगे बढ़ाता है. लेकिन अभी जो कुछ हो रहा है, वह एक पूरी परंपरा को खारिज करने की कोशिश है. दुर्भाग्य से यह काम परंपरा की बहुत कम समझ रखने वालों द्वारा परंपरा के नाम पर ही किया जा रहा है. परंपरा की अपनी सुविधाजनक और जड़ व्याख्या करने वाले लोगों ने ही कभी प्राचीन काल में आदि शंकराचार्य की मां का अंतिम संस्कार करने से इंकार कर दिया था, इन्हीं लोगों ने तुलसीदास को मानस लिखने से रोकने की कोशिश की थी और इन्हीं लोगों की विचारधारा थी, जिसने गांधी को गोली मारी.

अब वे भारत को और हिन्दुस्तान को बांटने में लगे हैं और इंडिया के सामने आत्मसमर्पण करके बैठे हुए हैं. बहुत सारे ठहरावों की शिकार विचारधारा अब नाम बदलने की मुहिम पर निकली है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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