श्री श्री रविशंकर क्या चाहते हैं?

बिना संवैधानिक हस्तक्षेप के, एक समुदाय को लगभग डरा कर हासिल किया गया राम मंदिर क्या बहुसंख्यकवदी समुदाय को असहमति के नए इलाक़ों में दाखिल होने का नया दुस्साहस नहीं देगा?

श्री श्री रविशंकर क्या चाहते हैं?

श्री श्री रविशंकर क्या चाहते हैं? (फाइल फोटो)

आर्ट ऑफ़ लिविंग के गुरु श्रीश्री रविशंकर कह रहे हैं कि इस देश को सीरिया होने से बचाया जाए, इसलिए अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण पर आम राय बनाई जाए. वे कहते हैं, सभी समुदायों के लोगों से बात करके इसका रास्ता निकाला जाए. वे कहते हैं कि अदालत का फ़ैसला मंदिर के पक्ष में आए या इसके ख़िलाफ़- लेकिन इससे माहौल बिगड़ेगा. मुसलमान दुखी होंगे या फिर हिंदू क्रोधित. देश गृह युद्ध के कगार पर चला जाएगा.

देश को गृह युद्ध से बचाने का इकलौता उपाय उनकी निगाह में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण है. जाहिर है, जो संवाद वे दूसरे समुदायों से करना चाहते हैं, उसका नतीजा उन्होंने पहले से तय कर लिया है. उनसे कौन पूछे कि जिसके नतीजे पहले से तय हों, वह संवाद कैसा होता है. उनको बस दूसरों को समझाना है कि राम मंदिर बन जाए, इसी में उनका भला है, हिफ़ाज़त है, उनके शांति से भारत में बने रहने की गारंटी है. यह बात वे बार-बार मधुर स्वर में दुहरा रहे हैं.

इस क्रम में वे भारतीय राष्ट्र राज्य और भारतीय न्यायपालिका की अवमानना भी बहुत आराम से कर रहे हैं. भारतीय राष्ट्र राज्य जिस विविधता की गारंटी देता है, जिसे अपनी अनूठी पूंजी मानता है, वह बस इसलिए सुरक्षित है कि यहां सबको बराबरी की हैसियत देने वाला एक संविधान है जिस पर अमल की ज़िम्मेदारी हम सबने ले रखी है. इसी संविधान में यह व्यवस्था है कि जब देशों, समुदायों या अलग-अलग प्रदेशों के बीच कोई विवाद इस मोड़ तक पहुंच जाएगा कि वे आपस में कोई समझौता न कर सकें, तो सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मान्य होगा. कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी का पानी बांटने को लेकर जब कोई आम राय नहीं बन पाई तो सुप्रीम कोर्ट ने ही फ़ैसला किया.

अगर सारे फ़ैसले श्रीश्री रविशंकर के सद्वभाव वाले रवैये से ही कर लिए जाते तो देश में सुप्रीम कोर्ट की ज़रूरत ही न पड़ती. सुप्रीम कोर्ट इसीलिए भी है कि इस देश में बहुत सारे समुदाय हैं, उनके बहुत सारे विश्वास है, आपस में टकराती मान्यताएं हैं और उनके बीच एक संवैधानिक हल निकालने की ज़रूरत है. वैसे संवैधानिक व्यवस्था की अवहेलना श्रीश्री रविशंकर के लिए नई बात नहीं है, यह यमुना किनारे उनके कार्यक्रम को लेकर एनजीटी के फ़ैसले पर उनके रवैये से साबित हो चुका है.

कुछ देर के लिए मान लें कि श्रीश्री रविशंकर के सद्भाव का ख़याल करते हुए अयोध्या में विवादित स्थल को राम मंदिर निर्माण के लिए छोड़ दिया जाए. लेकिन वे यह नहीं बताते कि यह गारंटी कौन देगा कि राम मंदिर के बाद काशी विश्वनाथ या मथुरा या किसी चौथे मंदिर का मसला लोगों की आस्था का प्रश्न नहीं बनेगा? या गोरक्षा से लेकर लव जेहाद तक पर पहले ज़ख़्मी और फिर आक्रामक होती आस्थाएं सड़कों पर बेगुनाहों की पिटाई नहीं करेंगी, घरों से लोगों को निकाल कर नहीं मारेंगी?

बिना संवैधानिक हस्तक्षेप के, एक समुदाय को लगभग डरा कर हासिल किया गया राम मंदिर क्या बहुसंख्यकवदी समुदाय को असहमति के नए इलाक़ों में दाखिल होने का नया दुस्साहस नहीं देगा? और क्या उचित न्यायिक हस्तक्षेप और संरक्षण के अभाव में इस देश का बड़ा समुदाय अपने-आप को उपेक्षित, अवमूल्यित और दोयम दर्जे की नागरिकता प्राप्त अवाम महसूस नहीं करेगा?

अगर देश में सबको बराबरी की संवैधानिक गारंटी है तो इसका एक मतलब भी यह है कि संविधान के दायरे में हर किसी को असहमत होने का अधिकार है. इस असहमति में अंतिम फ़ैसला बस सुप्रीम कोर्ट का ही चलेगा जो भारतीय संविधान और संसद के बनाए क़ानूनों के तहत काम करता है.

जहां तक राम मंदिर का मामला है, यह बहुत लोकप्रिय सवाल है कि राम मंदिर भारत में या अयोध्या में नहीं बनेगा तो कहां बनेगा? इससे फिर यह भ्रम पैदा होता है कि जैसे अयोध्या में राम के मंदिर के लिए जगह नहीं है जबकि इस देश में या अयोध्या के भीतर भी राम के ढेर सारे मंदिर हैं. एतराज़ राम का मंदिर उस ज़मीन पर बनाने पर है जिसकी मिल्कियत पर किसी और का दावा है. सुप्रीम कोर्ट का काम यही है कि वह इस दावे की पुष्टि करे या फिर इसे खारिज करे. यह काम दरअसल हाइकोर्ट को भी करना था लेकिन हाइकोर्ट ने सद्भाव के नाम पर ही ज़मीन के तीन हिस्से तीनों दावेदारों के नाम कर दिए, क्योंकि तब भी यह अंदेशा था कि किसी एक तरफ़ हुए फ़ैसले से अमन-चैन बिगड़ेगा. लेकिन जब अमन के नाम पर इंसाफ का रास्ता छोड़ते हैं तो अमन भी नहीं मिलता और इंसाफ़ तो मिलता ही नहीं.

इंसाफ़ का तकाज़ा यही है कि इस देश के कानूनों के तहत ही अयोध्या विवाद का फ़ैसला हो और सुप्रीम कोर्ट यह काम पूरी निर्ममता से करे. इसका जो भी नतीजा हो, अंततः वह इस देश में संविधान की सर्वोच्चता को कायम करेगा और अंतत आपसी मतभेद सुलझाने के संवैधानिक रास्ते को कुछ और मज़बूती देगा.

संकट यह है कि इस रास्ते में सिर्फ श्रीश्री रविशंकर ही नहीं आ रहे, छुपे तौर पर कुछ चुने हुए जन प्रतिनिधि और चुनी हुई सरकारें तक आ रही हैं. दरअसल इस देश के लोकतंत्र के सामने असली चुनौती यह नहीं है कि राम मंदिर बनता है या नहीं बनता है, बल्कि यह है कि उसके बनने या न बनने का रास्ता सुप्रीम कोर्ट से होकर जाता है या नहीं.अगर हम इतना भर सुनिश्चित कर सकें तो इस देश को सीरिया या इराक होने से बचा लेंगे.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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