यह सब इस बात के बावजूद है कि कवि के तौर पर मंगलेश डबराल आधुनिक हिंदी ही नहीं, भारतीय कविता के प्रथम पांक्तेय कवियों में थे. उनमें एक तरफ़ बहुत गहरी स्थानिकता थी तो दूसरी तरफ़ बहुत उदात्त विश्वजनीनता भी. वे एक तरफ बहुत मामूली, ठोस, पीछे छूटी हुई चीज़ों और घटनाओं के मानवीय मर्म खोज लेते थे तो थे तो दूसरी तरफ़ उन अमूर्त-अदृश्य और लगभग मायावी ताकत वाली अंतररराष्ट्रीय प्रक्रियाओं और अबूझ परियोजनाओं को भी अचूक ढंग से जान लेते थे जो ख़ुद को हर व्याख्या से परे कर लेती हैं. हारमोनियम, पिता का चश्मा, अपनों द्वारा ही चुरा ली गई बिस्मिल्ला खां की शहनाई या ऐसी ढेर सारी, बिल्कुल मामूली सी चीज़ों में छुपी हुई परतों को हटा कर वे जैसे मनुष्यता की एक तह खोज लेते थे, कभी-कभी उनमें दिखने वाली विडंबना का तार भी. साथ ही साथ वे बहुत चमकीले कपड़े पहने, महंगे चश्मे और घड़ियां लगाए आततायियों को भी पहचानने का हुनर जानते थे और मनुष्य-विरोधी सत्ता की चालाकियों को पकड़ने का सलीका भी.
वे बहुत पढ़ते थे और विश्व कविता के विपुल अध्ययन ने उनकी संवेदना को अपनी तरह की गहराई देने में मदद की थी. उन्होंने बहुत सारे कवियों के बहुत अच्छे अनुवाद किए थे. सच तो यह है कि वे खुद भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के कवि थे. उनकी कविता और
उससे अर्जित यश से ही उनके हिस्से बहुत सारी यात्राएं आई थीं और इन सबने उन्हें रचनात्मक स्तर पर समृद्ध किया. यह भी अनूठी बात थी कि जीवन भर पत्रकारिता करते हुए- शुष्क निरी गद्यमयता के पेशे में रह कर भी- वे प्रथमतः और अंततः कवि बने रहे, इसी रूप में पहचाने गए. हिंदी में दूसरे कवि संपादक भी हुए हैं- धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय इसकी मिसाल हैं, श्रीकांत वर्मा और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी- लेकिन वे सब जैसे दो हिस्सों में बंटे दिखते हैं. भारती ने तो संपादन के बाद जैसे अपना रचनात्मक लेखन स्थगित कर दिया और जो कुछ लिखा भी, उसमें पुराने लिखे की प्राणवत्ता नहीं, उसकी ठूंठ भर दिखती रही. रघुवीर सहाय ने भी अपने पत्रकार और कवि को बिल्कुल अलग रखा- हालांकि बेशक दोनों एक सी बौद्धिक प्रेरणा से संचालित होते थे. लेकिन मंगलेश डबराल की पत्रकारिता में जैसे कविता हमेशा बसी रही- शायद इसलिए भी कि अरसे तक उन्होंने साप्ताहिक पत्रिका का काम संभाला जिसे मूलतः साहित्यिक-सांस्कृतिक बनाए रखा और बाद में उसके विचार पक्ष से जुड़े. रोज़मर्रा की ख़बरों की जो पिसाई होती है- जिससे डेस्क का उपसंपादक और टीवी की आउटपुट टीम का आदमी सांस लिए बिना जूझता रहता है- उससे मंगलेश जी बचे रहे.
गद्य पत्रकारिता के लिए किए गए लेखन के अलावा व्यवस्थित रूप में उनके जीवन में संभवतः विदेश यात्राओं से ही आया. ‘एक बार आयोवा' जैसी छोटी सी मगर सुंदर किताब ने सबका ध्यान इस तथ्य की ओर खींचा कि उनका कवि बहुत अच्छा गद्यकार भी है. इत्तिफाक़ से इसी साल यात्रा-संस्मरणों पर ही केंद्रित उनकी एक और किताब आई- ‘एक सड़क एक जगह'- जिसमें दुनिया के कई शहरों को वे एक नए बाइस्कोप से दिखाते हैं.
बहरहाल, ऊपर जिस विडंबना के ज़िक्र से यह लेख शुरू हुआ था, वहां पर लौटे. मंगलेश डबराल की मृत्यु में उनके जीवन की विडंबना भी झांकती है. बीमारी या बीमारी के अंदेशे के प्रति जानलेवा लापरवाही भरा जो रुख उन्होंने प्रदर्शित किया, शायद वह उनका ही नहीं, भारत में उन बहुत सारे मध्यवर्गीय लोगों के जीने का अभ्यास हो चुका है जो उस उच्च मध्यवर्गीय जमात में शामिल नहीं है जिसके लिए बहुत विपुल साधनों से लदी-फदी, बहुत अश्लील सी जीवन शैली वाला समाज बनाया जा रहा है और जिनके लिए देश के सारे होटल, मॉल, अस्पताल और निजी स्कूल-कॉलेज खोले जा रहे हैं. उनके मित्रों ने उनकी आर्थिक मदद के लिए जो अपील जारी की, उसमें शायद वह पुरानी सामाजिकता का ख़याल रहा होगा जिसमें लोग अभावों की नदी को साझेदारी के पुल से पार करते थे. लेकिन नए ज़माने में एक तरफ इस कोशिश को ख़ासा समर्थन मिला तो दूसरी ओर कुछ हेठी से भी देखा गया. इस सवाल का जवाब मगर किसी के पास नहीं था कि ऐसे समय में हिंदी का एक कवि बीमार पड़ जाए और उसके इलाज में लाखों का ख़र्च आए तो वह पैसे कहां से लाए.
लेकिन इस चर्चा में विषयांतर का ख़तरा है. मूल विषय पर लौटें. मंगलेश डबराल के देहावसान पर हिंदी के साहित्यिक समाज का सोशल मीडिया बिल्कुल शोक में डूबा रहा. मगर इस समाज की तादाद क्या होगी? अधिकतम दस-पंद्रह हज़ार जिसमें सब एक-दूसरे के मित्र या अनुसरणकर्ता हैं. इसके बाहर जैसे किसी को किसी शोक ने छुआ ही नहीं. हिंदी के अख़बारों को देख जाइए- इस निधन से कोई विचलित नहीं हुआ. टीवी चैनलों पर किसी हाशिए की तरह ख़बर और खो गई. कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं बेशक आने वाले दिनों में उन पर विशेषांक निकालेंगी, लेकिन एक वृहत्तर समाज के रूप में अपने कवि के न रहने की जैसे हिंदी समाज को खबर ही नहीं है, उसका दुख जैसे किसी को छूता ही नहीं. बेशक, इसका वास्ता कुछ इस बात से भी है कि मंगलेश डबराल अंततः एक पीछे छूटती हुई भाषा के कवि थे- उस हिंदी के, जो कभी अपने सांप्रदायिक चरित्र के लिए धिक्कारी जाती है, कभी अपनी पिछड़ी समझ के लिए. अपने औपनिवेशिक अतीत की मारी यह हिंदी अंग्रेज़ी के नव-साम्राज्यवादी दबाव में अपना बचा-खुचा
आत्मविश्वास भी खो चुकी है और उसके लिए अंग्रेज़ी के बहुत मामूली किस्म के लेखक ही असली लेखक हैं और उनका शोक ही असली शोक है.
लेकिन मंगलेश डबराल या किसी भी कवि के जीवन या उसकी मृत्यु की अवहेलना की बस एक वजह है. सच तो यह है कि हमारे सार्वजनिक जीवन में भाषा, साहित्य, संस्कृति, शब्द और जीवन के प्रति ही कोई सरोकार बचा ही नहीं रह गया है. हम बहुत ही सतही भाषा बोलने वाले समाज रह गए हैं- बल्कि यह भाषा लगातार फूहड़ और अश्लील होती जा रही है. हमारी चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि छूने वाली पंक्तियां हमें नहीं छू पातीं, बस गुदगुदाने वाले वाक्य हमारा मनोरंजन करते हैं. हमें चुभते हुए शब्द भी नहीं चाहिए, बस जुगुप्सा से भरा मनोरंजन चाहिए और ऐसा सपाट जीवन चाहिए जो बाहर से ख़ूब रंगीन दिखे और भीतर लगातार खोखला बना रहे. इस जीवन में न स्मृति बचे, न संबंध बचें और न ही कोई समवेदना बचे.
ऐसे समाज में किसी की कविता क्या करती? मंगलेश डबराल की कविता क्या कर रही थी? ठीक है कि वह आततायियों को आईना दिखाने वाली कविता थी, लेकिन क्या आततायियों को आईना देखने की फ़ुरसत थी? ठीक है कि वह दरिंदों को भी शर्मिंदा होने को मजबूर कर सकती थी, लेकिन इतनी सी शर्म के लिए भी फ़ुरसत बची थी? उनके भीतर बस इतनी सी विनम्र इच्छा थी कि ‘कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा'.
कुल मिलाकर हम जैसे-जैसे खाते-पीते समाज में बदल रहे हैं, वैसे-वैसे सोचते-समझते-महसूस करते मनुष्य कम होते जा रहे हैं. संवेदनहीनता बढ़ी है, लालच बढ़ा है, क्रूरता बढ़ी है, तंगनज़री बढ़ी है, नफ़रत बढ़ी है. इन सबके विरुद्ध कविता का प्रतिरोध जैसे लगातार कमज़ोर पड़ रहा है.
हालांकि भाषा या कविता के इस व्यर्थता-बोध के बावजूद यह एहसास जाता नहीं कि अंततः रास्ता कोई और नहीं है. मंगलेश डबराल कविता न लिखते तो क्या करते? विकट और विराट ईश्वरों और दरिंदों के मुक़ाबले वे अपनी मनुष्यता का संधान न करते तो क्या करते. अन्याय को पहचानने का सयानापन कई जगह से मिल सकता है, लेकिन अन्याय से आंख मिलाने का साहस और अन्याय न करने का मनुष्योचित विवेक अगर सबसे ज़्यादा कहीं से मिल सकता है तो वह कविता है. मंगलेश डबराल का जाना फिर से याद दिलाता है कि हम एक बर्बर होती दुनिया के बीच हैं, लेकिन इस बर्बरता से लड़ना भी हमारा कर्तव्य है. वीरेन डंगवाल के कविता संग्रह ‘दुष्चक्र में स्रष्टा' में एक कविता शामिल है- ‘रात गाड़ी'. यह मंगलेश के नाम लिखी गई चिट्ठी है. अब वीरेन डंगवाल भी यह दुनिया छोड़ चुके हैं और मंगलेश डबराल भी, लेकिन तब भी
उन्होंने जो कहा था, वह अब तक प्रासंगिक है- ‘फिलहाल तो यही हाल है मंगलेश / भीषणतम मुश्किल में दीन और देश / संशय खुसरो की बातों में / ख़ुसरो की आंखों में डर है / इसी रात में अपना घर है.‘
इस रात की पहचान हम सबकी विरासत है. इस काम में मंगलेश डबराल की कविता हमारी कुछ मदद कर सकती है. वह ‘रैन भई चहूं देस' कहने वाले खुसरो का हाथ थाम कर हमें साथ चलने की प्रेरणा दे सकती है. वह लगातार मुश्किल होते समय में कविता के प्रति हमारी सहज आस्था बनाए रह सकती है. यह उनके होने का मोल है जो उनके जाने के यथार्थ पर भारी है.
(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...)
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