कई बार असावधानी से पढ़ते हुए कुंवर नारायण किसी को बहुत मामूली कवि लग सकते हैं- ऐसे ठंडे कवि जो काव्योचित ऊष्मा पैदा नहीं करते. उनमें सूक्तियां चली आती हैं, व्यंग्य चला आता है, बहुधा सामान्य ढंग से कही गई बातें चली आती हैं. मगर ध्यान से देखें तो यही मामूलीपन कुंवर नारायण को बड़ा बनाता है. उनको पढ़ते हुए अचानक हम पाते हैं कि यह सिर्फ कविता नहीं है, एक पूरा सभ्यता विमर्श है जो अपने निष्कर्षों को लेकर बेहद चौकन्ना भी है. यह अनायास नहीं है कि मिथकों और इतिहास को अपनी कविता का रसायन बनाते हुए भी कुंवर नारायण उनके भव्य अर्थों के प्रलोभन में नहीं फंसते, उन्हें बिल्कुल समकालीन और आधुनिक मूल्यों की कसौटी पर कसते हैं. ऐसा भी नहीं कि वे किसी 'पॉलिटिकल करेक्टनेस' को निभाने की कोशिश करते हों, वे बस उन्हें एक ज़रूरी और छूटा हुआ अर्थ देते हैं जिससे कविता अचानक प्रासंगिक हो उठती है.
यमराज तक से प्रश्न पूछने का साहस रखने वाला नचिकेता उन्हें लुभाता है, लेकिन 'आत्मजयी' जैसी कृति रचते हुए वे उसकी धार्मिक या दार्शनिक व्याख्याओं से ज़्यादा उनके मानवीय आशयों को उभारने की कोशिश करते हैं. उन जैसा कवि ही लिख सकता है- '
मेरे उपकार-मेरे नैवेद्य
समृद्धियों को छूते हुए
अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को
वह यदि अस्पष्ट भी हो
तो ये प्रार्थनाएं सच्ची हैं...इन्हें
पनी पवित्रताओं से ठुकराना मत
चुपचाप विसर्जित हो जाने देना
समय पर, सूर्य पर.'
लेकिन यह सच है कि मेरी तरह के पाठक को मिथकों और इतिहास की पुनर्परिभाषा में लगे कुंवर नारायण के मुक़ाबले वह कवि लुभाता है जो समकालीन समय की सच्चाइयों से मुठभेड़़ करता और अपनी कविता को एक मानवीय गरिमा प्रदान करता है. इस लगभग बर्बर और लहूलुहान समय में वे कविताएं जैसे चुप्पी का प्रतिरोध रचती हैं. लेकिन इस चुप्पी में इतना बल, इतना वैदिग्ध्य है कि बर्बरता की प्रतिनिधि शक्तियां जैसे तिलमिला उठती हैं.
अयोध्या को लेकर चल रही कलुषित राजनीति के बीच बहुत सारी मार्मिक कविताएं लिखी गईं. लेकिन कुंवर नारायण ने जब लिखा तो राम की करूणा को समकालीन समय की विडंबना के साथ जोड़कर एक ऐसा पाठ तैयार कर दिया जिसमें अपनी सहजता की वजह से लोकप्रिय होने की संभावना भी रही और सार्थक होने के भी. 'अयोध्या 1992' नाम की कविता में वे लिखते हैं-
'हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस-बीस नहीं
अब लाखों सिर-हाथ हैं
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य.'
यह कविता और आगे जाती है- बताती हुई कि अयोध्या अब योद्धाओं की लंका है और राम को सलाह देती हुई कि वे त्रेता में लौट जाएं.
हालांकि ऐसे राजनीतिक आशयों की इतनी मुखर कविताएं कुंवर नारायण के यहां कम हैं. वे राजनीतिक संकीर्णताओं के प्रत्युत्तर भी अपनी कविता में कहीं ज़्यादा बड़े मानवीय अर्थ भर कर देते हैं जिसके आगे अचानक राजनीतिक पक्षधरताएं ओछी और तुच्छ जान पड़ती हैं.
भाषिक-सांप्रदायिक आधारों पर जब नफ़रत की राजनीति बहुत तेज़ होती जा रही है तो कुंवर नारायण लिखते हैं-
'एक अजीब सी मुश्किल में हूं इन दिनों
मेरी भरपूर नफ़रत कर सकने की ताकत
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही!
अंग्रेज़ों से नफ़रत करना चाहता
(जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया)
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए, किसी की कुछ चलती है
उनके आगे?'
कुंवर नारायण लिखते हैं कि भरपूर नफ़रत करके जी हल्का करने की कोशिश में उल्टा होता है, कोई ऐसा मिल जाता है, जिससे प्यार किए बिना नहीं रहा जाता, और अंत में अपने अंदाज़ में कहते हैं, 'प्रेम किसी दिन मुझे स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा.'
कुंवर नारायण की कविता का सबसे रोशन पक्ष उसमें मिलने वाली उजली मनुष्यता है. इस रूप में वे हिंदी के संभवतः सबसे भद्र कवि हैं- अपने व्यक्तित्व में भी और अपनी रचनाशीलता में भी. एक आभिजात्य उनमें हमेशा से रहा जो उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से उन्हें मिला, लेकिन उनसे मिलकर अक्सर लगता था कि यह आभिजात्य आतंकित करने वाला नहीं, अपने पर सकुचाया हुआ आभिजात्य है- ख़ुद को अनुपस्थित रखने की कोशिश करता हुआ आभिजात्य. वे जैसे हर वक़्त अपनी मनुष्यता का संधान करना चाहते हैं.
यह अनायास नहीं है कि उनका ज़िक्र छिड़ते ही सबसे पहले उनकी इन पंक्तियों का ध्यान आता है-
'अबकी अगर लौटा तो
वृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूंछें नहीं
कमर में बांधे लोहे की पूंछें नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आंखों से
अबकी अगर लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा.'
यह उजली मनुष्यता दरअसल उस मामूलीपन से पैदा होती है जिसका ज़िक्र इस टिप्पणी की शुरुआत में है. यहां वे बिल्कुल पोलिश कवयित्री शिंबोर्स्का की याद दिलाते हैं- छोटी-छोटी चीज़ों की सहजता बनाए रखते हुए उसके भीतर की उदात्तता को निकाल लाने का दोनों का कौशल जैसे बिल्कुल समान है. लेकिन यह मनुष्यता बस किसी सदायशता से पैदा नहीं होती वह लगातार एक दार्शनिक अनुसंधान का नतीजा है जिसके कई स्तर हैं. एक स्तर पर वे पुराणों और इतिहास से जिरह करते दिखाई पड़ते हैं और दूसरे स्तर पर ग़ालिब और कई बड़े कवियों से जैसे लगातार संवादरत- ज़िंदगी को फानी या बेमानी बताने का सूफ़ी दीवानापन उनमें भले न रहा हो, लेकिन मौत से पहले जीवन के बवाल से आत्मा को निकाल ले जाने की समझ उनमें बहुत गहरी थी और उनकी रचनाशीलता को एक अलग दार्शनिक आयाम देती थी.
आत्मजयी में उन्होंने लिखा था-
'अपनी असारता पर
कुछ इस तरह आश्चर्य किया
मानो जीवन मृत्यु से पहले का
बवाल हो
मरी हुई चीज़ों में समाकर केवल
आत्मा के निकल जाने का सवाल हो.'
मनुष्यतर होकर लौटने का वादा करने वाले इस महाकवि को अंतिम प्रणाम.
प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं
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