जिनका कोई देश नहीं, उनका ब्राज़ील है

फुटबॉल के आईने में देखें तो अमेरिका दुनिया में याद रखने लायक मुल्क भी नहीं दिखता, जबकि ब्राज़ील और अर्जेंटीना महाबली नज़र आते हैं. रूस-चीन भी फिसड्डी दिखते हैं और चिली-नाइजीरिया बड़े देश नज़र आते हैं

जिनका कोई देश नहीं, उनका ब्राज़ील है

वीरवार से फीफा वर्ल्ड कप का आगज है

रूस में लगा फुटबॉल मेला अगले एक महीने तक बहुत सारे भारतीयों की नींद उड़ाता रहेगा. लोग देर रात तक मैच देखेंगे और सुबह ऊंघते हुए अपने दफ्तरों में लियोनल मेसी के कमाल पर 'वाह-वाह' या क्रिस्टियानो रोनाल्डो की चूक पर 'आह-आह' करेंगे. कोई ब्राज़ील को जिताएगा, तो दूसरा याद दिलाएगा कि ब्राज़ील का ज़माना गया. किसी को अर्जेंटीना और मेसी की फ़िक्र होगी, तो कोई पश्चिमी यूरोप के बढ़ते दबदबे का ज़िक्र करेगा.

यह हाल उस विश्वकप का है, जिसमें भारत का कोई प्रतिनिधित्व नहीं. लेकिन खेलों के ये मुकाबले फिर याद दिलाते हैं कि राष्ट्र की बनाई हुई हमारी सरणियां कितनी भंगुर हैं और कैसे वे टूटती चलती हैं. फुटबॉल के आईने में देखें तो अमेरिका दुनिया में याद रखने लायक मुल्क भी नहीं दिखता, जबकि ब्राज़ील और अर्जेंटीना महाबली नज़र आते हैं. रूस-चीन भी फिसड्डी दिखते हैं और चिली-नाइजीरिया बड़े देश नज़र आते हैं. यही हाल क्रिकेट के साथ है. वेस्ट इंडीज़ कोई देश नहीं है, लेकिन क्रिकेट की दुनिया में कभी वह सबके दिलों और मैदानों पर राज करने वाला मुल्क रहा. भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका इस मैदान में बिल्कुल एक जैसे नज़र आते हैं. दशकों की हिंसा से टूटा-फूटा अफ़गानिस्तान ख़ुद को क्रिकेट के ज़रिये सहेज रहा है. आज उसके लिए ऐतिहासिक दिन है. बेंगलुरू में उसने अपना पहला टेस्ट मैच खेलना शुरू किया है.

फुटबॉल पर लौटते हैं. कभी कहते थे कि जिसका कोई देश नहीं होता, उसका ब्राज़ील होता है. पेले भारत के लिए फुटबॉल खिलाड़ी कम और एक किंवदंती ज़्यादा रहा. अब वक्त बदल रहा है. कोलकाता के एक चाय बेचने वाले ने मॉस्को जाकर वर्ल्डकप देखने के लिए पैसा जुटाया, लेकिन रकम कम पड़ गई. तब उसने अपने मकान को ही अर्जेंटीना के रंगों में रंग लिया. कल्पना करें कि मामला वर्ल्डकप फुटबॉल का नहीं, क्रिकेट का होता और दीवाना अर्जेंटीना की जगह पाकिस्तान का होता, तब क्या होता...? शायद उस पर मुकदमा हो गया होता. हमारे राष्ट्रवादियों को यह अपने मुल्क की तौहीन लगती. जैसे सचिन तेंदुलकर के किसी पाकिस्तानी दीवाने का जुनून पाकिस्तानियों को अपनी तौहीन लगा था और उसे जेल भेज दिया गया था.

 वैसे फुटबॉल वर्ल्डकप से अधिसंख्य भारतीयों का रिश्ता 1986 के बाद बना. तब पहली बार देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों में दूरदर्शन केंद्र खुले थे और पहली बार मैक्सिको वर्ल्डकप का प्रसारण सब देख पा रहे थे. मेरी पीढ़ी के जिन लोगों ने वह वर्ल्डकप देखा है उनके लिए ब्राज़ील और फ्रांस के बीच हुआ क्वार्टरफाइनल का मु़काबला असली फ़ाइनल रह गया. एक तरफ़ सोक्रेटीज़ और दूसरी तरफ़ प्लातीनी ने उस मैच को ऐसे रोमांचक और कलात्मक मुक़ाबले में बदल डाला था, जो अब सबकी स्मृति में दर्ज है. हालांकि उस विश्वकप का फ़ाइनल भी ऐतिहासिक रहा. डिएगो माराडोना ने इंग्लैंड के ख़िलाफ़ दो गोल किए - एक गोल का सेहरा ईश्वर के हाथ को दिया, लेकिन दूसरे गोल का करिश्मा अकेले माराडोना के पांवों का था. वह गोल न होता, तो उस वर्ल्डकप की ख्याति भी कुछ कम हो गई होती और माराडोना की चमक भी.

बहरहाल, उसके बाद भी वर्ल्डकप होते रहे, किस्से दोहराए जाते रहे, कहानियां बनती रहीं, नए सितारे आए, बेकहम का हुनर चर्च में आया, जिदान का हेड-बट मशहूर हुआ, क्रिस्टियानो रोनाल्डो, मेसी और नेमार चले आए - अब एक बिल्कुल नया सितारा मोहम्मद सालाह उभरा है, जिसे हाल में चोट भी लग गई. बेशक, खेलों का अपना राष्ट्रवाद होता है, जो भारत-पाक या ऑस्ट्रेलिया-इंग्लैंड के क्रिकेट मुक़ाबलों में दिखता है. वे भी राष्ट्रीय गर्व की अभिव्यक्ति होते हैं. लेकिन अंततः वे अंधराष्ट्रवाद का ताना-बाना तोड़ने में कामयाब होते हैं. बड़े नायक सरहदों के पार चले जाते हैं, मुल्कों के भूगोल लोगों के दिलों में बदलते रहते हैं. खेलों की दुनिया ने राष्ट्रवाद को बार-बार धता बताई है. दुनिया दो-दो विश्वयुद्ध लड़ चुकी, लेकिन ओलिम्पिक चलते रहे, दुनिया के लिए ओज़ोन परत का काम करते रहे.

हालांकि खेलों की दुनिया में एक दूसरा ख़तरा अपने चरम पर है - वह बाज़ारवाद का है. मैच फिक्सिंग, बेटिंग, भ्रष्टाचार और ड्रग्स से जैसे खेलों की दुनिया त्रस्त है. कुछ साल पहले फीफा के सर्वोच्च अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे और बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां भी हुईं. तब लगा था कि फुटबॉल का महाकुंभ ख़तरे में न पड़ जाए. लेकिन यह सब पीछे छूट गया, खेल जारी है. दुनिया यह खेल देख रही है. सब इसके जानकार नहीं हैं. बड़ी तादाद मेरी तरह के लोगों की है, जो टीवी पर पांच मिनट मैच देखने के बाद जान पाते हैं कि कौन-सी टीम मैदान में किस तरफ़ है. लेकिन सबका मन कहीं न कहीं इससे जुड़ा हुआ है. शायद इसलिए कि अंततः खेल सभ्यता की वे सबसे पुरानी देन हैं, जो हमें जोड़ते हैं, हमें साझेदारी का सबक सिखाते हैं, एक-दूसरे को तौलने का मौका देते हैं और एक-दूसरे को पीछे छोड़ने का उत्साह भी. वे राजनीति और धर्म के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा पुराने, कहीं बेहतर और कहीं ज़्यादा मानवीय उपक्रम हैं. यह वर्ल्डकप कोई भी जीते, फुटबॉल की दुनिया में हमारी तरह के लोगों का देश हमेशा ब्राज़ील हुआ करता है.


प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
 
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