नरेंद्र मोदी को गठबंधन क्यों डराता है?

मज़बूत सरकारों और ताकतवर प्रधानमंत्रियों के साथ यह ख़तरनाक बात होती है कि वे ख़ुद को देश की जगह स्थापित करने लगते हैं. नरेंद्र मोदी फिलहाल यही करते दिखाई पड़ रहे हैं.

नरेंद्र मोदी को गठबंधन क्यों डराता है?

इसमें शक नहीं कि बीजेपी के ख़िलाफ़ यूपी से बिहार और बंगाल तक जो महागठबंधन तैयार करने की बात हो रही है, उसके बहुत सारे संकट हैं. अलग-अलग राज्यों में सीटों के बंटवारे की चुनौती है, एक-दूसरे के साथ हितों के टकराव हैं, अतीत के अविश्वास हैं, और सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा. इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि आख़िर बीजेपी के ख़िलाफ़ कुल कितने गठबंधन हैं- हैदराबाद में एक गठबंधन है, यूपी में दूसरा, बिहार में तीसरा और बंगाल में चौथा. कहीं वाम मोर्चा किसी गठबंधन के साथ है तो कहीं वह किसी गठबंधन के विरुद्ध है.

लेकिन जब गठबंधन की राजनीति इतने अंतर्विरोधों और इतनी अनिश्चितता से भरी है तो फिर बीजेपी और उसकी नेतृत्व पंक्ति इससे घबराई हुई क्यों दिखती है? मोदी इस गठबंधन को देश के विरोध में की गई साज़िश बताते हैं तो प्रकाश जावड़ेकर से लेकर अरुण जेटली तक इसे मोदी और अराजकता के बीच चुनाव की जंग ठहराते हैं. यह घबराहट किस बात की है? बीजेपी को तो आश्वस्त होना चाहिए कि इस नेतृत्वहीन-विचारहीन गठबंधन को वह आसानी से परास्त कर देगी. अगर यह आश्वस्ति उसके पास नहीं है तो इसकी वजह दरअसल गठबंधन की उस प्रकृति में है जिसे प्रधानमंत्री भले देशहित के ख़िलाफ़ बता रहे हों, लेकिन जो भारतीय राजनीति की वह अपरिहार्य मजबूरी है जिसके लाभ समय-समय पर बीजेपी भी लेती रही है.

गठबंधन की राजनीति को देशहित के ख़िलाफ बताते हुए नरेंद्र मोदी कई तथ्य एक साथ छुपा लेते हैं. पहला तो यही कि उनकी भी सरकार दरअसल गठबंधन की सरकार है. इस लिहाज से वे अकेले नहीं हैं जिनके ख़िलाफ़ मोर्चा बनाया जा रहा है. दूसरी बात यह कि उनके गठबंधन में भी अंतर्विरोध कम नहीं हैं. शिवसेना लगभग रोज़ सरकार को गालियां देती है. पासवान और राजभर और पटेल बाहर आने की धमकी देते हैं. तीसरी बात यह कि बीजेपी ने भी उन दलों के साथ तालमेल किया है जो कभी-कभी उसके और मोदी के घोर विरोधी रहे हैं. बीजेपी के गठबंधन में ही रामविलास पासवान हैं जिन्होंने 2002 की गुजरात हिंसा के विरोध में एनडीए से बगावत की थी और यहीं वे नीतीश कुमार भी हैं जो नरेंद्र मोदी को बिहार की मदद के भेजे पैसे बस इस बात से नाराज़ होकर लौटा चुके हैं कि बीजेपी ने नीतीश और मोदी की साझा तस्वीर का इस्तेमाल किया था.

यानी यह अंततः दो या उससे अधिक गठबंधनों का ही टकराव है- किसी एकला चलो रे वाले सिद्धांत पर अमल करने वाले नेता और सिद्धांतहीन गठबंधन का नहीं. फिर परेशानी क्या है? परेशानी वह अतीत है जो मोदी जी को डरा रहा है. बीजेपी इस अतीत में साझेदार रही है. साठ के दशक में गैरकांग्रेसवाद के नाम पर लोहिया ने गठबंधन राजनीति का जो सूत्रपात किया था, उसमें जनसंघ को भी साथ लेने में गुरेज नहीं किया था. और सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी को हराने के लिए जयप्रकाश नारायण ने जो साझा जनता पार्टी बना डाली थी, उसमें भी जनसंघ था. यही नहीं, तब इंदिरा गांधी के समर्थक ठीक वही भाषा बोल रहे थे जो अब अरुण जेटली बोलते दिखाई पड़ रहे हैं- कि देश को अराजकता और मोदी के बीच चुनाव करना है.

1977 का जनता पार्टी का प्रयोग फिर भी तकनीकी अर्थों में गठबंधन की राजनीति का प्रयोग नहीं था, लेकिन राजीव गांधी की सरकार से मोर्चा लेने के लिए 1989 के आम चुनावों में बीजेपी ने जनता पार्टी के साथ तालमेल किया था. उन चुनावों में राजीव गांधी की कांग्रेस सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी- उसे 200 से ज़्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन सरकार वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे ने बनाई और उसे एक तरफ़ से बीजेपी ने और दूसरी तरफ़ से लेफ्ट फ्रंट ने समर्थन दिया. तब मोदी और जेटली इस हालत और हैसियत में शायद नहीं रहे होंगे कि उस सिद्धांतविहीन तालमेल का विरोध कर सकें. या बीजेपी सत्ता से अपनी करीबी के मौक़ों पर सिद्धांत भूल जाती है?

वैसे गठबंधन की राजनीति का पहला वास्तविक प्रयोग केंद्र की राजनीति में 90 के दशक में हुआ. 1996 में अच्छे-ख़ासे अल्पमत में रहने के बावजूद बीजेपी ने सरकार बनाई और तेरह दिन दावा करती रही कि वह समर्थन जुटा लेगी. उन दिनों वाजपेयी के क़रीबी प्रमोद महाजन का यह वाक्य बहुत मशहूर हुआ था कि प्रमोद और पेप्सी अपने राज़ नहीं बताते. जब न प्रमोद चले और न पेप्सी चली, तब अटल बिहारी वाजपेयी को खयााल आया कि उनकी पार्टी तो सिद्धांतों की पार्टी है, वह समर्थन नहीं मांगेगी. हक़ीकत यह थी कि उन चुनावों के बाद बना संयुक्त मोर्चा इतना ठोस साबित हुआ कि बीजेपी उसे हिला नहीं सकी. यही नहीं, जब संयुक्त मोर्चे की देवगौड़ा सरकार को इसके बाद विश्वास मत हासिल करना था, तब बीजेपी रोज यह दावा करती रही कि यह सरकार गिर जाएगी, लेकिन 1996 से 1998 के बीच वह सरकार दो-दो प्रधानमंत्रियों- देवगौड़ा और गुजराल के साथ चलती रही और वह अपने अंतर्विरोध से नहीं, बल्कि कांग्रेस की अनुचित मांग से गिरी. यह शायद पहला उदाहरण था जब सत्ता गंवाने के ख़तरे के बावजूद एक गठबंधन ने अपने धर्म का पालन करना उचित समझा. तब कांग्रेस इतना भर चाहती थी कि डीएमके को संयुक्त मोर्चे से बाहर रखा जाए, लेकिन संयुक्त मोर्चे ने यह मांग नहीं मानी. चाहे तो बीजेपी याद कर सकती है कि इस गठबंधन में सरकार चुनने के दौरान कम से कम तीन नेताओं- विश्वनाथ प्रताप सिंह, ज्योति बसु और चंद्रबाबू नायडू तक- ने प्रधानमंत्री होने की पेशकश अलग-अलग वजहों से ठुकराई थी.

जिस गठबंधन को वाजपेयी चम्मच से भी छूने को तैयार नहीं थे, महज दो साल बाद उस गठबंधन को वे गले लगाते दिखे. अगले पांच साल उन्होंने ममता-जयललिता से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक को मनाने-जोड़े रखने के लिए तमाम जुगत की. 2004 में जब कांग्रेस ने एक अन्य गठबंधन की मदद से उसे पराजित किया तब तक वह शाइनिंग इंडिया के अपने ही प्रचार में खोई रही. लेकिन भारतीय राजनीति में गठबंधन की अपरिहार्यता की उस समझ ने दस साल बाद 2014 में बीजेपी को यह विवेक दिया कि वह अकेले बहुमत हासिल करने के बावजूद गठबंधन के सहारे ही चली.

लेकिन अब गठबंधन राजनीति नरेंद्र मोदी को अपनी दुश्मन लग रही है- शायद इसलिए कि उन्हें एहसास हो रहा है कि गठबंधन की चाहे जितनी भी शक्लें हों, उसका बीजेपी विरोध का एजेंडा वाकई उनकी नैया डुबो सकता है. यूपी में अखिलेश-माया, बिहार में तेजस्वी-राहुल या दूसरे राज्यों में ऐसे ही गठजोड़ उसकी मुसीबत बन सकते हैं. दिलचस्प यह है कि ऐसी किसी गठबंधन सरकार की संभावना को भी वे इस तर्क से खतरनाक बता रहे हैं कि इससे एक कमज़ोर सरकार बनेगी- एक मजबूर सरकार.

जबकि अतीत बताता है कि ज़रूरी नहीं कि मज़बूत सरकारों से देश मज़बूत होता हो. इंदिरा गांधी की मज़बूत सरकार ने इमरजेंसी लगाई थी, राजीव गांधी की मजबूत सरकार के समय कई गलत फ़ैसले किए गए, जिनमें शाह बानो और राम मंदिर का दरवाज़ा खुलवाने का फ़ैसला भी था. नरेंद्र मोदी की मज़बूत सरकार के समय नोटबंदी जैसा बेतुका आर्थिक फ़ैसला हुआ और गौरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग की प्रवृत्ति का विस्तार दिखा. जबकि वीपी सिंह की कमज़ोर सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की और मनमोहन सिंह की गठबंधन की सरकार ने मनरेगा और सूचना का हक़ जैसे अहम कानून बनाए. चाहें तो याद कर सकते हैं कि कांशीराम अक्सर कहा करते थे कि उन्हें मज़बूत नहीं, मजबूर सरकारें चाहिए. मज़बूत सरकारों के समय दलितों को ज़्यादा मार पड़ती है.

तो मज़बूत सरकार का मतलब मजबूत देश नहीं होता. जिस तरह ताकतवर प्रधानमंत्री के विरोध का मतलब देश का विरोध नहीं होता. दरअसल मज़बूत सरकारों और ताकतवर प्रधानमंत्रियों के साथ यह भी ख़तरनाक बात होती है कि वे ख़ुद को देश की जगह स्थापित करने लगते हैं. नरेंद्र मोदी फिलहाल यही करते दिखाई पड़ रहे हैं. लेकिन गठबंधन से डर रहे हैं और उसे देशविरोधी बता रहे हैं.

 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

 

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