नागरिकता कानून देश का डीएनए बदलने की कोशिश

नागरिकता संशोधन बिल एक खतरनाक बिल है. यह बिल भारतीय राष्ट्र राज्य की मूल अवधारणा पर चोट करता है. यह उस प्रस्तावना की खिल्ली उड़ाता है जो हर भारतीय नागरिक को धर्म, जाति, भाषा या किसी भी भेदभाव से परे हर तरह की समता का अधिकार देती है.

नागरिकता कानून देश का डीएनए बदलने की कोशिश

नागरिकता संशोधन बिल एक खतरनाक बिल है. यह बिल भारतीय राष्ट्र राज्य की मूल अवधारणा पर चोट करता है. यह उस प्रस्तावना की खिल्ली उड़ाता है जो हर भारतीय नागरिक को धर्म, जाति, भाषा या किसी भी भेदभाव से परे हर तरह की समता का अधिकार देती है. क्योंकि यह बिल पहली बार धर्म के आधार पर कुछ लोगों के लिए नागरिकता का प्रस्ताव करता है, और इसी आधार पर कुछ लोगों को बाहर रखे जाने की बात करता है. यह क़ानून इस देश के डीएनए को बदलने की कोशिश है.

निश्चय ही किसी राष्ट्र के भीतर यह संवेदनशीलता ज़रूरी है कि अगर कोई वैध कारणों से शरण मांगे तो उसे शरण दी जाए. आज़ादी के बाद इसी मानवीय आधार पर भारत ने दलाई लामा को शरण ही नहीं दी, उनको निर्वासित सरकार के लिए जगह भी दी. ऐसी शरण के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए, कोई नया क़ानून नहीं. लेकिन सरकार जो क़ानून ला रही है उसमें उन अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने का प्रावधान होगा जो हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन या पारसी होंगे. अगर किसी वैध वजह से- किसी भी तरह के उत्पीड़न से त्रस्त- कोई मुस्लिम यह शरण चाहता है तो उसे नहीं मिलेगी. इसके लिए फिलहाल 2014 के साल की मियाद तय की गई है. यानी 2014 से पहले जो लोग अवैध प्रवासी हैं, उनको यह नागरिकता मिलेगी, लेकिन क्या इसी को आधार बनाकर आने वाले दिनों में भी ऐसे प्रवासी शरण नहीं चाहेंगे?

यह बिल पेश करने वाली सरकार और बीजेपी से जुड़े सांसदों का तर्क अजीब है. उनका कहना है कि बाक़ी धर्मों के लिए तो बहुत सारे देश हैं, हिंदुओं के लिए सिर्फ़ भारत है. यह किसी राजनीतिक दल का नहीं, किसी धार्मिक समूह का तर्क लगता है. फिर इस तर्क में भी दरारें हैं. हिंदुओं को दुनिया के किस देश में जगह नहीं मिल रही है? सच्चाई यह है कि आज की तारीख़ में भारतीय लोग दुनिया के सबसे बड़े प्रवासी हैं- यानी उन्हें सबसे ज़्यादा दूसरे देशों में नागरिकता मिल रही है या वहां उनके आवेदन पड़े हैं. संयुक्त राष्ट्र की जनसंख्य़ा शाखा ने पिछले दिनों जो आंकड़े जारी किए, उनके मुताबिक क़रीब पौने दो करोड़ भारतीय दूसरे देशों में रह रहे हैं. जाहिर है, इनमें बहुत बड़ी तादाद हिंदू भारतीयों की ही है. भारत के बाद मैक्सिको वह दूसरा देश है जिसके नागरिक दूसरे देशों में हैं- मगर बस एक करोड़ दस लाख. चीन और पीछे है. अपनी शरणार्थी मजबूरियों के लिए चर्चित सीरिया भी इस मामले में पीछे है. तो यह तर्क कि हिंदुओं को किस देश में जगह मिलेगी, एक सफे़द झूठ और भावनात्मक भयादोहन से ज्यादा कुछ नहीं है. दुनिया भर में भारतीय जा रहे हैं और जगह पा रहे हैं. अमेरिका में ग्रीन कार्ड का आवेदन देने वालों में भी सबसे बड़ी तादाद भारतीयों की है. इन भारतीयों का धर्म देख लीजिए, पता चल जाएगा कि भारत की तरह का 'हिंदू बनाया जा रहा राष्ट्र' पसंद है या वह उदार अमेरिका जो अब तक ऐसे भेदभाव से दूर रहा है.

शरणार्थी समस्या दुनिया भर की समस्या रही है. पश्चिम एशिया में चले युद्धों और संघर्षों से आक्रांत बहुत सारे लोग यूरोप के देशों में भाग रहे हैं. म्यांमार में सताए गए लाखों लोग बांग्लादेश से लेकर भारत तक में ठिकाना खोजते रहे. भारत में भी इन रोहिंग्या मुसलमानों की कई अवैध बस्तियां हैं. अपने घरों, अपनी बस्तियों और अपने शहरों से उजड़े ऐसे लोग जब अनजान मुल्कों में दाख़िल होते हैं तो वे ऐसे बेबस लोग होते हैं जिन पर सिर्फ दया की जा सकती है. भारतीय उपमहाद्वीप में इस शरणार्थी समस्या के और भी पहलू हैं. बांग्लादेश के घुसपैठियों को लेकर असम में बाकायदा आंदोलन चल पड़ा और मौजूदा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर उसी की परिणति है. बेशक, ऐसे शरणार्थियों को लेकर एक राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए जिसमें राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ मानवीय सरोकारों का उचित समावेश हो सके. यह नीति बनाना आसान काम भी नहीं है. लेकिन यह मुश्किल काम करने की जगह सरकार ऐसा नागरिकता बिल ला रही है जो स्थितियों को कुछ और विषम बनाएगा. भारत में एक पूरे समुदाय के भीतर यह सौतेलेपन का भाव पैदा करेगा. अगर इस बिल में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान के अलावा श्रीलंका, नेपाल या म्यांमार के अल्पसंख्यकों की बात भी की जाती तो शायद वह ज़्यादा न्यायपूर्ण होती और भारतीय भावना के ज़्यादा क़रीब होती.

इस क़ानून का एक ख़तरा और है. पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान में रह रहे हिंदू कहीं और असुरक्षित न हो जाएं. उनसे यह न कहा जाने लगे कि उनका तो एक देश हो गया- उनको तो हिंदुस्तान की नागरिकता मिल रही है- वे यहां क्या कर रहे हैं. दरअसल यह पूरा बिल इस उपमहाद्वीप को 1947 के उन दिनों के क़रीब ले आएगा जब एक देश दो टुकड़ों में बंटा था और नागरिकों से कहा जा रहा था कि वे धर्म के आधार पर अपना मुल्क चुन लें. तब इस देश ने हिंदू मुल्क होना नहीं चुना था- क्योंकि वह इस देश के हज़ारों साल के इतिहास से गद्दारी होती. वह एक नकली मुल्क होता जैसा आज पाकिस्तान है. लेकिन क्या यह बात उन लोगो को समझ में आएगी जो इस देश को एक हिंदू पाकिस्तान में बदलने पर तुले हैं?

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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