संवैधानिक संस्थाओं की साख बची रहने दें जेटली जी 

अब पहली बार बीजेपी को मिले बहुमत का अभिमान हो या चुनी हुई सरकार को बिल्कुल भारतीय लोकतंत्र और संविधान का इकलौता प्रहरी और प्रतिनिधि मानने की नासमझी अरुण जेटली लगातार जैसे संवैधानिक संस्थाओं पर हमले कर रहे हैं.

संवैधानिक संस्थाओं की साख बची रहने दें जेटली जी 

यह 2015 का साल था जब वित्त मंत्री अरुण जेटली राज्यसभा की भूमिका पर सवाल खड़े कर रहे थे. उनका कहना था कि जनता की चुनी हुई लोकसभा के पारित विधेयकों पर राज्यसभा को सवाल उठाने का हक़ नहीं है. तब लोकसभा के स्पीकर रहे सोमनाथ चटर्जी ने भी इसकी आलोचना की थी और कांग्रेस सांसद मधुसूदन मिस्त्री ने जेटली के खिलाफ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पेश किया था. दिलचस्प यह है कि अरुण जेटली तब यह बात कह रहे थे जब वे ख़ुद लोकसभा चुनाव हारकर राज्यसभा की मार्फ़त संसद में आए और मंत्री बने.

अब पहली बार बीजेपी को मिले बहुमत का अभिमान हो या चुनी हुई सरकार को बिल्कुल भारतीय लोकतंत्र और संविधान का इकलौता प्रहरी और प्रतिनिधि मानने की नासमझी अरुण जेटली लगातार जैसे संवैधानिक संस्थाओं पर हमले कर रहे हैं. योजना आयोग जैसी संस्था को तो सरकार ने पहले ही ख़त्म कर दिया. उसकी जगह जो नीति आयोग बनाया गया, उसके पहले उपाध्यक्ष अपनी पक्की नौकरी की फ़िक्र में अमेरिका चले गए. नीति आयोग ने इतने वर्षों में क्या किया है, यह अब तक किसी की समझ में नहीं आया.

लेकिन संस्थाओं के विकल्प खोजने की कोशिश फिर भी एक बात है, संस्थाओं को अविश्वसनीय बनाने का खेल तो निहायत खतरनाक है. अरुण जेटली कम से कम दो और अहम संस्थाओं पर निशाना साधते देखे गए हैं. सबरीमला के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर उन्होंने इशारे-इशारे में सवाल किए. यहां तक कह दिया कि देश संवैधानिक संस्थाओं से बड़ा होता है. यह सच है, देश ऐसी संस्थाओं से बड़ा होता है, लेकिन पहले देश को पहचानना होता है. यह समझना होता है कि ज़मीन का कोई टुकड़ा, आबादी का कोई हिस्सा क्यों हमारा देश बन जाता है और बाकी क्यों पराया रह जाता है. यह भी समझना होता है कि देश इतिहास के किस मोड़ से शुरू होता है, कब-कब बदलता है, किन-किन धाराओं का अवगाहन करता है, किनसे मज़बूत होता है और किनसे सभ्यता का एक बड़ा मूल्य बनाता है. हमारा संविधान इसलिए भी बड़ा है कि वह इस देश को न्याय और बराबरी से, मनुष्यता और सामाजिकता से जोड़ने के सारे जतन करता है. जो सुप्रीम कोर्ट इस संविधान का रक्षक है वह हाजी अली दरगाह में भी महिलाओं की पाबंदी को गलत बताता है और सबरीमला में भी. लेकिन जेटली इस प्रगतिशील पहलू पर कुछ इस तरह प्रतिक्रिया देते हैं जैसे सुप्रीम कोर्ट देश के विरुद्ध कुछ कर रहा हो- वरना यह याद दिलाने का क्या मतलब है कि देश संविधान और क़ानून से बड़ा होता है.

नया हमला अरुण जेटली ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया पर किया है. वे 2008 से 2014 के बीच के क़र्ज़ों के लिए आरबीआई पर कुछ इस अंदाज़ में टिप्पणी कर रहे हैं जैसे आरबीआई ने जान-बूझ कर एनपीए की अनदेखी की. यह बात भी जेटली को इसलिए याद आ रही है कि मौजूदा गवर्नर ने क़र्ज लेने के कायदे सख़्त कर दिए हैं, कुछ बैंकों के कर्ज देने पर रोक लगा दी है. जाहिर है, कारोबारियों के दबाव में घिरी सरकार आरबीआई को खलनायक बनाने में जुटी है.

इसके लिए जेटली जो तर्क जुटा रहे हैं, वह लोकतंत्र की सेहत के लिए खतरनाक है. वे इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि लोकतंत्र संस्थाओं से चलता है. सुप्रीम कोर्ट, रिज़र्व बैंक, चुनाव आयोग, अलग-अलग विश्वविद्यालय, उनसे निकलने वाले अलग-अलग विचार- ये सब लोकतंत्र की तहें बनाते हैं. अरुण जेटली इन सबको खारिज करते हैं. वे उस चुनाववादी राजनीति को सबसे अप्रतिम मानते हैं जो फिलहाल हमारे लोकतंत्र का सबसे कमज़ोर पुर्जा है. यह चुनावी राजनीति धन बल से चल रही है, बाहुबल से चल रही है, जातियों और धर्मों के नाम पर होने वाले ध्रुवीकरण से चल रही है और उन उद्योगपतियों के पैसों से चल रही है जो चुनाव से लेकर सरकारों तक के प्रबंधन में निवेश करने को तैयार रहते हैं. दुर्भाग्य से जेटली जिस पार्टी की नुमाइंदगी करते हैं, वह भी सांप्रदायिक मुद्दों की मदद लेने और औद्योगिक घरानों को प्रश्रय देने के लिए लगातार बदनाम रही है.

भारतीय राजनीति को सबसे ज़्यादा चुनावी राजनीति में वैकल्पिक मुद्दों और वैकल्पिक नेतृत्व की ज़रूरत है. बेशक, इस लोकतंत्र ने दलितों और पिछड़ों के लिए बड़ी गुंजाइश बनाई है और नेतृत्व में उन्हें हिस्सा दिया है, लेकिन इस हिस्सेदारी को भी अविश्वसनीय बनाने का काम चुनावी राजनीति में जमकर हुआ है. अगर सुप्रीम कोर्ट पवित्र गाय नहीं होता, अगर आरबीआई पवित्र गाय नहीं है, तो चुनी हुई सरकार भी पवित्र गाय नहीं है. सब पर पारस्परिक अंकुश का सिद्धांत ही लोकतंत्र को मज़बूती देता है और उसको उसकी कई नाकामियों के बावजूद उसे बचाए रखता है. तेल की बढ़ती क़ीमतों और रुपये की घटती हैसियत पर अपने पुराने बयानों से मुंह चुराने वाले और कुछ बेबस सी सफ़ाई देने वाले जेटली सबकुछ करें, संस्थाओं को अविश्वसनीय बनाने का काम न करें.

सच तो यह है कि पिछले कुछ अरसे में संस्थाओं के भीतर सरकार का दखल अक्सर उनको कमज़ोर करने वाला साबित हुआ है. सीबीआई का ताज़ा प्रकरण इसकी एक मिसाल है. ऐसी मिसालें और भी हैं. जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय को सरकार के मंत्री जब तब बदनाम करते हैं. राम मंदिर के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट पर संघ परिवार जिस तरह का अनुचित दबाव बना रहा है, वह किसी से छुपा नहीं है. यह जरूरी है कि लोकतंत्र में संस्थाएं हों, असहमति की आवाज़ें हों और वह व्यवस्था हो जो चुनी हुई सरकारों को चुनाव से पहले ख़ज़ाने खोलने की छूट न दे.


(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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