प्रियदर्शन की बात पते की : सवालों से भागते अरविंद केजरीवाल

प्रियदर्शन की बात पते की : सवालों से भागते अरविंद केजरीवाल

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

करीब चार साल पहले जब लोकपाल आंदोलन अपने शिखर पर था, तब अरविंद केजरीवाल प्रतिद्वंद्वियों के लिए बिजली के नंगे तार जैसे थे - जिसको छू लें, उसको करंट मार जाएं। प्रशांत भूषण और किरण बेदी के साथ मिलकर कांग्रेस और बीजेपी के बड़े नेताओं की पोल खोलते, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ नौजवानों का आह्वान करते और देश को बदल डालने का सपना दिखाते केजरीवाल ने देश के लाखों लोगों पर जादू किया। बेशक, मोदी के विकास का जादू केजरीवाल के विश्वास के जादू से बड़ा निकला और बनारस ने उन्हें बड़ी शिकस्त दी, लेकिन दिल्ली में बीजेपी का रथ रोककर उन्होंने फिर से बताया कि नायक-पूजा के मामले में वह मोदी से ज्यादा पीछे नहीं हैं।

लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का जादू जितना टूटा है, उससे कहीं ज़्यादा केजरीवाल का तिलिस्म टूटा है। वह अपने ही आंदोलन के दौरान बने जनलोकपाल विधेयक को हल्का कर पेश कर रहे हैं, वह इस मुद्दे पर अपने पुराने सहयोगियों से बहस करने को तैयार नहीं हैं, वह लालू यादव से गले मिल रहे हैं, वह संवाद की जगह विपक्ष के नेताओं को मार्शल से बाहर फिंकवा रहे हैं, वह बहुत सारी ऐसी हरकतें कर रहे हैं, जिनका उनकी अपनी गढ़ी हुई आदर्श राजनीति से वास्ता नहीं है। सवाल है, क्या केजरीवाल समझौतावादी हो गए हैं...? क्या राजनीति ने उन्हें उनके लक्ष्यों के प्रति बेईमान बना दिया है...? जो लोग यह मानते हैं, वे न केजरीवाल के व्यक्तित्व की बुनावट को समझते हैं, न उनकी राजनीति की विडम्बनाओं को।

दरअसल केजरीवाल के राजनीतिक दर्शन में जो शुद्धतावाद है, वह किसी वैचारिक समझ से ज़्यादा भ्रष्टाचार या शासन को लेकर चली आ रही मध्यवर्गीय धारणा से पैदा हुआ है। इस धारणा में पढ़े-लिखे लोग अच्छे होते हैं, भ्रष्टाचार का मतलब सरकारी दफ्तरों में होने वाली रिश्वतखोरी होता है, सख्त कानून बनाकर भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सकता है और ईमानदारी के इस सतही दायरे में चलते हुए देश को बदला जा सकता है। केजरीवाल जब तक आंदोलन में रहे, इस धारणा का मूर्त रूप रहे, निजी तौर पर इस ईमानदारी को उन्होंने सख़्ती से लागू किया और इस वजह से उस मध्यवर्गीय भारत के नायक बने, जिससे इतनी ईमानदारी भी नहीं सधती है।

लेकिन संकट यह है कि यह देश कहीं ज़्यादा उलझा हुआ है। भ्रष्टाचार सरकारी दफ्तरों के बाबुओं की बेईमानी से नहीं, इस देश की सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी और उसके बीच बची रही औपनिवेशिक विरासत से पैदा हुआ है। जब तक यह गैर-बराबरी रहेगी, भ्रष्टाचार रहेगा और उसके लिए एक तरह की सामाजिक स्वीकृति भी रहेगी। इस गैर-बराबरी को खत्म करने के लिए जितने आर्थिक प्रयत्न करने की ज़रूरत है, उससे ज़्यादा सामाजिक प्रयत्न करने की ज़रूरत है। अलग-अलग तबकों के लिए आरक्षण और विशेष अवसरों की बात इसी सामाजिक प्रयत्न का हिस्सा है।

दुर्भाग्य से अंग्रेजों के ज़माने से चली आ रही हमारी भ्रष्ट दफ्तरशाही ने किसी भी तरह की बराबरी की कोशिश नहीं की - वह एक अल्पतंत्र बनाकर इस देश पर शासन करती रही। उसने रोज़गार के इतने कम मौके सृजित किए कि आरक्षण का खयाल भी एक तबके को अपने ख़िलाफ़ साज़िश लगने लगा। इसी के बाद योग्यता बनाम आरक्षण की वह झूठी बहस शुरू की गई, जिसने अलग-अलग तबकों में दरार पैदा की। व्यापमं जैसे घोटालों और अपनी सामाजिक-आर्थिक हैसियत के बल पर सिफारिश से लेकर रिश्वत तक के ज़रिये नौकरी हासिल करने वाला तबका अचानक आरक्षण के सवाल पर योग्यता को याद करने लगा।

दरअसल, व्यापक बेरोज़गारी से पैदा हताशा वह चीज़ है, जिसने नौजवानों को पहले बीजेपी के राष्ट्रवादी और हिन्दूवादी एजेंडे से जोड़ा और बाद में केजरीवाल के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से। केजरीवाल ने भरोसा दिलाया कि वह राजनीति की सफाई करेंगे, भ्रष्टाचार खत्म करेंगे, कानून तोड़ने वालों को जेल में डालेंगे और सबकी सुरक्षा का इंतज़ाम करेंगे। इसके पीछे यह भोली मान्यता थी कि दरअसल कानून पर सख्ती से अमल न होने की वजह से समस्याएं पैदा होती हैं - कानून पर ठीक से अमल हो तो सब ठीक होगा।

अण्णा का जनलोकपाल आंदोलन इसी समझ से निकला था। हैरानी की बात यह है कि उससे प्रशांत भूषण जैसे नेता भी जुड़े हुए थे, जो जीवन भर सख्त कानूनों का विरोध करते रहे और उनके दुरुपयोग के ख़िलाफ़ जायज़ लड़ाई लड़ते रहे। जाहिर है, उनको अपनी वैचारिक आस्था से ज़्यादा भरोसा अण्णा के नायकत्व पर था, जिसे बाद में केजरीवाल ने हस्तगत कर लिया। जब यह सब कुछ हो गया, तब प्रशांत भूषण को खयाल आया कि आम आदमी पार्टी तो इस व्यक्तिपूजा के लिए नहीं बनी है, उन्होंने अरविंद केजरीवाल को उन आदर्शों की याद दिलाना शुरू किया, जिनकी बुनियाद पर पार्टी खड़ी की गई थी।

लेकिन इस बीच शायद अरविंद केजरीवाल समझने लगे हैं कि पार्टियां भले आदर्शवाद की ज़मीन पर खड़ी होती हों, चलती वे यथार्थवाद की पटरी पर ही हैं, इसलिए उन्होंने वैचारिकता की जगह व्यावहारिकता का रास्ता चुना। भले ही योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की मौजूदगी आम आदमी पार्टी को एक वैचारिक आभा देती थी, लेकिन वह केजरीवाल के नेतृत्व में बाधक थी, इसलिए उन्हें अपमानित करके बाहर किया गया। इसमें शक नहीं कि नेतृत्व के इस संघर्ष में प्रशांत भूषण और उनका परिवार भी कई बार वे सीमाएं लांघते दिखे, जो दलगत राजनीति में अलंघ्य मानी जाती हैं। वैसे भी बहाना कुछ भी होता, उन्हें बाहर होना था।

संकट यह है कि केजरीवाल के भीतर सख्त कानूनों के प्रति प्रेम बना हुआ है। वह लोगों को स्टिंग करना सिखाते हैं, सलाह देते हैं कि सरकारी दफ्तरों में वे स्टिंग किया करें और पाते हैं कि उनके अपने लोग ही इस जाल में फंसते जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा संकट यही है - उसके पास इस समाज को बदलने का जज़्बा चाहे जितना सच्चा और प्रबल हो, उसका वैचारिक नक्शा नहीं है। गरीबी, बेरोज़गारी, गैर-बराबरी, सामाजिक-आर्थिक आपसदारी के कोई सूत्र उसने नहीं दिए हैं।

बेशक, वह दिल्ली के गरीबों की झोपड़ी तक पहुंची है और उनके लिए बिजली-पानी या कानूनी संरक्षण के इंतज़ाम की वह प्रशंसनीय कोशिश कर रही है, लेकिन उन्हें झोपड़ी से निकालकर कायदे के घरों में पहुंचा सकने का वैध कार्यक्रम उसके पास नहीं है। शिक्षा, संस्कृति और समाज को लेकर गांधी, लोहिया या अंबेडकर के भीतर जो समझ थी, उसका शतांश भी आम आदमी पार्टी के नेताओं में नहीं दिखता और न उनसे वास्तविक प्रेरणा लेने का उद्यम दिखता है।

इसलिए केजरीवाल का जनलोकपाल उनके बाकी एजेंडों की तरह ही आधा-अधूरा है। वह दूर तक देख नहीं सकते, वह देर तक बहस नहीं कर सकते। वह भाग सकते हैं या फिर भावुक होकर रो सकते हैं। किसी ईमानदार नेता में यह भावुकता होनी चाहिए, इतनी भर तुर्शी भी कि वह दूसरों को ज़रूरत पड़ने पर ख़ारिज कर सके, लेकिन यह भावुकता ऐसी आत्ममुग्धता में बदल जाए, जो अपने बाहर देखने से इनकार करे तो यह ख़तरनाक है। केजरीवाल, प्रशांत भूषण से बहस करें या न करें - बेहतर हो, न ही करें, क्योंकि मुख्यमंत्रियों के पास करने को काम होते हैं - लेकिन आत्ममुग्धता के इस ख़तरे से बचें और संवाद की वह गुंजाइश बनाए रखें, जिसकी बात वह लगातार करते रहे हैं - तो यह उनके और भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए अच्छा होगा।

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