'निल बटे सन्नाटा' में काम वाली बाई से इतनी हिकारत क्यों?

'निल बटे सन्नाटा' में काम वाली बाई से इतनी हिकारत क्यों?

फिल्म 'निल बटे सन्नाटा' का एक दृश्य

क्या बाई के काम को इतनी हिकारत से देखना चाहिए जितनी हिकारत से 'निल बटे सन्नाटा' नाम की फिल्म देखती है? मां-बेटी के रिश्तों, उनके सपनों और संघर्षों पर बनी और एक कोमल लय में चलती यह कारोबारी फिल्म इस एक सवाल पर एक बड़ी दुविधा पैदा करती है।

फिल्म के अंत में उसकी नायिका बताती है कि वह बाई नहीं बनना चाहती थी, इसलिए कलेक्टर बन गई। निस्संदेह कलेक्टर की हैसियत बाई से बहुत बड़ी होती है, लेकिन यह हैसियत किस बात से तय होती है? कलेक्टर के काम से या उसके रुतबे से? या उसको मिलने वाले पैसे से या उसकी होने वाली ऊपरी कमाई से? उत्तर भारत में आईएएस बनने की चाह रखने वाले ज़्यादातर नौजवानों के भीतर इस ओहदे का नशा इसलिए होता है कि इससे उन्हें सामंती ताकत का अनुभव होता है। आप कलेक्टर बन जाते हैं तो फिर कोई काम नहीं करते- गाड़ी, बंगला, चपरासी सब मिलते हैं, यह मान्यता इतनी बद्धमूल है कि इसी बिना पर आईएएस बनने वालों का दहेज तय हो जाता है।

दूसरी तरफ बाइयां वे गुमनाम, गरीब और विस्थापित औरतें होती हैं, जो घर चलाने के लिए अपना घर छोड़कर दूसरों के घरों में काम करती हैं। ये बाइयां एक दिन की छुट्टी करती हैं तो मध्यवर्गीय घरों में तूफान मच जाता है। अगर किसी सोसाइटी या शहर की बाइयां एक दिन के लिए हड़ताल कर दें तो बहुत सारे दफ्तरों में काम करन वाली औरतें न पहुंच पाएं या उनके पतियों को बिना टिफिन डब्बा आना पड़े। लेकिन 'निल बटे सन्नाटा' इस काम का सम्मान नहीं करती, रुतबे का सम्मान करती है।

सवाल है- क्या हमारे समाज में इस काम का सम्मान है, जो एक फिल्म से हम इस सम्मान की उम्मीद रखें? बेशक, यह सम्मान उस दिन पैदा हो सकता है, जब इस काम के लिए किया जाने वाला भुगतान बहुत बड़ा हो। चूंकि इस काम के लिए किसी प्रशिक्षण की जरूरत महसूस नहीं की जाती, इसलिए उसका मोल भी महसूस नहीं किया जाता। कभी मेहतरानी को रानी का दर्जा देने की इच्छा रखने वाले राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि जो सबसे छोटे काम माने जाते हैं, उनमें काफी अच्छा पैसा मिलने लगे तो उनकी हैसियत बड़ी हो जाएगी।

चूंकि हमारे समाज में श्रम की वह महत्ता नहीं है, इसलिए हम अपनी बाइयों को, अपने कारीगरों को, अपने मजदूरों को, अपने किसानों को यह पैसा नहीं देते। उसकी जगह यह पैसा उन दलालों को दे डालते हैं जो बीच के लोग होते हैं।
सच तो यह है कि बाइयों की हालत हमारे यहां अगर ख़राब है तो इसलिए भी कि कलेक्टर की हालत बहुत अच्छी है।
दुर्भाग्य से 'निल बटे सन्नाटा' जैसी फिल्म बाई के साथ नहीं, कलेक्टर के साथ खड़ी हो जाती है। बल्कि जो सच स्वरा भास्कर- यानी चंदा सहाय की बेटी रिया- यानी उपेक्षा सहाय अपनी सहज वृत्ति से जान जाती है- कि हमारे समाज में डॉक्टर के बेटे डॉक्टर, इंजीनियर के बेटे इंजीनियर और बाई की बेटी बाई बनने को नियत होते हैं, उसे भी यह फिल्म झुठलाती है। इसके लिए मां-बेटी के सहज संबंधों के बीच एक बहुत जटिल द्वंद्व की रचना करती है जिसे स्वरा भास्कर और रिया जैसी समर्थ अभिनेत्रियां फिर भी सहजता से निभा ले जाती हैं। यहां एक दूसरी विडंबना भी फिल्म के भीतर अलक्षित रह जाती है।

चंदा बाई का काम करती है लेकिन अगड़ी जाति की है- उसका सरनेम सहाय है जो फिल्म में अलग से रेखांकित होता है। दाखिले के दिन स्कूल के प्रिंसिपल यह नाम पूछते हैं। बेशक, अगड़े घरों की महिलाएं भी गरीब और हालत की मारी हो सकती हैं और बाइयों का काम करती हैं- लेकिन यहां भी ज़्यादा बड़ी सच्चाई यह है कि इस गरीबी की मार ज्यादातर पिछड़ी जातियों की महिलाओं को झेलनी पड़ती है। दरअसल यह नज़र आता है कि चंदा सहाय भले बाई का काम करती है, उसकी शख्सियत में एक अलग सी चमक है जो उसे कहीं से पिछड़े तबके में खड़ा होने नहीं देती। इस चमक की वजह से ही कलेक्टर उसे अपने ड्राइंगरूम में बिठा कर चाय पिलाने की सोच सकता है। कायदे से ऐसे सहृदय कलेक्टर भी नहीं मिलते।

दरअसल 'निल बटे सन्नाटा' की विडंबना यही है- वह कमज़ोर के ख़िलाफ़ और ताकतवर के पक्ष में खड़ी दिखती है। वह कमज़ोर की जातिगत पहचान पर भी परदा डालती है। वह बहुत व्यक्तिवादी कामनाओं की- निजी सपनों की- फिल्म है जिसके भीतर किसी सामूहिक-साझा सवाल की गुंजाइश नहीं है। यह एक सख्त आलोचना है- लेकिन इसी में 'निल बटे सन्नाटा' की प्रशंसा भी छुपी है- क्योंकि बॉलीवुड की ज़्यादातर फिल्में तो ऐसी आलोचना की भी क़ाबिलियत नहीं रखतीं।

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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