परसाई होते तो क्या मॉब लिंचिंग से, आवारा भीड़ के खतरों से बच पाते?

हरिशंकर परसाई के जन्मदिन पर विशेष : परसाई ने अपनी किताब का नाम 'विकलांग श्रद्धा का दौर' रखा था, तब न मोदी थे, न वाजपेयी- वह इंदिरा गांधी का दौर था

परसाई होते तो क्या मॉब लिंचिंग से, आवारा भीड़ के खतरों से बच पाते?

हरिशंकर परसाई खुशकिस्मत थे कि 1995 में ही चले गए. अगर आज होते तो या तो मॉब लिंचिंग के शिकार हो गए होते या फिर जेल में सड़ रहे होते या फिर देशद्रोह के आरोप में मुक़दमा झेल रहे होते. आवारा भीड़ के ख़तरों को उन्होंने काफ़ी पहले पहचाना था. यह भी पहचाना था कि इस भीड़ का इस्तेमाल कौन करता है. उन्होंने लिखा था, 'दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है, जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं. यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.'

लगता ही नहीं कि किसी और समय मे परसाई ने यह सब लिखा था. जैसे वे भारत के लिए किसी आगत भविष्य को देख रहे थे. उन्होंने जब अपनी किताब का नाम 'विकलांग श्रद्धा का दौर' रखा था, तब न मोदी थे, न वाजपेयी- वह इंदिरा गांधी का दौर था. उन्होंने कांग्रेस पर उतनी ही सख्ती से चाबुक चलाई जितनी सख़्ती से समाजवादी आंदोलन या जनसंघ पर. लेकिन फिर भी उस दौर में इस किताब पर उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान मिल गया. आज होते तो शायद पत्थर खाते. पाखंड पर वे इतनी तीखी कलम चलाते थे कि जैसे वह चमड़ी छील दे. उनका एक मशहूर व्यंग्य है- 'मैं नरक से बोल रहा हूं'. इसकी शुरुआत कुछ इस तरह होती है- 'हे पत्थर पूजने वालो! तुम्हे जिंदा आदमी की बात सुनने का अभ्यास नहीं; इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूं. जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते उसकी सड़ी लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो. ज़िन्दगी-भर तुम जिससे नफ़रत करते रहे उसकी कब्र पर चिराग जलाने जाते हो. मरते वक़्त जिसे तुमने चुल्लू भर पानी नहीं दिया, उसके हाड़ गंगाजी ले जाते हो . अरे, तुम जीवन का तिरस्कार और मरण का सत्कार करते हो . इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूं. मैं नर्क से बोल रहा हूं.'

यह सच है कि परसाई ने किसी को नहीं बख़्शा. छद्म क्रांतिकारिता का मखौल भी बनाया और छद्म राष्ट्रवाद का मज़ाक भी उड़ाया. कांग्रेसी ढुलमुलपन और समाजवादी बिखराव हमेशा उनके निशाने पर रहे. मगर पाखंड और भ्रष्टाचार के अलावा वे सबसे ज़्यादा सख़्त अवैज्ञानिकता, कट्टरता और कठमुल्लेपन पर हुआ करते थे. इस लिहाज से वे संघ के कटु आलोचक रहे और अंततः मार्क्सवादी मूल्यों पर भरोसा करते रहे. गौरक्षा के नाम पर जो डरावनी हिंसा हम इन दिनों देख रहे हैं, उसकी उन्होंने बार-बार चुटीले अंदाज़ में ख़बर ली. वे बताते हैं कि गौरक्षा के नाम पर 25 लाख लोग जुट जाते हैं, मनुष्य रक्षा के नाम पर एक लाख लोग नहीं जुटते. वे एक गौभक्त बाबा का इंटरव्यू करते हैं और यह दिलचस्प सवाल-जवाब अंधभक्तों के गाल पर किसी तमाचे की तरह पड़ता है. यह बातचीत कुछ इस तरह चलती है-

'मैंने कहा- स्वामीजी, यह आंदोलन किस हेतु चलाया जा रहा है? स्वामीजी ने कहा- तुम अज्ञानी मालूम होते हो, बच्चा! अरे गौ की रक्षा करना है. गौ हमारी माता है. उसका वध हो रहा है. मैंने पूछा- वध कौन कर रहा है? वे बोले- विधर्मी कसाई. मैंने कहा- उन्हें वध के लिए गौ कौन बेचते हैं? वे आपके सधर्मी गोभक्त ही हैं न? स्वामीजी ने कहा- सो तो है. पर वे क्या करें? एक तो गाय व्यर्थ खाती है, दूसरे बेचने से पैसे मिल जाते हैं. मैंने कहा- यानी पैसे के लिए माता का जो वध करा दे, वही सच्चा गौ-पूजक हुआ! स्वामीजी मेरी तरफ देखने लगे. बोले- तर्क तो अच्छा कर लेते हो, बच्चा! पर यह तर्क की नहीं, भावना की बात है. इस समय जो हजारों गौभक्त आंदोलन कर रहे हैं, उनमें शायद ही कोई गौ पालता हो पर आंदोलन कर रहे हैं. यह भावना की बात है.' हालांकि अब गौभक्त गौरक्षकों में बदल गए हैं और स्वामी होने का दिखावा नहीं करते. वे सीधे गौ तस्करों को देखते हैं और पिल पड़ते हैं. अब कोई परसाई नहीं है जो इन गौरक्षकों की ख़बर ले.

हरिशंकर परसाई की अपनी एक शैली थी. कविता में जिसे अतिशयोक्ति अलंकार कहते हैं, उसका व्यंग्य में कैसे बेहद धारदार इस्तेमाल हो सकता है- यह बात परसाई और उनके लगभग समकालीन रहे आरके लक्ष्मण बाखूबी जानते थे. आरके लक्ष्मण के कार्टूनों में नेता चोर की तरह दिखते थे जो आलमारी तोड़कर कंधे पर लूट का बोरा टांगने के बावजूद पूछा करते थे कि उनके ख़िलाफ़ सबूत क्या है. उनके सरकारी दफ़्तरों में धूल खाती फ़ाइलें छत को छूती थीं, कुर्सी टेबुल के ऊपर पड़ी मिलती थी और आम आदमी उनके बीच कहीं दबा-कुचला सा मिलता था. परसाई के साथ भी कुछ ऐसा था. वे आम दृश्यों के भीतर छुपे व्यंग्यों को इस खरेपन के साथ उभारते थे कि तस्वीर की विडंबना खुलकर सामने आ जाती थी. परसाई बहुत ज़्यादा लिखते थे और अक्सर इतना सरल लिखते थे कि उनके लिखे में कोई कौशल नहीं दिखता था. अखबारों के लिए उनका लगभग दैनिक लेखन उस दौर के भ्रष्टाचार और पाखंड पर बहुत गहरी चोट की तरह आता था.

लेकिन व्यंग्यकार परसाई के लेखन का एक बहुत गंभीर पहलू भी था. वे बहुत विकट अध्येता रहे. उनके लेखों में दुनिया भर के इतने उद्धरण मिलते हैं कि हैरानी होती है कि उन्होंने यह सब पढ़ा कब होगा. दरअसल लेखन को उन्होंने अपना जीवन और जीवनयापन दोनों बना रखा था. इसके अपने संकट रहे होंगे, लेकिन इस वजह से शायद वे हिंदी के उन विरल लेखकों में हैं जिनमें अपनी तरह की संपूर्णता दिखती है. आम और ख़ास दोनों के बीच हरिशंकर परसाई की स्वीकार्यता और अपढ़ता के मौजूदा माहौल में भी लगातार उनकी रचनाओं का उल्लेख बताता है कि उनकी खींची हुई लकीर बहुत लंबी है और वह रोशनी भी देती है.

यह अलग बात है कि इस नए दौर में परसाई ख़तरे में घिरे होते. ज़माना कुछ इस तरह बदला है कि वह कुछ पढ़ने-लिखने को तैयार नहीं होता. इस ज़माने से निकली सत्ता इन दिनों अपने ख़िलाफ़ कुछ भी लिखे जाने को साज़िश की तरह देखती है और किसी को भी दंडित करने को उद्धत रहती है. जहां उसका क़ानून नहीं चलता, वहां उसके गौरक्षक-समाज रक्षक चलते हैं और सभ्यता-संस्कृति को बचाने का पावन काम करते हुए कुछ लोगों को शहीद या ज़ख़्मी कर आगे बढ़ जाते हैं. परसाई जी इस पर जरूर लिखते और शायद ज़रूर पिटते.


प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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