कश्मीर दर्द से ऐंठती देह का नाम है

बीजेपी को कश्मीर की वह त्रासदी नहीं दिखती जो दशकों से सेना की विराट उपस्थिति के बीच वहां के आम नागरिक दैनिक तौर पर झेलने को विवश हैं

कश्मीर दर्द से ऐंठती देह का नाम है

जम्मू-कश्मीर में अब फिर से राज्यपाल का शासन है. महबूबा सरकार से अलग हुई बीजेपी समझाने में जुटी है कि वहां राज्यपाल का शासन क्यों ज़रूरी है. वह अपने जाने-पहचाने शब्दाडंबर पर लौट आई है. उसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी याद आ रहे हैं, जनसंघ का संघर्ष याद आ रहा है, अपने कार्यकर्ताओं का बलिदान याद आ रहा है, मातृभूमि का सम्मान याद आ रहा है, पाकिस्तान की चाल याद  आ रही है और आतंकवादियों के खात्मे का खयाल याद आ रहा है. संकट इसी स्मृति का है. यह स्मृति इतनी एकांगी है कि उसे कश्मीर की वह त्रासदी नहीं दिखती जो दशकों से सेना की विराट उपस्थिति के बीच वहां के आम नागरिक दैनिक तौर पर झेलने को विवश हैं. इस विवशता ने कैसे मनोरोगी बनाए हैं, यह विशाल भारद्वाज की फिल्म 'हैदर' से पहले संजय काक की डॉक्यूमेंटरी 'जश्ने आज़ादी' बताती है. 

निस्संदेह इस त्रासदी के शिकार कश्मीरी पंडित भी हुए हैं. उन्हें अपने राज्य से बेदखल होना पड़ा है. उनकी ज़िंदगियां बदतर हुई हैं. लेकिन फिर भी कश्मीरी पंडितों के साथ दो राहतें हैं. एक तो यह देश उनके विस्थापन की त्रासदी को बिल्कुल निजी स्तर पर महसूस करता है और दूसरी यह कि उन्हें इस विस्थापन का मुआवज़ा भी अगर पर्याप्त नहीं तो किन्हीं और विस्थापितों के मुकाबले बेहतर मिला है. इस देश में अलग-अलग वजहों से आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और अन्य गरीब विस्थापित होने को मजबूर हुए हैं, उनकी तादाद करोड़ों में है. लेकिन इन सबके बीच कश्मीरी पंडित अकेले विस्थापित हैं जिन्हें संभवतः इस देश ने सबसे बेहतर पहचान दी है, सबसे बेहतर मुआवज़ा दिया है. उनके मुक़ाबले वहां रह रहे लोगों ने आतंकवाद की चोट कहीं ज़्यादा झेली है. 

अगर विकीपीडिया पर भरोसा करें तो 1989 से 2002 के बीच वहां करीब 40,000 लोग मारे गए हैं. इनमें साढ़े चार हज़ार के आसपास सेना और सुरक्षा बलों के लोग हैं और 19,000 से ज़्यादा आतंकवादी. जबकि 15000 से ज्यादा आम लोग भी मारे गए हैं. जाहिर है, 2002 के बाद यह आंकड़ा और भयावह हो उठता है. बाद के वर्षों में कश्मीर में वे सामूहिक क़ब्रगाहें भी सामने आई हैं जहां कश्मीर के सैकड़ों लापता लड़के दफ़न मिले. आतंकी हमलों से लेकर मानवाधिकार उल्लंघन तक के सैकड़ों मामले इनसे अलग हैं जिनके शिकार सैकड़ों लोग हुए. ये आंकड़े डेढ़ दशक पुराने हैं. 

संजय काक की जिस फ़िल्म का ज़िक्र ऊपर है, वह एक दशक से ज़्यादा पुरानी है. जाहिर है, इन वर्षों में तस्वीर और भयावह हुई है. अब कश्मीर में सवाल मानवाधिकार हनन या आतंकवाद के ख़ात्मे का नहीं है, वहां चुनौती कश्मीर को एक लगातार चल रहे युद्ध की मानसिकता से बाहर निकालने की है, वहां लगातार मुश्किल हो रहे लोकतंत्र को नए सिरे से बहाल करने की है. इस चुनौती को भूलकर बीजेपी ने राज्य सरकार से नाता तोड़ने और वहां राज्यपाल शासन लागू करने का फ़ैसला किया. इस फैसले के पीछे उसने जितनी सारी वजहें बताईं, वे सब 2014 में भी मौजूद थीं, जब बीजेपी-पीडीपी ने मिलकर सरकार बनाई थी. 

अविश्वास की खाइयां तब भी इतनी ही गहरी थीं जितनी आज हैं. लेकिन तब बीजेपी को अपनी राष्ट्रीय पहुंच का दायरा बढ़ाना था. वह इस गठजोड़ के ज़रिए साबित कर रही थी कि बीजेपी जम्मू-कश्मीर तक में शासन कर रही है जो लगभग नामुमकिन माना जाता था. दरअसल कश्मीर बीजेपी के लिए महज एक भूगोल रहा है जिसे वह भारत का अखंड हिस्सा बताती रही है. जिस कश्मीरियत की बात पिछले दिनों राजनाथ सिंह ने की, उसके प्रति बीजेपी में जरा भी संवेदनशीलता होती तो इस बेहद नाजुक मोड़ पर वह सरकार गिराने का काम नहीं करती. लेकिन कश्मीर उसके लिए एक राजनीतिक मुद्दा है जो बिहार और यूपी के चुनावों में काम आता है. अनुच्छेद 370 (जिसे बीजेपी धारा 370 बताया करती है) की समझ हो या न हो, लेकिन इसे हटाने की मांग बीजेपी कार्यकर्ताओं की भारी लोकप्रिय मांग है. 

दरअसल 2018 का यह फ़ैसला बीजेपी के लिए 2019 की तैयारी की शुरुआत है. 2019 में बीजेपी जिस हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहती है, उसकी राह में एक रोड़ा कश्मीर भी था और महबूबा से उसकी दोस्ती भी थी. जब भी इस एजेंडे पर आगे बढ़ते हुए वह कर्नाटक या यूपी के बेमेल गठजोड़ की बात करती, उसके सामने पीडीपी के साथ गठजोड़ का सवाल रख दिया जाता. वह सरकार में शामिल रहते न कठुआ के आरोपियों का साथ दे सकती थी और न ही अनुच्छेद 370 हटाने की मांग कर सकती थी. उल्टे अगर महबूबा अपनी नीतियों पर अड़ी रहतीं तो बीजेपी के लिए कश्मीर पर नरम रुख़ बरतना लाजिमी होता जिसके बाद फिर वह अपने सहयोगी संगठनों के भीतर भी आलोचना झेलती. 

बीजेपी की समर्थन वापसी से महबूबा ने भी शायद राहत की सांस ली जो लगातार यह महसूस कर रही थी कि बीजेपी के साथ से उसका दम घुट रहा है. तो अब 2019 में बीजेपी फिर से कश्मीर का राग छेड़ेगी. गोरक्षा, लव जेहाद, तीन तलाक और आतंकवाद के अलावा कश्मीर वह चौथा मुद्दा होगा जिस पर बीजेपी वोट मांगेगी. लेकिन कश्मीर की फिक्र कौन करेगा? यह कश्मीर के उदारवादी तत्वों को ही करनी पड़ेगी. कश्मीर का राजनीतिक हल एक सवाल है, उसकी सामाजिकता बहाल करना कहीं ज़्यादा बड़ी चुनौती बन गया है. 

आज कश्मीर दर्द से ऐंठती एक देह का नाम है. उसके भीतर सौतेलेपन का एक छटपटाता एहसास है. उसका इलाज सेना की सर्जरी नहीं है, इसका इलाज भरोसे का मलहम है. जिस संघर्ष-विराम को लेकर आख़िरी असहमति महबूबा सरकार के भीतर रही, उसी से वह मलहम मिल सकता था. दुर्भाग्य से जो लोग यह मलहम छीन रहे हैं, वही भारत की आम तौर पर अनुशासित मानी जाने वाली सेना को भी कश्मीर में खलनायक बनने को मजबूर कर रहे हैं- आखिर किसी भी समाज में सेना की दीर्घकालीन मौजूदगी डर, ऊब और अंततः नफ़रत ही पैदा कर सकती है. फिर सेना जब ऐसे मुश्किल इलाक़े में जाएगी तो यह बहुत संभव है कि उसकी कार्रवाई की चपेट में सिर्फ आतंकवादी नहीं, कुछ आम लोग भी आएंगे और अंततः इससे हमेशा की तरह माहौल खराब होगा. 

लेकिन कश्मीर में अमन और मलहम का सवाल सिर्फ़ कश्मीर का नहीं, उस पूरे भारत का सवाल है जो लोकतांत्रिक चेतना और मानवीय गरिमा में भरोसा करता है. कश्मीर अगर अपनी सहज मानवीयता के साथ नहीं बचेगा तो देर-सबेर बाकी भारत पर भी इसका असर पड़ेगा. हिंसा को असरदार हथियार मानने वाली सत्ताएं दूसरे इलाक़ों में भी इसके प्रयोग से हिचकेंगी नहीं. इसलिए कश्मीर में अमन की लड़ाई पूरे हिंदुस्तान की लड़ाई है. इसे शब्दाडंबरों से आगे जाकर लड़ना होगा.
 


प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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