बात पते की : अभी अख़लाक़ की कई बार हत्या होगी

बात पते की : अभी अख़लाक़ की कई बार हत्या होगी

दादरी की हिंसक घटना में मारे गए अखलाक (फाइल फोटो)

क्या इस खबर का कोई मतलब है कि दादरी के बिसाहड़ा गांव में रहने वाले अख़लाक़ के घर के फ्रिज में मटन नहीं, गोमांस रखा हुआ था? क्या वाकई मुद्दा यह है कि अख़लाक़ के घर मटन था या गोमांस? अगर वह गोमांस था- जैसा कि मथुरा की प्रयोगशाला की फॉरेसिंक रिपोर्ट बताती है- तब भी क्या भीड़ को यह हक़ था कि वह अख़लाक़ के घर हमला करे और उसे पीट-पीट कर मार डाले?

कृपया याद रखें कि अख़लाक़ की मौत का वास्ता एक भीड़ के उन्माद से है। किसी भीड़ को यह हक़ नहीं दिया जा सकता कि वह किसी को उसके घर से खींच कर निकाले और मार डाले। अख़लाक़ के मामले में ज़्यादा त्रासद यह है कि भीड़ ने उसे एक ऐसी बात की सज़ा दी जो कानूनन जुर्म तक नहीं थी। गांव के लाउड स्पीकर से अनजान लोगों की शह पर प्रचार हुआ, एक भीड़ इकट्ठा हुई और उसने हत्या कर डाली। यह भीड़तंत्र हमारे लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है।

लेकिन, अख़लाक़ के पूरे मामले को गोमांस रखने या न रखने का मुद्दा बना दिया गया। किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि इस देश में लगातार ऐसे लोग बढ़ रहे हैं जिनमें अपनी धारणाओं के आधार पर इंसाफ़ करने की बड़ी क्रूर हड़ब़ड़ी है। संघ परिवार और उसकी आस्थाओं से जुड़े संगठन कहीं गोरक्षा के नाम पर लोगों को पीट रहे हैं और कहीं देश की रक्षा के नाम पर लाठी-गोली चलाने का प्रशिक्षण हासिल कर रहे हैं। लेकिन उनकी सक्रियता से न गाय बच सकती है न देश बच सकता है।

यह बात अब कई बार कही जा चुकी है कि अगर गाय को उसकी बदहाली से बचाना है तो इसके लिए हमें संस्थागत प्रयत्न करने होंगे- अच्छी गोशालाएं बनवानी होंगी, बूढ़ी होती गायों की देखभाल के रास्ते निकालने होंगे और यह काम मेहनत भी मांगता है, सूझबूझ भी और साधन भी। यह काम गाय लाते-ले जाते ट्रकों के ड्राइवरों और क्लीनरों को पीट कर नहीं होगा, न अख़लाक़ की जान लेकर होगा। इससे बस गाय के नाम पर होने वाली राजनीति सधेगी, वह ध्रुवीकरण सधेगा जिससे वोट बंटते हैं।

इसी तरह देश की रक्षा के लिए 13 लाख की सेना है और अंदरूनी गड़बड़ियों से भी निबटने के लिए 21 लाख के बराबर अर्धसैनिक बल हैं। यह सेना देश की रक्षा के लिए लाठी-डंडा चलाना और सर्कस की तरह आग के गोले से निकलना सीखने वाले संघियों की मोहताज नहीं है। वह अत्याधुनिक हथियारों से लैस है और अगर उसके पास कुछ कम हथियार भी हैं तो वे संघ की आयुधशाला से नहीं, दुनिया के मशहूर आयुध कारखानों से आएंगे।

फिर ये सर्कस छाप देशभक्ति सीख रहे लोग अपने जोशोख़रोश का क्या इस्तेमाल करेंगे? वे देश को उन लोगों से बचाएंगे जो उनकी निगाह में आतंकवादी हैं। वे आपसी विवादों को दंगों में बदलेंगे और वहां अपना पराक्रम आजमाएंगे। यह काम वे पिछले तमाम वर्षों में ओडिशा से लेकर गुजरात और उत्तर प्रदेश तक करते रहे हैं। इन लोगों को गिरफ़्तार नहीं किया जाएगा, कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होगी। अगर किसी संवैधानिक लोकलाज के निर्वाह के लिए इन्हें पकड़ा भी गया तो ये छूट जाएंगे- अदालतों में इनके ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत नहीं निकलेंगे।

यह दरअसल लोकतंत्र पर भीड़तंत्र पर काबिज होने की प्रक्रिया है जो बहुत ख़तरनाक साबित होगी। यह भीड़तंत्र पहले अपने आलोचकों को धमकाएगा, फिर उन्हें मार डालेगा। उसे वह बौद्धिक माहौल किसी भी हाल में मंज़ूर नहीं होगा जो उसकी गतिविधियों को प्रश्नांकित करे, उसकी अनपढ़ता को उजागर करे। कुलबर्गी, पंसारे और डाभोलकर बार-बार मारे जाएंगे।

और अख़लाक़ की भी बार-बार हत्या होगी। अभी यह साबित किया जा रहा है कि उसके घर में मटन नहीं गोमांस था। इसी आधार पर बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ तक मांग कर चुके हैं कि अख़लाक़ के नाम पर दिया गया मुआवज़ा वापस लिया जाए। क्या उसे मुआवज़ा इस बात का मिला था कि उसने गोमांस नहीं, मटन रखा था, या इस बात का कि एक भीड़ ने घर से निकाल कर उसे मारा था?

लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होगी। अख़लाक़ की हत्या के आरोपी एक-एक कर छूटते चले जाएंगे। एक दिन यह साबित होगा कि इन लोगों को ग़लत फंसाया गया था। हत्यारों के गले में जयमाला होगी, वे चुनाव लड़ेंगे और जीतेंगे। चुनाव प्रचार के दौरान भी अख़लाक़ को बार-बार मारा जाएगा और आगे भी ऐसा ही होगा।


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