नई दिल्ली:
अगर हम भारतीय मीडिया की ख़बरों के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा का जायज़ा लेना चाहें तो लगेगा कि बराक ओबामा बड़ी बेसब्री से नरेंद्र दामोदर भाई मोदी का इंतज़ार कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अमेरिका फिलहाल दक्षिण एशिया नहीं पश्चिम एशिया में उलझा हुआ है। भारत से रिश्ता जोड़ने के मुकाबले सीरिया, अरब, ईरान और इराक़ में उलझे हुए समीकरणों को दुरुस्त करना उसके लिए कहीं ज़्यादा जरूरी है, ताकि आइएस नाम के बढ़ते हुए ख़तरे को रोका जा सके।
बेशक भारत के प्रधानमंत्री को डिनर देना उसकी कूटनीतिक दिनचर्या का सहज हिस्सा है, लेकिन नरेंद्र मोदी की यह यात्रा भारत और अमेरिका के संबंधों में कोई नया आयाम जोड़ने जा रही है यह कहना जल्दबाज़ी और अतिरेक दोनों से भरा है।
संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में नरेंद्र मोदी हिंदी में जो कुछ भी बोलेंगे वह एक सालाना जलसे में औपचारिक शिरकत का हिस्सा भर होगा। उसके अलावा अमेरिका के साथ गैस और ऊर्जा या उच्च शिक्षा के मामलों में जो समझौते होंगे वे इतने बड़े और अहम नहीं होंगे कि उनसे काफी कुछ बदल जाएगा।
फिर सवाल है नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा पर मीडिया के अलावा इतना उत्साह कौन दिखा रहा है? ज़ाहिर है 30 लाख़ के क़रीब वे भारतीय मूल के लोग, जिन्हें असल में भारत बहुत गंदा, बहुत आलसी और न रहने योग्य लगता है, लेकिन जो मानते हैं कि भारत की एक ताकतवर छवि बनेगी तो दुनिया में उनकी हैसियत भी कुछ बढ़ेगी।
हैसियत और ताक़त के इस खेल को ज़्यादा से ज़्यादा भव्य बनाने की कोशिश ने उन्हें एक मकसद दे दिया है। यह एक आसान देशभक्ति है जिसे अमेरिका में बैठे रह कर अंजाम दिया जा सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि इन भारतीयों के लिए अमेरिका चाहे जितना महत्वपूर्ण हो अमेरिका के लिए भारत अभी तक उतना महत्वपूर्ण नहीं है।
पहले भी एशियाई कूटनीति में वह चीन और पाकिस्तान को अपना मोहरा बनाता रहा है। उसकी ज़्यादा से ज़्यादा कृपा यह होगी कि भारत को वह अपना मोहरा बनाने को तैयार हो जाए। लेकिन क्या भारत को ऐसा मोहरा बनना गवारा होगा? अगर नहीं तो मोदी की अमेरिका यात्रा पर उत्साह से उछलने की जगह हमें इसका कहीं ज़्यादा निमर्म मूल्यांकन करने की और कुछ परिपक्वता दिखाने की ज़रूरत है।