खौफ से आज़ादी और आज़ादी से खौफ

उमर ख़ालिद का किसी धार्मिक कट्टरता में कोई यक़ीन नहीं है, अगर वह अतिवादी हैं तो अतिवाम रुझानों वाले, और उन पर लगे ज़्यादतर आरोप मनगढ़ंत या मुस्लिम पूर्वग्रहों से प्रेरित हैं.

खौफ से आज़ादी और आज़ादी से खौफ

जेएनयू से पीएचडी कर रहे छात्र उमर ख़ालिद को तीन साल पहले तक कोई नहीं जानता था. वह एक छात्र भर थे- शायद कुछ अतिरिक्त उत्साही और जेएनयू के भीतर भी धार्मिक नहीं, राजनीतिक तौर पर बेहद अल्पसंख्यक- क्योंकि जेएनयू में भी उनके संगठन की कोई स्वीकार्यता नहीं थी. उन्होंने एक कार्यक्रम किया, जिसमें संदिग्ध ढंग से कुछ नारे लगे, उनकी कुछ संदिग्ध रिपोर्ट हुई और इसके बाद देश के बड़े हिस्से के लिए वे खलनायक हो गए. उनके इस खलनायकत्व के निर्माण में सिर्फ मीडिया के एक हिस्से का योगदान नहीं रहा, पुलिस और नेताओं की भी अहम भूमिका रही. यह बताया गया कि वे फरार हैं, आतंकी संगठनों के क़रीब हैं, पाकिस्तान भाग गए हैं और उनके फोन पर वहां से हज़ारों कॉल आती रही हैं. यह सूचनाएं सिर्फ़ इधर-उधर से नहीं आती रहीं, देश के गृह मंत्री के आधिकारिक ट्वीट से भी आईं. उन्हें सीधे-सीधे देशद्रोही करार दिया गया और गिरफ़्तार कर लिया गया.

यह बाद में पता चला कि उमर ख़ालिद का किसी धार्मिक कट्टरता में कोई यक़ीन नहीं है, अगर वह अतिवादी हैं तो अतिवाम रुझानों वाले, और उन पर लगे ज़्यादतर आरोप मनगढ़ंत या मुस्लिम पूर्वग्रहों से प्रेरित हैं. उमर खालिद और उनके साथ दिखे छात्रों के ख़िलाफ़ जेएनयू प्रशासन ने जो कार्रवाइयां कीं, उन पर अदालत ने रोक लगा दी और पुलिस ने जो कार्रवाइयां कीं, वे अब तक आधी-अधूरी हैं. अभी तक देशद्रोह के मामले में चार्जशीट की ख़बर नहीं है. इस दौरान उमर ख़ालिद सिंहभूम पर केंद्रित अपनी पीए़चडी थीसिस जमा कर चुके हैं.

जाहिर है, एक खूंख़ार-ख़ौफ़नाक उमर ख़ालिद इस दौरान बनाया गया. उमर ख़ालिद ही नहीं, कन्हैया कुमार भी. उमर और कन्हैया ही नहीं, पूरा जेएनयू जैसे देशद्रोहियों का विश्वविद्यालय घोषित कर दिया गया. यह सवाल बार-बार पूछा गया कि अगर किसी विश्वविद्यालय में देशद्रोह के नारे लगे, देश को टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगे तो ऐसे नारे लगाने वालों का क्या करना चाहिए. अब देश के उपराष्ट्रपति बन गए वेंकैया नायडू ने तब मंत्री रहते लोकसभा में पूछा था कि क्या अमेरिका का कोई विश्वविद्यालय ओसामा बिन लादेन का शहादत दिवस मनाने की इजाज़त देगा? जवाब मशहूर अमेरिकी विश्वविद्यालय प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष ने दिया था- कि देगा. उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय वे जगहें हैं जहां छात्र अच्छी-बुरी हर तरह की बात कह सकते हैं. हम उनसे असहमति जता सकते हैं, उनको सिखाने की कोशिश भी कर सकते हैं, लेकिन वे हमारे लिए मुजरिम नहीं हैं.

एक विश्वविद्यालय हज़ारों छात्रों का होता है. वहां बहस-मुबाहिसे का माहौल उसमें बहुत सारे वैचारिक रंगों की गुंज़ाइश पैदा करता है. ज्यादातर छात्र बीच वाले होते है- अपनी पढ़ाई और अपने करिअर के सीमित लक्ष्यों के प्रति सजग और उससे बाहर न देखने को तैयार. अपने विषयों में भी उन्हें अपने लिए पूरा पोषण मिल जाता है. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें बीच की धारा रास नहीं आती. वे विचारों के चरम पर होते हैं- वे अपनी परंपरा के प्रति खडगहस्त रहने वाले देशभक्त भी हो सकते हैं और हर मूर्ति और परंपरा को तोड़ने का उद्दाम आवेग रखने वाले विद्रोही भी. वक्त की धारा ऐसे सारे अतिवादी पत्थरों का नुकीलापन ख़त्म करती जाती है. जब तक वे कैंपस से निकलते हैं, पहले से ज़्यादा मुलायम और गोल हो चुके होते हैं.

जेएनयू में भी ये सारी धाराएं मिल सकती हैं. उमर ख़ालिद दरअसल ऐसी ही छोटी धारा का प्रतिनिधि मात्र था. लेकिन जिन लोगों ने पहले उसे और फिर पूरे विश्वविद्यालय को देशद्रोही बता डाला और फिर उन लोगों को भी, जिन्होंने उमर या जेएनयू के पक्ष में खड़ा होने की जुर्रत की, वे दरअसल सिर्फ एक छात्र या एक विश्वविद्यालय का नहीं, पूरे देश का अपमान करते रहे. उन्होंने ज्ञान की परिपाटी और और तर्क-वितर्क की परंपरा को नीचा दिखाया. अपनी देशभक्ति के उन्माद में उन्होंने देश का ही क़द छोटा कर दिया. उन्हें सुप्रीम कोर्ट की यह बात भी समझ में नहीं आई कि सिर्फ नारों से देशद्रोह साबित नहीं होता.

इन सबका नतीजा क्या है? जो भीड़ तंत्र आज सड़कों पर दिख रहा है, जो कभी बच्चे बचाने, कभी गौरक्षा करने और कभी देशद्रोही को मारने के नाम पर कानून अपने हाथ में ले रहा है, वह ख़ुद को देश और समाज का रखवाला मान रहा है. यह अनायास नहीं है कि पहलू ख़ान की हत्या के बावजूद मुकदमा उनके बेटे झेल रहे हैं और आरोपी खुले में घूम रहे हैं, जबकि उमर ख़ालिद के मामले में पुलिस से पहले बीजेपी सांसद मीनाक्षी लेखी इस पूरे हमले पर संदेह और सवाल खड़े कर दे रही हैं. चाहें तो याद कर सकते हैं कि केंद्र के इशारों पर चलने वाली दिल्ली पुलिस- जो बात-बात पर आम आदमी पार्टी के विधायकों को जेल में डाल दिया करती है- वह अदालत में पेशी के वक़्त कन्हैया कुमार की सार्वजनिक तौर पर पिटाई करने वाले पर कोई कार्रवाई न कर सकी.

उमर ख़ालिद पर हमले की कोशिश बड़ी मामूली सी थी. कोई बहुत शातिर अपराधी होता तो वह उसे मारकर निकल जाता. लेकिन जिसने उमर ख़ालिद के साथ मारपीट की और फिर कहीं और गोली चलाकर निकल गया, वह कोई नौसिखिया क़िस्म का देशभक्त रहा होगा. जाहिर है, एकाध नाकामियों के बाद उसके हाथ भी सध जाएंगे, उसकी आंखें भी अपने निशाने पर सही ढंग से जमा करेंगी. वह भी इन तथाकथित देशभक्तों के गिरोह का शातिर बंदूकची साबित होगा.

असली ख़तरा यही है-  15 अगस्त के ठीक पहले जब एक संगठन ख़ौफ़ से आज़ादी जैसा कार्यक्रम कर रहा हो, तब खौफ़ का खेल खेलने वाले अपना खेल खेल कर निकल जाएं और उसके बाद बयानों का खेल चलता रहे, जबकि लोग यह भूल जाएं कि राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद का पोषण करने और उससे पोषण पाने वाली वैचारिकी पहले एक मामूली से छात्र को विराटकाय खलनायक में बदलने की कोशिश करती है और बाद में उसकी हत्या करने की. बरसों पहले रघुवीर सहाय ने आज़ादी में छुपी कई गुलामियों की शिनाख़्त की थी- लेकिन उस दौर में विचारों की ऐसी गुलामी नहीं थी जो आज़ादी और जीवन की राह ही अवरुद्ध करने पर तुली हो. विचारों से आज़ादी का ख़ौफ़ भी दरअसल लोगों को उन्मादी बनाता है. वे ऐसी आज़ादी से डरते हैं और इस आज़ादी की मांग करने वालों को सज़ा देते हैं. इस ख़ौफ़ का खतरा हमारे सामने है और इस ख़ौफ़ से आज़ादी की आज कहीं ज़्यादा ज़रूरत है.


प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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