क्या लखीमपुर को कांग्रेस अपने 'अण्णा लम्हे' में बदल सकती है?

अगर लखीमपुर के मामले में विपक्ष ने दख़ल नहीं दिया होता तो नाइंसाफ़ी की कहानी कुछ और क्रूर और बड़ी होती. हालत यह है कि अभी तक इस हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों को सरकार ने ठीक से सूचना नहीं दी है- मुआवज़े की जानकारी तो दूर की बात है.

क्या लखीमपुर को कांग्रेस अपने 'अण्णा लम्हे' में बदल सकती है?

लखीमपुर खीरी में रविवार को हई हिंसा में 4 किसानों सहित आठ लोगों की मौत हुई थी (फाइल फोटो)

लखीमपुर खीरी का हादसा राहुल और प्रियंका गांधी के लिए एक 'लिटमस टेस्ट' भी है- इस बात का कि क्या उनमें एक ज़रूरी मुद्दे को उसकी अलोकतांत्रिक घेरेबंदी से बाहर लाकर एक लोकतांत्रिक चिंता में बदलने की क्षमता है? लखीमपुर खीरी हादसे के बाद जो कुछ हो रहा है, वह लोकतांत्रिक मूल्यों की अवमानना है. ऐसा लग रहा है जैसे इस देश में जनता के प्रति उत्तरदायी कोई सरकार नहीं चल रही, बल्कि इसे एक उद्धत-अहंकारी सत्ता चला रही है जो किसी मंत्री की गाड़ी द्वारा किसानों के कुचले जाने का बुरा नहीं मानती. इस बात की परवाह नहीं करती कि मंत्री का इस्तीफ़ा लिया जाए, यह खयाल भी नहीं रखती कि वह न्याय के प्रति संवेदनशील दिखे और इस बात की भी फ़िक्र नहीं करती कि वह लोकतांत्रिक परंपराओं की रक्षा करती नज़र आए. क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर यह सरकार एक इलाक़े में इंटरनेट बंद कर देती है, राज्य में धारा 144 लागू कर देती है, मुख्यमंत्रियों को हवाई अड्डों पर रोकती है और किसी भी नेता को लखीमपुर खीरी पहुंचने की इजाज़त नहीं देती.

कोई सरकार ऐसा करे तो वह एक तरह से लोकतंत्र को नहीं, पुलिस राज को प्रोत्साहित करती है. ऐसे राज में पुलिस तंत्र और दूसरी सारी एजेंसियां सरकार के लठैतों की तरह काम करते नज़र आते हैं. दुर्भाग्य से यह प्रक्रिया लखीमपुर खीरी से काफ़ी पहले अपने यहां घटित होती दिख रही है. इस प्रक्रिया के लोकतांत्रिक प्रतिरोध की जो व्यवस्थाएं हैं, उनमें एक न्यायपालिका कुछ हद तक स्वतंत्र ढंग से काम करती दिख रही है लेकिन उसकी भूमिका भी लोकतंत्र के बाक़ी पहरुओं की रचनात्मक भूमिका के अभाव में काफ़ी दबाव में दिख रही है. साथ ही हर व्यवस्था की तरह उसके अपने पूर्वग्रह हैं. दूसरी बड़ी जवाबदेही मीडिया की है. लेकिन वह सत्ता और पूंजी के दोहरे दबाव में लगभग आतंकित दिखाई पड़ता है. बल्कि यह आतंक से ज़्यादा प्रलोभन है जो बहुत सारे मीडिया संस्थानों को बिल्कुल सरकार की लाइन पर चलने को प्रेरित करता है.

लेकिन इसी मोड़ पर विपक्ष की भूमिका शुरू होती है. उसे याद दिलाना पड़ता है कि भारतीय लोकतंत्र में शांतिपूर्ण विरोध और प्रतिरोध की भी एक जगह है और ऐसा माहौल बनाना पड़ता है कि मीडिया भी उस पर ध्यान दे और न्यायपालिका भी उससे कुछ भरोसा हासिल करे.

इसमें शक नहीं कि लखीमपुर खीरी के मामले में कांग्रेस ने विपक्ष की यह ज़रूरी भूमिका निभाई है. जब राजनीतिक दलों को लखीमपुर खीरी जाने से रोका जा रहा था तो पहले प्रियंका गांधी ने मोर्चा खोला. अपने घर के बाहर खड़े पुलिस अधिकारियों को चुनौती देती हुई वे निकल पड़ीं, पुलिस वाले जब तक संभलते तब तक एक इनोवा में बैठकर वे आगे निकल चुकी थीं. पुलिसवालों ने तय किया कि टोल प्लाजा पर उन्हें रोक लिया जाएगा. लेकिन टोल प्लाजा पर गाड़ी रुकी तो प्रियंका उसमें नहीं मिलीं. वे एक छोटी सी कार से आगे निकल चुकी थीं. बहरहाल, जब उन्हें सीतापुर में रोक कर गेस्ट हाउस ले जाया गया तो उन्होंने वहां पहले झाड़ू लेकर अपने कमरे की सफ़ाई की. मीडिया ने यह तस्वीर भी खूब दिखाई. इसके बाद वहीं बैठे-बैठे उन्होंने समाचार चैनलों को इंटरव्यू दिए. अगले दिन सीधे प्रधानमंत्री से सवाल पूछा. इस पूरे दौरान प्रियंका विपक्ष के प्रतिरोध का चेहरा बनी रहीं. अखिलेश यादव, संजय सिंह या सतीश चंद्र मिश्र इसके बाद सामने आए. लेकिन उनके तेवर में वह धार नहीं दिखी जो प्रियंका में दिखती रही. 

बुधवार को राहुल गांधी ने मोर्चा संभाला. पहले दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस की, फिर लखीमपुर जाने देने की इजाज़त के लिए अड़े और उसके बाद लखनऊ हवाई अड्डे पर बाक़ायदा धरने की मुद्रा में बैठ गए- क्योंकि प्रशासन चाहता था कि वे अपनी गाड़ी से न जाएं. इस दौरान कांग्रेस के दूसरे नेता भी सक्रिय हुए. सचिन पायलट भी लखीमपुर के लिए चले जिन्हें जगह-जगह रोका गया. लेकिन दिल्ली से लखनऊ और लखीमपुर तक कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का उत्साह देखने लायक था.सवाल है, इस पूरी क़वायद का असर क्या रहा? क्या ऐसी किसी घटना को कांग्रेस के पुनरुद्धार के अवसर की तरह देखना मूल त्रासदी से ध्यान भटकाना नहीं है? 

पहली नज़र में यह बात सही लगती है. लेकिन कल्पना करें कि अगर विपक्ष ने इतना तीखा प्रतिरोध न किया होता तो क्या होता. कुचले गए किसानों की सुनने वाला कोई नहीं होता. बल्कि उनको कुचलने की घटनाएं और ज़्यादा बढ़ जातीं. अगर यह इत्तिफ़ाक है तो भी बुरा इत्तिफ़ाक है कि इस हादसे के कुछ दिन पहले ही गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा ने इन किसानों को नतीजा भुगतने की चेतावनी दी थी. यही नहीं, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने भी कहा कि इन किसानों की पिटाई होनी चाहिए. 

तो अगर लखीमपुर के मामले में विपक्ष ने दख़ल नहीं दिया होता तो नाइंसाफ़ी की कहानी कुछ और क्रूर और बड़ी होती. हालत यह है कि अभी तक इस हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों को सरकार ने ठीक से सूचना नहीं दी है- मुआवज़े की जानकारी तो दूर की बात है. उनके बाक़ी इंसाफ़ की प्रक्रिया शुरू भी नहीं हुई है- पुलिस नेताओँ को धरने-पकड़ने-रोकने में लगी हुई है, लखीमपुर के आरोपियों से पूछताछ करने या उन्हें गिरफ़्तार करने की फ़ुरसत अभी तक उसके पास नहीं है. इन सबके बीच बीजेपी के प्रवक्ता किसानों के शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन में तरह-तरह की डरावनी तस्वीरें खोजते और दिखाते रहे हैं जो बाद में बेबुनियाद निकलीं. यानी विपक्ष नहीं होता तो यह पलटी हुई कहानी चलती रहती.

दरअसल, इस पूरे मामले के दो और पहलू हैं. केंद्र सरकार किसान आंदोलन को लेकर जो अहंकारी रवैया दिखाती रही है, उसकी पूरी तस्वीर लखीमपुर खीरी की वारदात में सामने आई है. इसके बाद राज्य और केंद्र सरकार का रुख़ कुछ वैसा ही है जैसा अण्णा आंदोलन की शुरुआत में 2010 के आसपास यूपीए सरकार का था. वह समझ ही नहीं पाई कि अण्णा आंदोलन से कैसे निबटें. तब तक विपक्ष के तौर पर बीजेपी की वही दशा थी जो इन दिनों कांग्रेस की है. 2009 में ही दुबारा चुनकर सत्ता में आई मनमोहन सरकार बिल्कुल अजेय दिखती थी. इस अजेयता का अहंकार था कि कभी सरकार के मंत्री अण्णा हज़ारे का स्वागत करते नजर आए और कभी उनको गिरफ़्तार करते दिखे. कुल मिलाकर उस आंदोलन ने जो हवा बनाई, वह ऐसे तूफ़ान में बदल गई जिसमे यूपीए अपने बहुत सारे अच्छे फ़ैसलों के बावजूद उड़ गया. अब किसान आंदोलन के साथ मौजूदा मोदी सरकार का रवैया भी कुछ वैसा ही दिख रहा है.

लेकिन यहां दो पेच हैं. पहली बात तो यह कि अण्णा आंदोलन से पैदा हुए तूफ़ान को लपकने के लिए बीजेपी के पास एक संगठन था और संघ परिवार की शक्ति थी. बल्कि यह भी माना जाता है कि अण्णा आंदोलन में शुरू से बहुत सारे दक्षिणपंथी तत्वों की भी शिरकत रही. लेकिन क्या कांग्रेस के पास भी किसान आंदोलन या लखीमपुर खीरी से पैदा तूफ़ान को समेट सकने वाला कोई सांगठनिक आधार है?  इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस बहुत पुरानी पार्टी है और लगभग हर जगह उसके सदस्य मौजूद हैं, लेकिन उनकी सांगठनिक गतिशीलता बरसों से ज़ंग खाकर कुंद हो चुकी है. 

दूसरी बात यह कि यह वह दौर है जब कांग्रेस के भीतर कई तरह के टकराव जारी हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ तक पुराने और नए नेता एक-दूसरे से उलझे हुए हैं. खुद को जी-23 बताने वाले असंतुष्टों का खेमा तरह-तरह के दावे और इशारे कर रहा है. माना यह भी जा रहा है कि राहुल और प्रियंका अब अपने ढंग से अपनी कांग्रेस बनाने की कोशिश में हैं. कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं को कांग्रेस के जोड़ने का एक मतलब यह भी है. 

लखीमपुर खीरी इस लिहाज से भी राहुल और प्रियंका गांधी का इम्तिहान है. अरसे बाद कांग्रेस के नेता इस तरह सड़क पर दिख रहे हैं. अरसे बाद कांग्रेस के नेता सरकार और प्रशासन को झुकाते नज़र आ रहे हैं. अगर उनकी कोशिश से सरकार लखीमपुर के इंसाफ़ की दिशा में कुछ क़दम भी आगे बढ़ने को मजबूर हुई, अगर इस मामले के आरोपी गिरफ़्तार किए जा सके तो यह बड़ी कामयाबी होगी- इस बात पर मुहर भी कि कांग्रेस ही फिलहाल असली विपक्ष है और राहुल-प्रियंका ही कांग्रेस के वे नेता जो सवा सौ साल पुरानी इस पार्टी को आगे ले जा सकते हैं- संगठन के लिहाज से भी और मुद्दों के लिहाज से भी.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं.

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