प्रधानमंत्री के आंसुओं के बीच कुछ ख़याल

ज़िंदगी में भी रुलाइयां बार-बार उमड़ती हैं. शादी के बाद घरों से विदा लेती बेटियां रोती हैं. उनकी मांएं रोती हैं, जो भाई जीवन भर बहनों को उपेक्षा के साथ देखते रहे, स्कूल-कॉलेज-दफ़्तर तक उनके चाल-चलन पर नज़र रखते रहे, वे भी चुपके-चुपके किसी कोने में जाकर रोते हैं कि बहन अब परायी हो गई.

प्रधानमंत्री के आंसुओं के बीच कुछ ख़याल

राज्‍यसभा में गुलाम नबी आजाद के लिए 'विदाई' भाषण देते हुए पीएम नरेंद्र मोदी भावुक हो उठे

मैं उन लोगों में नहीं हूं जो समझते हैं कि राज्यसभा में गुलाम नबी आज़ाद के लिए विदाई भाषण देते हुए प्रधानमंत्री का रो पड़ना किसी नाटक का हिस्सा था. मैं बिल्कुल दिल से यह मानता हूं कि वे आंसू सच्चे थे. बहुत स्वाभाविक है कि आप जिन लोगों के संपर्क में आए हों, उनके साथ बिताए गए कई लम्हे ऐसे हों जो आपको भावुक करते हों. प्रधानमंत्री ने यह भावुकता दिखाई तो ग़ुलाम नबी आज़ाद भी भावुक हो उठे.

लेकिन रो पड़ना भावुकता की निशानी तो है, क्या वह किसी दीर्घजीवी संवेदना की, किसी दीर्घकालीन प्रतिबद्धता की भी निशानी है? बहुत सारे लोग फिल्में या टीवी सीरियल देखते हुए रो पड़ते हैं. दिल्ली के मल्टीप्लेक्स में बहुत सारे लोग पॉपकॉर्न खाते हुए किरदारों के मिलन या विछोह पर आंसू बहाते नज़र आ जाते हैं. क्या उनके आंसू नकली होते हैं? नहीं. वे वाकई दिल से रोते हैं- इसके बावजूद कि वे जानते हैं कि ये सब कहानियां हैं जो तीन घंटे में (अब तो दो घंटे में ही) ख़त्म हो जानी हैं, कि ये लैला-मजनूं या शीरीं-फ़रहाद या उनके तरह-तरह के संस्करण असली नहीं हैं.

फिर वे क्यों रोते हैं? क्योंकि उनके भीतर एक कोमल हिस्सा है जो एक नकली कहानी की रोशनी में भी चमक उठता है. तब इस कोमल हिस्से की राह में कोई दुनियावी रुकावट नहीं आती, स्वार्थों की कोई टकराहट नहीं आती, दिमाग को किसी और ढंग से सोचने की जहमत मोल नहीं लेनी पड़ती. यही लोग जब सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं या घरों पर सीरियल पूरा देख चुके होते हैं तो बड़े मज़े में ज़िंदगी के दूसरे कामकाज में लग जाते हैं.

सिनेमा को छोड़ें, ज़िंदगी में लौटें. ज़िंदगी में भी रुलाइयां बार-बार उमड़ती हैं. शादी के बाद घरों से विदा लेती बेटियां रोती हैं. उनकी मांएं रोती हैं, जो भाई जीवन भर बहनों को उपेक्षा के साथ देखते रहे, स्कूल-कॉलेज-दफ़्तर तक उनके चाल-चलन पर नज़र रखते रहे, वे भी चुपके-चुपके किसी कोने में जाकर रोते हैं कि बहन अब परायी हो गई. लेकिन बहनों को विदा होने से कोई रोकता नहीं. बल्कि वे बहनें अगर किसी मोड़ पर घर की संपत्ति में हिस्सा मांग लें तो रोने वाले भाइयों के लिए बिल्कुल दुश्मन हो जाती हैं.

यानी रोना एक तात्कालिक आवेग है. उसका दीर्घकालीन संवेदना से वास्ता नहीं है. इसलिए अगर किसी मौक़े पर आपके आंसू सच्चे भी हों तो महत्वहीन हैं. वे चरित्र में बसी किसी स्थायी करुणा की निशानी नहीं हैं. बेशक, आपके आंसुओं से यह समझा जा सकता है कि आपकी प्राथमिकताएं क्या-क्या हैं. प्रधानमंत्री के मन के बारे में कुछ नतीजे इस बात से निकाले जा सकते हैं कि वे पहले कब-कब रोए हैं.

यह सच है कि आंसुओं की भी अपनी राजनीति होती है, उनका गहरा राजनीतिक असर होता है. ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब दिल्ली की सरहदों पर चल रहे किसान आंदोलन को राकेश टिकैत के आंसुओं ने नया जीवन दे दिया. टिकैत आंदोलन के लिए नहीं रो रहे थे. वे सरेंडर करने, गिरफ़्तारी देने को तैयार थे. लेकिन ऐन मौक़े पर प्रशासन का सख़्त रवैया उन्हें खल गया. फिर उन्होंने एक बीजेपी विधायक को अपने लोगों के साथ दादागीरी करते देखा. इसके बाद वे भावुक हो गए. अड़े और रो पड़े. मोर्चा छोड़ कर भाग रहे सैनिकों को अपने सेनापति की ये रुलाई मंज़ूर नहीं थी. किसान आंदोलन पुनर्जीवित हो गया.

बिहार के एक मुख्यमंत्री हुआ करते थे- महामाया प्रसाद. वे भाषणों के बीच रो दिया करते थे. वे वाकई भावुक हो जाया करते थे. 1955 में पटना में छात्रों के प्रदर्शन पर पुलिस ने गोली चलाई. एक छात्र की मौत हो गई. महामाया बाबू इस प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे. इसके बाद उन्होंने कई सभाएं कीं. उनका संबोधन इस वाक्य से शुरू होता था- मेरे जिगर के टुकड़ो, और वे रो पड़ते थे. उन्होंने 1957 के विधानसभा चुनाव में राज्य के परिवहन मंत्री को हराया. दस साल बाद उन्होंने केबी सहाय जैसे दिग्गज मुख्यमंत्री को हराया और बिहार की पहली गैरकांग्रेसी सरकार का मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे. बेशक, यह ओहदा उनके पास संसोपाइयों की अंदरूनी खींचतान में आया था और बहुत दिन तक रह नहीं पाया, लेकिन महामाया बाबू आज भी अपने आंसुओं के लिए याद किए जाते हैं.

बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि बराक ओबामा अपने कार्यकाल में सात बार रोए थे. कुछ अवसर अपने आत्मीय जनों के देहावसान के थे. लेकिन दो अवसर ऐसे थे जिनसे उनकी राजनीतिक संवेदनशीलता का पता चलता है. 2012 में एक स्कूल में हुई गोलीबारी में 12 बच्चों की मौत ने उन्हें रुला दिया था. इसके बाद संसद में जब वे ऐंटी गन लॉ पेश कर रहे थे तब भी रो पड़े थे. इस क़ानून को पास न करा पाना वे अपनी बड़ी विफलताओं में गिनते रहे.

 भारत के सार्वजनिक जीवन में रोने के मौक़े बहुत सारे आए हैं- कुछ दुख इतने गहरे और गंभीर रहे हैं कि वाकई हमारे नेता संवेदनशील होते तो आंसुओं का सैलाब आ जाता. लेकिन ज़्यादातर अवसरों पर उन्होंने ग़ैरज़िम्मेदार सपाटबयानी का प्रदर्शन किया है. 1984 की हिंसा के बाद राजीव गांधी अपने इस वक्तव्य के लिए कभी माफ़ नहीं किए जाएंगे कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो मिट्टी हिलती है. लेकिन तब उनको राजनीति में आए महज दो साल हुए थे और उनकी कुल उम्र 35 बरस की नहीं थी. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने भी गुजरात के दंगों का दुख पूछे जाने पर यह जवाब देकर बहुत निम्नस्तरीय और निर्लज्ज संवेदनहीनता का प्रदर्शन किया था कि गाड़ी के नीचे पिल्ला भी आ जाए तो अफ़सोस होता है. इस बात को क्या वे कुछ और संजीदा शब्दों में नहीं रख सकते थे?

दरअसल भारतीय जनता ने अपने नेताओं से संवेदनशील होने की उम्मीद इस क़दर छोड़ दी है कि रोना उन्हें अजूबा लगता है. या फिर वे मान लेते हैं कि वे घड़ियाली आंसू हैं (जैसा बहुत सारे  लोग आज़ाद प्रकरण में मान रहे हैं- यह राजनीतिक संभावना तलाशते हुए कि आज़ाद अब बीजेपी या प्रधानमंत्री के ग़ुलाम तो नहीं होने जा रहे?). लेकिन अमूमन हमारे नेता रोते नहीं. शायद इसके पीछे एक वजह यह मर्दवादी आग्रह भी है कि पुरुष रोया नहीं करते. लेकिन नेताओं को कुछ कम पुरुष और कुछ ज़्यादा मनुष्य होकर जीना चाहिए.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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