...ताकि हिंदुस्तान, हिंदुस्तान बना रहे

पाकिस्तान की मुख्यधारा दुर्भाग्य से अब भी वही लोग बना रहे हैं जो पाकिस्तान को बिल्कुल किसी अंधेरे दौर में ले जाने पर आमादा हैं.

...ताकि हिंदुस्तान,  हिंदुस्तान बना रहे

एक समय हॉकी और क्रिकेट, दोनों खेलों में पाकिस्‍तान का वर्चस्‍तव हुआ करता था (फाइल फोटो)

इस शनिवार को भारत और पाकिस्तान के बीच हॉकी का एकतरफ़ा मुक़ाबला पाकिस्तान के बहुत सारे लोगों के लिए दिल तोड़ने वाला रहा होगा. आखिर ये वही पाकिस्तान है जिसने एक दौर में ओलिंपिक हॉकी में भारत का वर्चस्व तोड़ा था और बाद में बरसों तक विश्व की बेहतरीन टीम बना रहा. 1982 के एशियाड के हॉकी फाइनल में इसी पाकिस्तान ने भारत को 7-1 से ऐसी शिकस्त दी कि उससे उबरने के लिए बरसों बाद शाहरुख़ खान को 'चक दे इंडिया' जैसी फ़िल्म बनानी पड़ी.

पाकिस्तान की हॉकी को क्या हो गया है? इस सवाल का जवाब खोजने से पहले पाकिस्तान के क्रिकेट की हालत देख लें. सत्तर और अस्सी के दशकों में पाकिस्तान के क्रिकेट का जलवा था. 1977-78 में भारतीय टीम जब पाकिस्तान के दौरे पर गई थी तो लगता था कि ज़हीर अब्बास और जावेद मियांदाद जैसे खिलाड़ी आउट ही नहीं होंगे. बेशक, भारत ने 1983 का विश्व कप जीता था और 1985 के बेंसन ऐंड हेजेज के फ़ाइनल में पाकिस्तान को हराया था, लेकिन पाकिस्तान हमेशा वह प्रतिद्वंद्वी रहा जो भारत की नींद उड़ाता रहा. शारजाह में जावेद मियांदाद का छक्का अरसे तक भारत की छाती में 'धंसा' रहा. लेकिन आज हालत ये है कि पाकिस्तान में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट बंद है- वह बाहर खेलता है और टेस्ट मैचों में सातवें नंबर की टीम है और वनडे में छठे नंबर की- बेशक वह टी-20 में दूसरे नंबर पर है-लेकिन पाकिस्तान की वह धाक नहीं रही जो हुआ करती थी.

दरअसल ये सिर्फ़ हॉकी या क्रिकेट का मामला नहीं है. पाकिस्तान जैसे हर मामले में अपनी धाक और धमक खो रहा है. पिछले कई दशकों से जो लोग वहां इस्लामी क्रांति का सपना बो रहे थे, वे शायद बहुत दूर तक कामयाब रहे हैं क्योंकि देश के एक बड़े हिस्से का दिमाग उन्होंने कठमुल्लेपन की ओर धकेल दिया है. अब पाकिस्तान का ज़िक्र आतंकवाद की मदद के लिए होता है, आतंकवादियों को पनाह देने के लिए होता है, तरह-तरह के धमाकों के लिए होता है और एक ऐसे असुरक्षित देश के तौर पर होता है जहां कभी भी कोई भी मारा जा सकता है.

ऐसा नहीं कि सारा का सारा पाकिस्तान ऐसा है. इन्हीं बरसों में वहां ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने इस बढ़ते हुए उन्माद के ख़िलाफ़ लोहा लिया है. इन्हीं बरसों में यह हुआ है कि पाकिस्तान में पहली बार कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर पाई और लोकतंत्र और चुनाव के ज़रिए तख़्तापलट हुआ. इन्हीं बरसों में सुप्रीम कोर्ट इतना आज़ाद दिखा कि पनामा पेपर्स में किसी प्रधानमंत्री को सत्ता छो़ड़ने को मजबूर कर दे. इन्हीं बरसों में कई गोलियां खाने और लगातार दहशत के साये में रहने के बावजूद प्रेस इतना आज़ाद दिखा कि अपने हुक्मरानों की निंदा कर सके. वहां भी ऐसे दीवाने हैं जो सचिन तेंदुलकर से प्यार करें और भारत का झंडा लेकर घूमते हुए सज़ा पाएं, जो किसी मूक भारतीय लड़की को बरसों तक पालें और एक दिन सुरक्षित सीमा पार पहुंचा आएं. वहां भी ऐसे शायर हैं जो 'मैं भी काफ़िर तू भी काफ़िर' जैसे तीखे व्यंग्य से लैस नज़्म लिख सकें और फह़मीदा रियाज़ जैसी शायरा भी जो भारत आकर चुटकी ले सकें कि 'तुम भी हम जैसे निकले भाई, वो मूरखता वो घामड़पन जिसमें हमने सदी गंवाई, आ पहुंची अब द्वार तुम्हारे, अरे बधाई बहुत बधाई.' लेकिन पाकिस्तान की मुख्यधारा दुर्भाग्य से अब भी वही लोग बना रहे हैं जो पाकिस्तान को बिल्कुल किसी अंधेरे दौर में ले जाने पर आमादा हैं. पहले अल्लाह, आर्मी और अमेरिका का जो त्रिकोण पाकिस्तान को चलाता था, उसका गठजोड़ भले एक-दूसरे से कुछ कमज़ोर हुआ हो, लेकिन अब भी पाकिस्तान इन्हीं तीन ताकतों के बीच जैसे झूल रहा है. वहां कट्टरता गहरी हो रही है या उसके आगे समर्पण बड़ा हो रहा है.

मगर यह पाकिस्तान के लिए नहीं लिखा जा रहा, उस हिंदुस्तान को समझाने के लिए लिखा जा रहा है जो पाकिस्तान जैसा होने पर आमादा है, जो अपनी किसी हरकत को सही बताने के लिए बार-बार यह उदाहरण देता है कि पाकिस्तान में भी ऐसा ही होता है या क्या पाकिस्तान में ऐसा संभव है? यह सच है कि भारत और पाकिस्तान एक ही कोख से निकले हैं, बहुत सारा कुछ आपस में साझा करते हैं. लेकिन यह भी सच है कि आज़ादी के बाद भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने जिस लोकतंत्र और बहुलतावाद की नींव यहां डाली, वह पाकिस्तान के मुक़ाबले बहुत मज़बूत निकली. इसी का असर है कि धीरे-धीरे ही सही हम एक ताकतवर मुल्क की तरह खड़े हो रहे हैं. इस मुल्क में फलता-फूलता एक बाज़ार है जिससे हमारा क्रिकेट भी फूल-फल रहा है और हमारी हॉकी भी. अगर यह बहुलतावाद टूटा, अगर यह लोकतंत्र कमज़ोर पड़ा, अगर बहुसंख्यकवादी इकहरापन हावी हुआ तो हमें पाकिस्तान होने में देरी नहीं लगेगी. फिर हम भी वैसे ही हो जाएंगे और एक दिन पाएंगे कि हमारा क्रिकेट, हमारी हॉकी, हमारी समृद्धि सब थके-चुके, निस्तेज हैं और हम आपस में लड़ती-कटती, एक-दूसरे से नफ़रत करती ज़मात में बदलते चले जा रहे हैं.

पाकिस्तान हमेशा से ऐसा नहीं था जैसा आज है. अपने सैन्य नेतृत्व के बावजूद, अपने अयूब, याह्या, ज़ुल्फ़ीकार, जिया और मुशर्रफ़ के बावजूद वह अपनी विरासत के चलते भारत जैसा ही एक तरक्क़ीपसंद समाज भी था. उसके पास लाहौर की परंपरा थी और कराची की आधुनिकता थी. जब 1992 में इमरान ख़ान के नेतृत्व में पाकिस्तान की टीम ने विश्व कप जीता था तो वह टीम किसी खुदा के सजदे के लिए नहीं झुकी थी, उसने विक्टरी की वी साइन बनाया था.


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ऐसा नहीं कि ख़ुदा के सजदे के लिए झुकना बुरी बात है, और वी साइन बनाना अच्छी बात, लेकिन लगातार कट्टरता के साये में जीते हुए समाज में थोपी हुई इबादत वह चीज़ है जो भगवान को भगवान नहीं रहने देती और इंसान को इंसान नहीं रहने देती. उसने पाकिस्तान को पाकिस्तान नहीं रहने दिया है, अगर हम चाहते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुस्तान बना रहे तो उसे इस कट्टरता से सावधान रहना होगा.

प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं

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