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This Article is From Oct 07, 2019

एक दलित को विभागाध्यक्ष बनने से क्यों रोक रहा है दिल्ली विश्वविद्यालय?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    October 07, 2019 16:45 IST
    • Published On October 07, 2019 16:41 IST
    • Last Updated On October 07, 2019 16:41 IST

श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा का नाम है- 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर.' यह आत्मकथा बताती है कि एक दलित बचपन कैसा होता है. बचपन बीत गया, लेकिन अपनी दलित पहचान का सलीब अब भी अपने कंधों पर लेकर घूमने को मजबूर हैं श्यौराज सिंह बेचैन. वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पढ़ाते हैं. वरिष्ठता क्रम में बीते महीने की तेरह तारीख़ को उनको विभागाध्यक्ष बनाया जाना था. बताया जाता है कि बारह तारीख़ को विश्वविद्यालय ने उनसे दस्तावेज़ लिए, उनके नाम पर लगभग मुहर लगा दी.

लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि सारी प्रक्रिया ठप्प कर दी गई. पिछले क़रीब एक महीने से अब हिंदी विभाग में कोई विभागाध्यक्ष नहीं है. बताया जा रहा है कि एक अन्य प्राध्यापाक ने वरिष्ठता क्रम में अपनी दावेदारी ठोक दी. बताया यह भी जा रहा है कि उस प्राध्यापक की दावेदारी दो बार विश्वविद्यालय खारिज कर चुका है. लेकिन कुछ प्रभावशाली नेताओं और पत्रकारों का दबाव ऐसा है कि विश्वविद्यालय श्यौराज सिंह बेचैन के नाम पर अंतिम राय बनाने से डर रहा है.

श्योराज सिंह बेचैन अगर हिंदी विभाग के अध्यक्ष नहीं बनेंगे तो उनका क्या बिगड़ेगा? वे पिछले तीन दशकों से लगातार लिख रहे हैं. तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं. अरसे तक उन्होंने अखबारों में कॉलम लिखे हैं. उनकी किताबों की संख्या बहुत बड़ी है. उनको मिले सम्मानों की संख्या भी बहुत ज्यादा है. उनकी आत्मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद हो चुका है और इसे ऑक्सफोर्ड ने छापा है. उन पर कई शोध हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय का विभागाध्यक्ष पद इस लिहाज से उनकी कीर्ति में कुछ जोड़ता नहीं है.

लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए यह किसी बदनुमा दाग़ से कम नहीं कि वह एक दलित को पहली बार विभागाध्यक्ष बनाने के ऐतिहासिक अवसर को टालने की कोशिश कर रहा है. 1922 में स्थापित दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अभी तक किसी दलित को विभागाध्यक्ष होने का मौक़ा नहीं मिला है. श्यौराज सिंह बेचैन उदार लेखक हैं. वे दलित आंदोलनों को सहानुभूति के साथ देखते रहे हैं, लेकिन बहुत आक्रामक ढंग से उसका हिस्सा नहीं रहे हैं. संभव है, कुछ लोग इस बात के लिए उनकी आलोचना भी करते रहे हों. लेकिन वे मूलतः मुख्यधारा के ऐसे लेखक हैं जिनसे किसी को भयभीत नहीं होना चाहिए. इस पूरे विवाद के बीच वे बिल्कुल चुपचाप रहे हैं. फिर भी यह उनकी वैचारिक अवस्थिति और जातिगत पहचान है जिसकी वजह से अपनी वरिष्ठता के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय उनको अपने लिए असुविधाजनक मान रहा है.

यह दलील बहुत सहूलियत भरी है कि अगर किसी प्राध्यापक ने उनकी वरिष्ठता को चुनौती दी है तो इसमें विश्वविद्यालय क्या कर सकता है और जाति कहां से आती है? दरअसल यह चुनौती भी याद दिलाती है कि असली दावेदारों को नकली दावों से विस्थापित करने का खेल पुराना है और इसमें तर्क से ज़्यादा ताक़त की चलती रही है. जाहिर है, अगर बेचैन दलित न होते तो उनकी वरिष्ठता को इतनी आसानी से चुनौती देना आसान नहीं होता. लेकिन शायद अब दलित पहचान को चुनौती देना भी इतना आसान नहीं रह गया है. श्यौराज सिंह बेचैन को न्याय दिलाने के लिए लोग एकजुट हो रहे हैं. सोमवार को दिल्ली विश्वविद्यालय में एक सांकेतिक मार्च भी निकाला गया. जाहिर है, देर-सबेर श्यौराज सिंह बेचैन को उनका अधिकार देना होगा. लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय सम्मान के साथ यह काम कर सके तो उसकी गरिमा भी बढ़ेगी, दलित अस्मिता का भरोसा भी बढ़ेगा.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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