प्रियदर्शन की त्वरित टिप्पणी : क्या मैं प्रधानमंत्री की तारीफ़ करूं?

प्रियदर्शन की त्वरित टिप्पणी : क्या मैं प्रधानमंत्री की तारीफ़ करूं?

शुक्रवार को लोकसभा में भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी।

नई दिल्ली:

आज संसद में प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा, मैं उसकी तारीफ करना चाहता हूं। उन्होंने संविधान पर जितना जोर दिया, उसके अंतर्निहित मूल्यों पर जिस तरह बल दिया, वह एक प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुरूप था। उन्होंने आइडिया ऑफ इंडिया को जिन सूत्रों के सहारे समझने और समझाने की कोशिश की, उन्हें मैं भी स्वीकार करता हूं। उन्होंने भारत की सामाजिक परंपरा में आत्मपरिष्कार की क्षमता का जिक्र करते हुए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबा फुले और नरसी मेहता से लेकर महात्मा गांधी को याद किया। यह वह परंपरा है जिसने भारतीय सामाजिकता का आधुनिकीकरण किया है, उसे ऐसा उदार बहुलतावादी चरित्र प्रदान किया है जिसका जवाब नहीं।

लेकिन वह कौन सी चीज़ है जो मेरी तरह के किसी लेखक को प्रधानमंत्री की तारीफ करने से रोक देती है? क्या मोदी विरोध का वह मुहावरा जो हमारी तरह के लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है- बिना यह समझे कि आखिर इस मोदी विरोध के मूल में हिंसा और अन्याय की कैसी तीखी चुभन है? दरअसल प्रधानमंत्री का एक घंटे का जो भाषण है, वह पिछले चार दिन में उनके करीबी सहयोगियों से लेकर दूरस्थ समर्थकों तक के सामाजिक आचार-व्यवहार और विचार का विलोम है। या तो यह भाषण सच है या फिर वह व्यवहार सच है। एक ही पार्टी और सरकार के भीतर दोनों तरह के व्यवहार और विचार नहीं चल सकते, क्योंकि वे बिल्कुल एक-दूसरे के विरुद्ध हैं।

चलिए, हम पुरानी नाइंसाफ़ियों की बात नहीं करते- हालांकि यह न करते हुए हम अन्याय की एक परिपाटी को बढ़ावा देते हैं। लेकिन चूंकि वह बहस बहुत पुरानी हो चुकी है- 84 की हिंसा बनाम 2002 का गुजरात, एक दंगे के मुकाबले दूसरे दंगे, एक गलत फैसले के मुकाबले दूसरा गलत फैसला- चलिए, इन सबको भूल जाएं, जैसे नरेंद्र मोदी और उनके विकास से अभिभूत खाता-पीता भारत भूल चुका है। लेकिन पिछले चार दिनों में ही सहिष्णुता-असहिष्णुता का सूचकांक जहां जा पहुंचा है, उसे देखते हुए वाकई डर लगता है। क्योंकि असहिष्णुता अंततः क्या होती है? वह दूसरों को न सुनने की जिद होती है।

प्रधानमंत्री जिस संविधान की बात कर रहे थे, जिस लोकतंत्र को इस देश की आत्मा बता रहे थे, वह सुनने की परंपरा के बीच ही बना और विकसित हुआ है। जिसे अज्ञान में हिंदुत्व की परंपरा कहा जाता है- जो बहुत सारी वैचारिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शाखाओं के मेल से बनी है, उसमें सुनने का बहुत जोर है। लोकतंत्र कहने और देखने से ज्यादा सुनने से बनता है। लेकिन हम सुनने को तैयार नहीं। हम बस बोलते जाने के हामी हैं। पिछले दो महीने में जिन लेखकों-बौद्धिकों-वैज्ञानिकों-कलाकारों को लगातार असहिष्णु बताकर उन पर हमले होते रहे, जिन्हें बनावटी विद्रोह और कागजी क्रांति का गुनहगार ठहरा दिया गया, वे बस इस लोकतंत्र की परंपरा के मुताबिक कुछ कहना भर चाह रहे थे। वे याद दिलाना चाह रहे थे कि समाज के सड़ेगलेपन के खिलाफ, उसकी सांप्रदायिक जकड़न के खिलाफ जो लोग बोल रहे हैं, जो नई परिपाटी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उन पर हमले हो रहे हैं, उन्हें मारा जा रहा है, उनकी बात तक नहीं सुनी जा रही है। आमिर खान इसकी नई मिसाल हैं। उन्होंने जो कहा नहीं, वह उनके नाम पर थोपा गया और इसके बाद उन पर दो दिन तक लगातार भयानक असहिष्णु हमले होते रहे।

प्रधानमंत्री संसद में बोलते हैं तो पूरा देश सुनता है। जब वे कोई अच्छी बात बोलते हैं, जब वह इस देश की सामाजिक-ऐतिहासिक ताकत का जिक्र करते हैं तो खुशी होती है। लेकिन लोगों को उनके बोलने से ज्यादा उनकी चुप्पी से शिकायत रही है- वह चुप्पी जो राजनीतिक हिसाब-किताब से, जो उनके सांप्रदायिक पूर्वग्रह से निकली है। तो यह भी एक लोकतांत्रिक और वैध सवाल है कि प्रधानमंत्री का भाषण सच है या उनके लोगों का व्यवहार?

पाकिस्तान के अलग होने के बाद मोहम्मद अली जिन्ना का भाषण सुनिए। यह पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष भाषण है- बताता हुआ कि पाकिस्तान में सभी धर्मों का सम्मान होगा, राज्य ऐसे आधारों पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। मगर जिन्ना अपनी मर्जी का पाकिस्तान नहीं बना सके। क्योंकि पाकिस्तान की लड़ाई के दौरान उन्होंने जिन विचारों का सहारा लिया, जिन सांप्रदायिक शक्तियों को वैधता दी, वे उनके काबू में आने को तैयार नहीं थीं। कुछ साल पहले जिन्ना की मजार पर जाकर उन्हें धर्मनिरपेक्ष बताने वाले आडवाणी की भी कोशिश यही थी कि सांप्रदायिकता के रथ पर बैठा कर अपनी जिस पार्टी को उन्होंने दिल्ली तक पहुंचा दिया, उसके भौगोलिक-वैचारिक विस्तारों के लिए, और अपनी उदार छवि बनाने के लिए कुछ उदार विचारों का सहारा लें। लेकिन इस कोशिश की वजह से बीजेपी ने उन्हें ऐसा दुत्कारा कि वे अपनी हैसियत पार्टी के भीतर दुबारा हासिल नहीं कर सके- घर के ऐसे बुज़ुर्ग होकर रह गए, जिनके पांव सब छूते हैं, लेकिन जिनकी सुनता कोई नहीं है।

नरेंद्र मोदी अभी ताकतवर हैं, अपने दम पर हासिल शानदार बहुमत का उन्हें सहारा है। इसलिए किसी की हिम्मत नहीं होगी कि वह प्रधानमंत्री के इस भाषण का विरोध करे- बताए कि नहीं यह देश सिर्फ हिंदुओं का है और यह धर्मनिरपेक्षता बेकार है। लेकिन प्रधानमंत्री के सामने यह चुनौती तो बची हुई ही है कि वे इस पार्टी का मानस कैसे बदलें। या फिर ऐसा तो नहीं कि पार्टी के भीतर मुख और मुखौटे का जो पुराना फर्क है- अटल और आडवाणी वाला- जिसको उजागर करने के अपराध में गोविंदाचार्य हमेशा-हमेशा के लिए पार्टी से बाहर कर दिए गए, वह अब भी कायम है और मोदी जरूरत के मुताबिक कभी मुख बन कर चुप हो जाते हैं और कभी मुखौटा बनकर बोलते हैं?

इस सवाल का जवाब जरूरी है- इस देश के लोकतंत्र के लिए, इस देश की जनता के लिए और उन मूल्यों के लिए जिनकी शुक्रवार को प्रधानमंत्री लगातार बात करते रहे। लेकिन यह जवाब सिर्फ भाषणों से नहीं मिलेगा, अन्याय और हिंसा के विरुद्ध न्याय और शांति की उन वास्तविक पहलकदमियों से मिलेगा, जो लोगों के भीतर यह भरोसा जगाएं कि लोकतंत्र की मजबूरियां और संविधान की समझ वाकई प्रधानमंत्री को बदल रही हैं।

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