इलेक्टोरल बॉन्ड क्या पारदर्शिता के खिलाफ नहीं?

सिर्फ सरकार को पता है कि कौन कंपनी किसे चंदा दे रही है. अगर सरकार ने दबाव डालकर विरोधी दल को चंदा रोक दिया तो? आखिर दान देने वाले की पहचान छिपाने के पीछे मकसद क्या है?

इलेक्टोरल बॉन्ड क्या पारदर्शिता के खिलाफ नहीं?

पिछले हफ्ते राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे की दो खबरें आई थीं. पत्रकार रोहिणी सिंह की ख़बर 'द वायर' में छपी कि बीजेपी को उन तीन कंपनियों से 20 करोड़ का चंदा मिला है जिनके खिलाफ़ ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय टेरर फंडिंग के मामले में जांच कर रही है. इन कंपनियों के नाम बीजेपी ने अपनी रिपोर्ट में खुद बताए हैं. जांच एजेंसी ईडी आरकेडब्ल्यू लिमिटेड के खिलाफ इस बात की जांच कर रही है कि कंपनी ने 1993 में मुंबई बम धमाकों के आरोपी इकबाल मिर्ची की संपत्ति खरीद की प्रक्रिया में शामिल रही एक दूसरी कंपनी की मदद की थी, जिसके बदले इसके पूर्व निदेशक रंजीत बिंद्रा को कथित तौर पर 30 करोड़ का कमीशन मिला था. इकबाल मिर्ची दाऊद इब्राहिम का करीबी था. इस कंपनी ने 10 करोड़ का चंदा बीजेपी को दिया है जिसकी जानकारी बीजेपी ने चुनाव आयोग को दी है. इस बात की जानकारी इस साल जनवरी में 'कोबरापोस्ट' ने अपने खुलासे में की थी. रोहिणी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अगर 2014-15 में इलेक्टोरल बॉन्ड का कानून आ जाता तो पता ही नहीं चलता कि किस कंपनी ने कितना पैसा दिया है. इस रिपोर्ट में दो और कंपनियों का ज़िक्र है. आप 'दि वायर' पर जाकर पूरी रिपोर्ट पढ़ सकते हैं. इस रिपोर्ट के आने के बाद बीजेपी की कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं आई. चुप्पी साध ली गई. देखा जाना चाहिए कि इस कंपनी ने किस-किस दल को चंदा दिया है.

लेकिन जब खोजी पत्रकार नितिन सेठी ने छह कड़ियों में नए इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की तब पीयूष गोयल ने लंबा सा जवाब लिखित और मौखिक तौर पर दिया. नितिन सेठी की यह रिपोर्ट इलेक्टोरल बॉन्ड को समझने के लिए पढ़ी जानी चाहिए और अगर आप हिन्दी के अखबार पढ़ते हैं तब और गौर से पढ़ें और देखें कि हिन्दी अखबारों में क्या ऐसी रिपोर्टिंग होती है? आखिर हिन्दी की दुनिया से इस तरह की रिपोर्टिंग का साहस क्यों ख़त्म हो रहा है, जबकि वहां एक से एक काबिल पत्रकार हैं. नितिन सेठी मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखते हैं मगर उनकी छह रिपोर्ट की सीरीज़ हिन्दी में न्यूज़ लौंड्री की वेबसाइट पर छपी है. आप जानते हैं कि अभी तक 6000 करोड़ के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए हैं और राजनीतिक दलों के पास पैसे आए हैं. एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2018 में खरीदे गए 222 करोड़ के बॉन्ड में से 95 फीसदी पैसा बीजेपी के खाते में गया है.

नितिन सेठी की पहली रिपोर्ट काफी खतरनाक है. इलेक्टोरल बॉन्ड के लिए शुरू में जो कांसेप्ट नोट बना वो किसी अधिकारी के लेटर पैड पर नहीं बल्कि सादे कागज़ पर बना. न तो सादे कागज़ पर तारीख थी और न ही किसी का दस्तखत. पूर्व अधिकारियों ने इस कागज़ को देखकर बताया है कि बाहर से किसी ने लिखा है और इसकी भाषा अधिकारियों की नहीं लगती है. 1 फरवरी 2017 को अरुण जेटली बजट पेश करने वाले थे, उसके चार दिन पहले रिज़र्व बैंक से राय मांगी जाती है. तब के राजस्व सचिव हंसमुख अधिया के जवाब के अनुसार तब तक वित्त विधेयक की कॉपी छप चुकी थी. फिर भी रिज़र्व बैंक इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कई आपत्तियां दर्ज कराता है, जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. रिजर्व बैंक की आपत्ति गोपनीयता को लेकर थी तो जवाब मिला कि दान देने की गोपनीयता इसका उद्देश्य है. बजट पेश करने से चार दिन पहले एक सीनियर टैक्स अफसर को कुछ गड़बड़ियां नज़र आती हैं. यही कि इलेक्टोरल बॉन्ड से बड़े कॉरपोरेशन अपनी पहचान छिपाते हुए असीमित धन राजनीतिक दलों को दे सकते हैं. यह तभी संभव हो सकता है जब भारतीय रिज़र्व बैंक के अधिनियम में बदलाव किया जाए. उसी दिन वित्त मंत्रालय रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर को ईमेल भेजकर त्वरित टिप्पणी मांगता है. 30 जनवरी 2017 को रिज़र्व बैंक कहता है कि उसके अधिनियम में संशोधन से गलत परंपरा शुरू होगी. मनी लॉन्ड्रिंग बढ़ जाएगी. पैसा किसी तीसरी पार्टी का होगा और खरीदने वाला कोई और होगा. इससे पारदर्शिता का लक्ष्य पूरा नहीं होगा.

टीवी पर ऐसी जटिल प्रक्रियाओं की बहस मुश्किल है. बहुत सी बातें ध्यान से उतर जाती हैं. फिर भी आप यूं समझिए कि रिज़र्व बैंक कह रहा है कि इसमें पारदर्शिता नहीं है. विधेयक पेश करने से चार दिन पहले उससे राय ली जाती है. कायदे से ऐसे विषय पर पहले भी राय ली जा सकती थी, जब वित्त विधेयक नहीं छपा था. ज़ाहिर है राय लेने की औपचारिकता निभाई जा रही थी जो अब इस रिपोर्ट से उजागर हो चुकी है. इस रिपोर्ट में नोट कीजिए वित्त मंत्रालय का जवाब. यही कि बॉन्ड जारी करने वाले बैंक इसे खरीदने और प्राप्त करने वाले दल की जानकारी पूरी तरह गुप्त रखेंगे. इसे आरटीआई के दायरे से बाहर रखा जाएगा. तो फिर यह पारदर्शिता कैसे हो जाती है? 1 फरवरी 2017 को वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेटली इलेक्टोरल फंड का ऐलान करते हैं और यह कानून बन जाता है. कानून बनने के बाद चुनाव आयोग और रिज़र्व बैंक की बैठक बुलाई जाती है, जिसमें रिज़र्व बैंक शामिल नहीं होता है. बॉन्ड पास होने के बाद अब विदेशी कंपनियां भारतीय दलों को चंदा दे सकती हैं. कोई भी कंपनी कितना भी पैसा दान दे सकती है. इस बॉन्ड की वैधता को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी गई और अंतिम निर्णय नहीं आया है.

नितिन सेठी ने सवाल उठाया है कि विदेशी कंपनियों को गुप्त रूप से चंदा देने की छूट क्यों दी गई? नितिन सेठी ने अपनी रिपोर्ट में हर बात के समर्थन में दस्तावेज़ पेश किए हैं. अब तो सभी दस्तावेज़ों को पब्लिक के लिए उपलब्ध करा दिया गया है. मुफ्त में, यानी कोई भी जांच सकता है कि नितिन सेठी के उठाए सवाल सही हैं या नहीं? पारदर्शिता इसे कहते हैं. पत्रकारिता में ऐसी पारदर्शिता कम दिखाई देती है कि एक पत्रकार अपने सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक कर दे. इस बॉन्ड का एक खतरनाक पहलू भी है.

सिर्फ सरकार को पता है कि कौन कंपनी किसे चंदा दे रही है. अगर सरकार ने दबाव डालकर विरोधी दल को चंदा रोक दिया तो? आखिर दान देने वाले की पहचान छिपाने के पीछे मकसद क्या है? फिर जब राज्यसभा में मोहम्मद नदीमुल हक ने सवाल किया गया कि क्या किसी ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर आपत्ति दर्ज कराई थी तब वित्त राज्य मंत्री राधाकृष्णन ने बोला कि आपत्ति दर्ज नहीं कराई, जबकि नितिन सेठी अपनी रिपोर्ट में साबित करते हैं कि आपत्तियां दर्ज कराई गई थीं. रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग की तरफ से. बाद में जब रिटार्यड कमोडोर लोकेश बतरा ने आरटीआई के ज़रिए आपत्तियों के कागज़ात निकाले तब सवाल पूछने वाले सांसद हक ने विशेषाधिकारी के हनन का मामला दर्ज किया लेकिन इसके बाद भी वित्त राज्य मंत्री अपने पहले के जवाब पर अड़े रहे. जबकि दस्तावेज़ सामने है. रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग दोनों ने आपत्ति दर्ज कराई थी. संसद में इलेक्टोरल बॉन्ड पास हो जाने के बाद चुनाव आयोग ने लिखित रूप में कानून व न्याय मंत्रालय से कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए राजनीतिक दलों की विदेशी सोर्स से अवैध चंदे को छिपाने में मदद मिलेगी. संदिग्ध चंदा देने वाला शेल कंपनियां बना लेगा और काला धन राजनीतिक दलों में खपा देगा. पैसा का सही स्रोत कभी सामने नहीं आएगा. आयोग चाहता था कि इलेक्टोरल बॉन्ड वापस लिया जाए. कानून मंत्रालय ने इन आपत्तियों को वित्त मंत्रालय के पास भेजा. वित्त मंत्रालय ने अनदेखा कर दिया. फिर भी अक्तूबर 2018 के अंत तक चुनाव आयोग इलेक्टोरल बॉन्ड को वापस लेने की बात करता रहा. इसके लिए कई बार रिमाइंडर भी भेजा लेकिन वित्त मंत्रालय ने अनदेखा कर दिया. इसके बाद भी वित्त राज्य मंत्री संसद में कहते हैं कि किसी ने आपत्ति नहीं की.

जनवरी 2019 में वित्त राज्य मंत्री राधाकृष्णन को अपने पहले के जवाब में एक गलती स्वीकार करनी पड़ी थी. बाद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने माना कि चुनाव आयोग ने आपत्ति दर्ज की थी, लेकिन उन्होंने सांसद हक के इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि सरकार ने उन आपत्तियों को दूर करने के लिए क्या किया? इस बात को ध्यान में रखिए कि कोई कंपनी कितना भी चंदा दे सकती है और किसे देगी कितना देगी, इसका हिसाब अपने बहीखाते में दर्ज नहीं करेगी. उसके लिए ऐसा करना ज़रूरी नहीं है. आखिर कंपनियां जब अपना एक-एक पैसा सेबी जैसी संस्थाओं को बताती हैं तो अपने पैसे से किसे चंदा दिया यह क्यों नहीं बताएंगी? इसे गुप्त क्यों रखा जा रहा है? क्या काला धन सफेद करने के लिए ऐसा किया जा रहा है? नितिन सेठी ने अपनी रिपोर्ट में जो दस्तावेज़ पेश किए हैं उन्हें देखने से यही लगता है कि वित्त मंत्रालय लगातार सभी आपत्तियों को खारिज कर रहा है. कोई फर्जी कंपनी बनाकर कितना भी चंदा दे सकता है इसकी आशंका पर ठोस कार्रवाई क्यों नहीं होती है? नितिन सेठी की रिपोर्ट के बाद पीयूष गोयल ने प्रेस कांफ्रेंस की. उन्होंने अपना बयान लिखित रूप में भी जारी किया.

वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने पिछले गुरुवार की प्रेस कांफ्रेंस में जो दावे किए थे उस पर हफिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में सवाल उठाए गए हैं. जैसे उन्होंने कहा था कि 15 दिनों के भीतर बॉन्ड को कैश कराना पड़ता है, लेकिन मई 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद 10 करोड़ का बॉन्ड लैप्स कर गया. तो एक राजनीतिक दल के प्रतिनिधि ने स्टेट बैंक पर दबाव डाला कि बॉन्ड को कैश होने दे. वित्त मंत्रालय उस दबाव के आगे झुका. नितिन सेठी ने अपनी रिपोर्ट में दिखाया है कि चुनाव से दस दिन पहले प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से आदेश आता है कि एक विंडो खोला जाए और बॉन्ड को कैश किया जाए. सवाल वही का वहीं है कि चंदा देने वाले का नाम जब गोपनीय है तब यह पारदर्शी सिस्टम कैसे हुआ? 2 मई 2017 को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने विपक्षी दलों से इस पर राय मांगी थी. कांग्रेस की तरफ से मोतीलाल बोरा ने लिखा था, 'मैं समझता हूं कि सरकार राजनीतिक दलों की चुनावी फंडिंग पर पारदर्शिता के मुद्दे पर चिन्तित है. पारदर्शिता का तात्पर्य है कि मतदाता को तीन बातें पता होनी चाहिए. एक चंदा देने वाला कौन है? दो, किस राजनीतिक पार्टी को चंदा दिया जा रहा है और तीन चंदे की राशि क्या है?

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मोतीलाल वोरा ने भी यही कहा था कि चंदा देने वाले का नाम बैंक को पता होगा यानी सरकार को पता होगा, लेकिन आम जनता को नहीं. सीपीआई के महासचिव सुधाकर रेड्डी ने चंदे को लेकर सरकार के प्रस्ताव का विरोध किया था. अकाली दल ने बधाई दी थी और मायावती ने सराहना की थी. महाराष्ट्र के कारण ये खबर पीछे चली गई, लेकिन विपक्षी दल खासकर कांग्रेस ने रिपोर्ट आने के बाद सरकार से कई सवाल पूछे थे.