आतंकवादियों से क्या नाता रहा डीएसपी देविंदर सिंह का?

अगर आप आतंकवाद को इराक इरान और सीरीया जैसे देशों की राजनीति में समझने का प्रयास करेंगे तो वहां आतंकवाद बाहर से मज़हब का रूप लिए दिखेगा, मगर भीतर से उसके संबंध सरकारों से भी नज़र आते हैं.

मुझे हैरानी हो रही है कि डीएसपी दविंदर सिंह की आतंकवादियों के साथ गिरफ्तारी से लोग हैरान हैं. दरअसल हैरानी इसलिए कि बार-बार मना करने के बाद भी बहुत लोग आतंकवाद को मज़हब की निगाह से ही देखते हैं. आतंक को दूसरे सवालों और संबंधों के साथ नहीं देखते हैं? अगर आप आतंकवाद को इराक इरान और सीरीया जैसे देशों की राजनीति में समझने का प्रयास करेंगे तो वहां आतंकवाद बाहर से मज़हब का रूप लिए दिखेगा, मगर भीतर से उसके संबंध सरकारों से भी नज़र आते हैं. कई देशों में यह राज्य की सत्ता का हिस्सा भी है जिसे आप डीप स्टेट कहते हैं. जो लोग आतंकवाद को इस नज़र और समझ से देखते हैं सिर्फ वही डीएसपी दविंदर की गिरफ्तारी से हैरान नहीं होंगे. सामान्य लोगों की नज़र पर राजनीति और मीडिया की बनाई हुई छवि का पर्दा होता है और बहुत से लोग उसी नज़र से आतंकवाद को देखते हैं. क्योंकि मज़हब का नाम आते ही और मेहनत करने की ज़रूरत नहीं होती है, बिना समझे ही कई लोगों को लगता है कि सब समझ गए. भारत की मीडिया में आतंकवाद की रिपोर्टिंग की गंभीर परंपरा नहीं है. बहुत कम रिपोर्टर होंगे जो ऐसे मामलों की लगातार रिपोर्टिंग करते आए होंगे.

जैसे रूक्मिणी कालीमाची हैं. रुक्मिणी कालीमाची रोमानियन अमरीकी पत्रकार हैं. न्यूयार्क टाइम्स की पत्रकार हैं. अपने बायो में लिखती हैं कि वे न्यूयार्क टाइम्स की संवाददाता हैं. अल कायदा और आईसीस कवर करती हैं. एक्स रिफ्यूजी लिखती हैं. एसोसिएट प्रेस की पूर्व ब्यूरो चीफ रही हैं. भारत में क्या आप किसी पत्रकार को जानते हैं जो अपने बायोडेटा में लिखता हो कि वह फलां आतंकी संगठन को दस साल से कवर कर रहा है? रुक्मिणी कालीमाची के ट्विटर हैंडल पर जो सबसे पहली रिपोर्ट है उसमें बताया गया है कि रुक्मिणी और उनकी टीम ने आईसीस आतंकी संगठन के 15000 पन्नों के दस्तावेज़ का विश्लेषण किया था. ये दस्तावेज़ को हासिल करने के लिए रुक्मिणी और उनकी टीम पांच बार इराक़ गईं और वहां के 11 शहरों का दौरा किया. रुक्मिणी ने लिखा है कि कई साल पहले ही समझ आ गया था कि आतंकवादी बहुत सारा पेपर वर्क रखते हैं. 2013 में माली से अल क़ायदा के दस्तावेज़ खोज निकाला था. क्या इस तरह का एक भी उदाहरण आप भारत में दे सकते हैं? हिन्दी पत्रकारिता में ज्यादातर सुरक्षा संवादताता वही रिपोर्ट करते हैं जो सिस्टम उन्हें रिपोर्ट करने के लिए कहता है. अगर आप इस एक जानकारी से भारत की पत्रकारिता और दूसरे मुल्कों की पत्रकारिता के स्तर की तुलना करेंगे तो वाकई आपको डिप्रेशन हो जाएंगे कि हम कहां हैं अभी. मैं आपको यह बताकर और दुखी नहीं करना चाहता कि तीस तीस सेकेंड के प्रोपेगैंडा वीडियो लेकर हिन्दी चैनलों ने आपको घंटों का कवरेज दिखाया. आईसीस आतंकी संगठन पर आधी अधूरी जानकारी दी. मीडिया ने कैसे आपके जीवन को ठगा है ये आपको तीस साल बाद भी पता नहीं चलेगा.

यही कारण है कि डीएसपी दविंदर सिंह की रिपोर्ट अलग-अलग चैनलों और अखबारों में अलग-अलग है. सूत्र कहीं कुछ बोलते हैं कहीं कुछ बोलते हैं. कहीं खबर है कि पुलिस को पता नहीं था. कहीं खबर है कि पुलिस को पता था तभी वह निगरानी कर रही थी. कोई ऐसा नहीं है जो अथॉरिटी यानी दावे के साथ ठोस तरीके से रिपोर्ट करे. पूरी तरह एक्सपोज़ कर दे. इसके लिए एक रिपोर्टर में दशकों निवेश करने की ज़रूरत होती है. इसके नहीं होने के कारण अभी तक एक भी ऐसी रिपोर्ट नहीं आई है जो डीएसपी दविंदर सिंह की कहानी को पूरी तरह एक्सपोज़ कर दे. भारतीय पत्रकारिता के इस सिस्टम की कमी के कारण स्टेट के भीतर होने वाली बहुत सारी बातों को सामने नहीं ला पाती है.

जम्मू कश्मीर पुलिस के डीएसपी दविंदर सिंह की गिरफ्तारी राज्य पुलिस के भीतर वर्चस्व की लड़ाई के कारण हुई है या दिल्ली में कहीं कोई वर्चस्व की लड़ाई है? इन सब सवालों के जवाब तो मिलेंगे नहीं, लेकिन क्या इसके जवाब मिलेंगे कि 25 साल से यह शख्स डीएसपी के रैंक पर था, क्या किसी की नज़र नहीं गई होगी? अपने पुलिस के लंबे करियर में क्या दविंदर सिंह ने और भी इस तरह के आतंकवादी प्लांट किये हैं? या किस किस बेगुनाह को आतंक के आरोप में फंसा कर फांसी तक पहुंचाया है? यह सवाल पूछिए. डीएसपी दविंदर सिंह ने आतंक के जिस भी केस को डील किया है, उसकी जांच होनी चाहिए. कैसे यह शख्स इस तरह का काम करता हुआ एंटी हाईजैकिंग स्कावड तक पहुंच जाता है, श्रीनगर एयरपोर्ट में तैनात होता है, क्या आंतरिक जांच की कोई व्यवस्था ही नहीं हैं? एयरपोर्ट पर एंटी हाईजैकिंग स्कावड में हैं तो खास ट्रेनिंग भी मिली होगी. हर कोई तो इस काम के लिए चुना नहीं जाता होगा. जांच तो इसकी भी होनी चाहिए कि कौन लोग थे जो दविंदर सिंह को बचाते रहे? आतंकियों को कार में लेकर जाने वाला डीएसपी सिस्टम में अकेला है या इसका कोई नेटवर्क भी है? सारे सवालों के साथ यह सवाल भी साथ चलना चाहिए कि कहीं डीएसपी दविंदर सिंह को किसी खेल में मोहरा तो नहीं बनाया गया, यानी कोई पहले से उसका खेल जानता होगा, लेकिन खास वक्त में लगा होगा कि इस मोहरे को सामने लाकर किसी का खेल बिगाड़ दिया जाए? इसलिए कहता हूं कि डीएसपी दविंदर सिंह की गिरफ्तारी जितनी सामने से दिखती है, वो कुछ भी नहीं लगती है. जो नहीं दिखती है वहां से देखना शुरू कीजिए, ख़बरों को जानने समझने के लिए थोड़ी मेहनत कीजिए.

जो कहानी सामने है उसमें बहुत कुछ नहीं है. बस यही है कि दो आतंकी और एक सहयोगी के साथ तीन लोग शुक्रवार को सोपिंया से श्रीनगर आते हैं. डीएसपी दविंदर सिंह के घर पर रुकते हैं. पुलिस सादी लिबास में पहरा देने लगती है. इनकी योजना दिल्ली जाने की थी. अब इस जानकारी पर रुकता हूं. सोचिए ये आतंकी दिल्ली पहुंच कर कोई वारदात कर देते, कितने मासूम लोगों की जान जाती और टीवी पर क्या होता, वही हिन्दू मुस्लिम डिबेट. फिर कोई बेगुनाह पकड़ कर मीडिया के सामने आतंकी पेश कर दिया जाता. बहरहाल डीएसपी सामने की सीट पर बैठे थे और कार आतंकी इरफ़ान चला रहा था. पीछे की सीट पर हिज़्बुल मुजाहिदीन का नवीद, और रफ़ी है. तीनों हिज़्बुल मुजाहिदीन के हैं.

हिज़्बुल मुजाहिदीन का नंबर दो आतंकी है नवीद. सेकंड इन कमांड. अक्तूबर-नवंबर में कश्मीर में 11 प्रवासी मज़दूरों की हत्या हुई थी. उन हत्याओं के आरोप में नवीद की तलाशी हो रही थी. डीएसपी दविंदर शनिवार को अपने घर से नवीद, इरफान और रफी को लेकर घर से जम्मू कश्मीर के लिए निकलते हैं. श्रीनगर से साठ किलोमीटर दूर वांको पर पुलिस इनकी गाड़ी रोकती है. पुलिस के पास पहले से सूचना थी क्योंकि वह नवीद बाबू के फोन को ट्रैक कर रही थी. नवीद ने अपने भाई को फोन किया तो उस दौरान वहां पर दविंदर सिंह की लोकेशन भी ट्रेस हो गई. जो अभी तक खबरें आई हैं उसके मुताबिक शुक्रवार शाम से ही पुलिस ने इन चारों को ट्रैक करना शुरू कर दिया. डीआईजी अतुल गोयल ने दक्षिण कश्मीर के मीर बाज़ार में बैरिकेड लगाकर कार रोकी और चारों की गिरफ्तारी हुई. मीडिया रिपोर्ट से पता चल रहा है कि नवीद को पहले भी दविंदर सिंह ने अलग अलग जगहों पर सुरक्षित पहुंचाया है.

26 जनवरी से पहले दविंदर सिंह की आतंकवादियों के साथ गिरफ्तारी हुई है. इनके दिल्ली ले जाने की बात सामने आई है. बताने की ज़रूरत नहीं कि साज़िश कितनी गहरी होगी. यह जानना भी ज़रूरी है जब हिज़्बुल आतंकी नवीद प्रवासी मजदूरों को मार रहा था तब क्या दविंदर सिंह को इसकी जानकारी रही होगी? दविंदर के साथ का आतंकी फोन का इस्तमाल करता है तो यहां इस बात को लेकर सवाल किए जा सकते हैं कि क्या ऐसा खेल खेलने वाला इतना आसान काम करेगा?

सोचिए हमारे स्टेट सिस्टम की क्या तैयारी है कि आतंकवादियों के साथ इतने करीब संबंध रखने वाला एक डीएसपी श्रीनगर एयरपोर्ट पर 15 मुल्कों के राजदूतों के पीछे खड़ा है. अगर उस दिन कोई घटना हो जाती तो फिर भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को कितना धक्का पहुंचता. दविंदर आराम से राजनयिकों के पीछे खड़ा है. जम्मू कश्मीर पुलिस ने आज ट्वीट किया है कि गृहमंत्रालय ने दविंदर सिंह को कोई पुरस्कार नहीं दिया है. एक ही पुरस्कार है जो 2018 में दिया गया था.

संसद हमले के आरोप में फांसी की सज़ा पाए अफ़ज़ल गुरु ने 2004 में अपने वकील सुशील कुमार को पत्र लिखा था. जम्मू कश्मीर पुलिस के स्पेशल टास्क फोर्स के डीएसपी दविंदर सिंह के कहने पर संसद पर हुए हमले के आरोपी आतंकी मोहम्मद की मदद की थी. अफज़ल गुरु ने अपने ट्रायल के दौरान हमेशा माना कि मोहम्मद के संपर्क था. एक फोन के ज़रिए जो मोहम्मद के शरीर के साथ मिला था. अफज़ल गुरु ने कहा था कि वह फोन भी स्पेशल टास्क फोर्स ने ही दिया था. क्या दविंदर से मिली जानकारी का सुविधा के हिसाब से इस्तमाल होगा या कोई सख्त कदम उठाने का साहस दिखाएगा? आजकल जवाब भी कहां मिलते हैं.

क्या दविंदर से पूछताछ अफज़ल गुरु को लेकर होने वाली बहस को बदल पाएगी, वहां तक जांच एजेंसियां जाना चाहेंगी, सवाल तो यह भी उठ रहे हैं कि पुलवामा हमले के आसपास भी दविंदर वहीं तैनात थे. क्या उस हमले में उनकी कोई भूमिका थी? डीएसपी दविंदर की गिरफ्तारी ने उन फर्जी मामलों की याद दिला दी है तो वाकई में फर्जी साबित हुए. 20-20 बीस साल लोगों ने जेल में बिताएं हैं और आरोप साबित नहीं हो सका. फरवरी 2019 में 11 ऐसे लोग बरी किए गए जिन्हें कश्मीरी आतंकवादी बता कर 25 साल तक जेल में रखा गया था. गिरफ्तारी के वक्त पुलिस के अधिकारी आसानी से आकर सारा डिटेल बता जाते हैं. लेकिन जब बरी होते हैं तो कोई विभागीय जांच नहीं होती कि किसी गलत को कैसे फंसा दिया गया. निसार 23 साल जेल में रहा. 1994 में निसार को आतंकी बताकर गिरफ्तार किया गया. तब वह 20 साल का था. 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने जब निसार को बरी किया तो इसकी उम्र 43 साल हो चुकी थी. कोई जांच नहीं कि इस सिस्टम में आखिर कैसे किसी बेगुनाह को आतंक के आरोप में 20 साल रखा गया. डीएसपी दविंदर की तरह एक और ऐसा मामला आया था. लेकिन तब सुरक्षा एजेंसियां काफी सतर्क हो गई. 2016 में पठानकोट हमले के वक्त पंजाब पुलिस के एसपी सलविंदर सिंह से पूछताछ हुई थी. सलविंदर की सरकारी गाड़ी को आतंकवादियों ने छीन कर इस्तमाल किया था. एनआईए की जांच में सलविंदर सिंह को बरी कर दिया गया था. मगर यह अधिकारी इस वक्त जेल में है लेकिन किसी और केस में.

केरल सरकार ने नागिरकता संशोधन कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. केरल सरकार का कहना है कि यह कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. केरल सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून के अलावा पासपोर्ट रूल एंड फौरेन आर्डर अमेंडमेंट्स को भी चुनौती दी गई है कि इसमें धार्मिक पहचान को महत्व दिया गया है जो संविधान की भावना के विरोध में है. केरल सरकार ने अपनी याचिका में कहा है कि एक्ट के मूल रूप में धार्मिक प्रताड़ना का ज़िक्र नहीं है. कानून के उद्देश्य में प्रताड़ना का ज़िक्र किया गया है. केरल विधानसभा ने इस कानून के तहत सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया था. सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत दायर की गई है. आम तौर पर जब किसी कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी जाती है तो सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 का इस्तमाल होता है. हाईकोर्ट में अनुच्छेद 226 का होता है. अगर केरल की तरह दूसरी सरकारों ने इस अधिकार का इस्तमाल किया तो सुप्रीम कोर्ट के सामने नई परिस्थिति पैदा हो सकती है. आपके मन में यह सवाल आ रहा होगा कि राज्य सरकार केंद्र के कानून को कैसे चुनौती दे सकती है? केंद्र सरकार भी कई मौकों पर राज्यों के बनाए कानून को चुनौती दे चुकी है.

उधर नागरिकता संशोधन काननू के विरोध में रचनात्मकता चरम पर है. वानखेड़े स्टेडियम में जब भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच चल रहा था तब ये नौजवान उठ खड़े हुए. इनके टी शर्ट पर लिखा एक-एक शब्द जुड़ता गया और नो एनआरसी और नो सीएए बनता गया. एक तरफ बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष कुत्तों की तरह गोली मारने वाली भाषा का इस्तमाल कर रहे हैं और उनके खिलाफ पार्टी कोई एक्शन तक नहीं लेती, दूसरी तरफ शांतिपूर्ण तरीके से विरोध के ये नए तरीके अपनाए जा रहे हैं जिनकी भाषा में गाली की कोई जगह नहीं है. इस प्रदर्शन में मुंबई एगेंस्ट सीएए के 50 छात्र सदस्यों ने वानखेड़े स्टेडियम में अपना विरोध दर्ज कराया है. अपने बयान में फहाद ने कहा है कि संवैधानिक संकट काफी बड़ा है. काफी बड़ी संख्या में दर्शक इस मैच को देख रहे होंगे तो क्रिकेट प्रेमियों को भी पता चले कि भारत में किस तरह का मानवाधिकार संकट हो रहा है.

टीवी चैनलों पर धरना प्रदर्शनों को लेकर जिस तरह की समझ बन रही है, अदालतों के भीतर से आती आवाज़ उन चैनलों को लोकतंत्र के पाठ पढ़ा रही है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा था कि बार बार धारा 144 का इस्तमाल नहीं कर सकते हैं. यह दुरुपयोग है. इसी कड़ी में तीस हज़ारी कोर्ट में चंद्रशेखर की ज़मानत की सुनवाई के दौरान और स्पष्टता आई है. मीडिया की हेडलाइन में तो यही बात आकर रह जाएगी कि जज ने कहा कि जामा मस्जिद पाकिस्तान में नहीं हैं जहां प्रदर्शन नहीं हो सकते. यह बात नहीं आएगी कि जज ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा कि लोग सड़क पर इसलिए हैं कि जो चीज़ें संसद में कही जानी चाहिए वो नहीं कही गईं. बल्कि इस बहस में जज ने जो सवाल उठाए और पुलिस के वकील जिस तरह से लाजवाब रहे, जवाब देते न बना, उससे यही लगता है कि पुलिस अब कानून से कम इशारे से ज्यादा काम करने लगी है. तीस हज़ारी कोर्ट की जज कामिनी लौ के सवाल और टिप्पणियां काफी महत्वपूर्ण हैं. ये और बात है कि सुनवाई अभी जारी है.

21 दिसंबर को भीम अर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद को जामा मस्जिद पर प्रदर्शन के बाद गिरफ्तार किया गया था. उनकी ज़मानत की सुनवाई तीस हज़ारी कोर्ट में चल रही है. लेकिन बहस के दौरान जज के किसी भी सवाल का जवाब पुलिस के वकील ठोस रूप से देते नहीं दिखे. कोर्ट ने सरकारी वकील से पूछा कि क्या चंद्रशेखर आज़ाद ने कोई आपत्तिजनक बयान दिया था, सबूत कहां हैं, अभी तक आपने क्या कार्रवाई की है और कानून क्या कहता है तो सरकारी वकील ने कोर्ट से कहा है कि मैं आपको नियम दिखाना चाहता हूं जो धार्मिक संस्थानों के बाहर प्रदर्शन पर रोक की बात करता है. तब जज साहिबा ने कहा कि क्या आपको लगता है कि हमारी दिल्ली पुलिस इतनी पिछड़ी हुई है कि उनके पास रिकार्ड नहीं हैं कि चंदशेखर आज़ाद के खिलाफ सबूत क्या है. जवाब में सरकारी वकील ने कहा कि हमें ड्रोन फुटेज में साफ दिख रहा है कि चंद्रशेखर किस तरह से लोगों को भड़काने वाली बात कह रहे हैं. जब पूछा गया कि चार्ज क्या है, तो सरकारी वकील ने कहा कि मैं जानता नहीं हूं, ढूंढ कर बताता हूं. जब कोर्ट ने पूछा कि सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है वो दिखाइये तो सरकारी वकील ने दिखाने से मना कर दिया तो कोर्ट ने पूछा कि किस अधिकार के तहत आप ऐसा कर रहे हैं. तब सरकारी वकील ने सोशल मीडिया का एक पोस्ट पढ़ा कि जामा मस्जिद पर धरना देने चलें. इस पर जज कामिनी लौ ने कहा है धरने में गलत क्या है. यह किसी व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है कि वह शांति से प्रदर्शन करे. और आप इस तरह से बर्ताव कर रहे हैं जैसे जामा मस्जिद पाकिस्तान में हों. पाकिस्तान में हो तो भी वहां जाकर प्रदर्शन कर सकते हैं. कोर्ट ने कहा कि आज़ाद की कोई भी पोस्ट अंसंवैधानिक नहीं है. फिर सरकारी वकील ने कहा कि किसी प्रदर्शन के लिए अनुमति अनिवार्य है तो जज ने पूछा कि कौन सी अनुमति. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बार-बार 144 का इस्तमाल दुरुपयोग है. लोग तो संसद के बाहर भी प्रदर्शन करते हैं. ये कौन सा कानून है जो धार्मिक स्थल के बाहर रोकने से मना कर ता है.

दिल्ली पुलिस इतनी शर्मिंदा कभी नहीं हुई थी जिनती हाल के दिनों में हुई है. ऐसा लगता है कि पुलिस ने अपनी पेशेवर छवि दांव पर लगा देने और मिटा देने का ही फैसला कर लिया है. उसी की बानगी है आज कोर्ट में सरकारी वकील का जवाब न दे पाना. एक तरफ जहां नागरिकता समर्थक कानूनों में खुलकर गोली मारने के नारे लग रहे हैं और कहीं ऐसे नारे लगाने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई है. मगर पुलिस की सतर्कता और सक्रियता वहां ज़रूर दिखने लग जाती है जहां लोग इस कानून का विरोध कर रहे होते हैं. उत्तरायण के दिन गुजरात विद्यापीठ के छात्रों ने नो सीएए और नो एनआरसी लिखे पतंग को उड़ाना चाहा तो पुलिस रोकने आ गई. छात्रों ने पुलिस से पूछताछ शुरू कर दी कि किसकी अनुमति से भीतर आए हैं. बगैर अनुमति के पुलिस कैसे छात्रों से पहचान पत्र मांग सकती है.

शाहीन बाग़ के प्रदर्शन के कारण एक महीने से दिल्ली का कालिन्दी कुंज रोड बंद है. यह सड़क दिल्ली को नोएडा से जोड़ती है. याचिका कर्ता अमित साहनी का कहना है कि इसके कारण दफ्तर जाने और स्कूल जाने के लिए बच्चों को परेशानी आ रही है. कोर्ट ने धरना हटाने के आदेश नहीं दिए. कहा कि यह पुलिस के विवेक पर निर्भर करता है कि वो क्या कदम उठाती है क्योंकि ऐसी जगहों पर हालात समय समय पर बदलते रहते हैं. शाहीन बाग के धरने पर बैठी महिलाओं का कहना है कि जब तक सरकार उनकी बात नहीं सुनती है, वे धरना स्थल से नहीं हटेंगी. पुलिस अब कह रही है कि वह बातचीत के ज़रिए धरना हटाने का प्रयास करेगी. बल प्रयोग नहीं करेगी. महिलाओं का कहना है कि ट्रैफिक से ज्यादा परेशानी तो देश को होने वाली है. जब लोग लाइन में लगा दिए जाएंगे. शाहीन बाग़ की तरफ से मुकदमा लड़ने वाली वकील आरफा खानम का कहना है कि बीच का रास्ता सरकार निकालेगी. शाहीन बाग का प्रदर्शन बंद होने वाला नहीं है.

इस बीच शाहीन बाग़ का प्रदर्शन एक मॉडल बनता जा रहा है. दिल्ली के ही खुरेजी में महिलाओं का प्रदर्शन शुरू हो गया है. कोलकाता के पार्क सर्कस में भी इस तरह का प्रदर्शन चल रहा है जहां महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है. गया के शांति बाग में भी 29 दिसंबर से इस तरह का एक धरना प्रदर्शन चल रहा है.

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यूपी के प्रयागराज में मंसूर अली पार्क में 72 घंटे से हज़ारों महिलाएं धरने पर बैठ गई हैं. महिलाएं नागिरकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर का विरोध कर रही हैं. उनका कहना है कि जब तक यह कानून वापस नहीं होगा, धरने पर बैठी रहेंगी. इस धरने में शामिल होने के नियम कायदे भी बनाए गए हैं जिन्हें पोस्टरों पर लिखकर चिपकाया गया है. यही कि किसी प्रकार की हिंसा न करें. ऐसे लोगों पर नज़र रखें जो हिंसा कर सकते हैं. ध्यान रखें कि धार्मिक नारे न लगाए जाएं. पब्लिक प्रॉपर्टी को नुकसान न पहुंचाएं. राहगीरों की मदद करें. हमारे सहयोगी आलोक पांडे ने मंसूर अली पार्क की महिलाओं से बात की.