नई दिल्ली: हालांकि वित्त मंत्री हाल के सालों में इस बात को कहते रहे हैं कि बाज़ारों के गिरने से देश की आर्थिक व्यवस्था का कोई संकेत नहीं मिलता है लेकिन साथ ही ये बात भी हक़ीकत है कि बाज़ारों के गिरने से आर्थिक माहौल में बड़ी उथल-पुथल होती है।
इस उथल-पुथल से आज का गिरने वाला माहौल बाज़ार का कोई अलग नहीं है। चाहे एक समय में मसला विदेशी संस्थागत निवेशकों का बाज़ार से बाहर जाने का हो या भारतीय बैंकों की आज पहले से कहीं कमज़ोर स्थिति। ये सब बाज़ार को प्रभावित करती हैं। एक और बात जिससे बाज़ार हमेशा प्रभावित होता है वो दिल्ली की सियासत भी है। हालांकि इस बार वैसा मसला नहीं नज़र आ रहा है लेकिन ये भी बाज़ार से जुड़ा एक फ़ैक्टर है।
पिछली बार जब बाज़ार की बड़ी गिरावट हुई थी तब सरकार के मंत्रियों ने कहा था कि इसके लिए देश के अंदरूनी आर्थिक हालात ज़िम्मेदार नहीं हैं बल्कि ये अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों की स्थिति से जुड़ा हुआ है। सवाल तब भी ये उठ गया था कि अगर ऐसा है सीधे तौर पर तो क्या हमारी खुद की अर्थव्यवस्था बहुत मज़बूत नहीं है।
ये युग वैश्विक अर्थव्यवस्था का है और अंतरराष्ट्रीय फ़ैक्टर किसी भी देश के बाज़ार पर ज़रूर असर डालते हैं। एक ऐसे महीने में जबकि बजट का इंतज़ार हो रहा है, बाज़ार के गिरने के बाद सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल बनते हैं, कम नहीं होते हैं।
(अभिज्ञान प्रकाश एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं)
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