कुरआन में एक ही क्षण में तलाक का कोई जिक्र नहीं...

कुरआन में एक ही क्षण में तलाक का कोई जिक्र नहीं...

प्रतीकात्मक फोटो

हम चार बहनें हैं, सबसे बड़ी ज़ेबा जो एमएचएससी, बीएड, एसीसी सी सर्टिफिकेट है और सरकारी शिक्षक हैं. दूसरे नंबर की बहन सबा है जिसकी शादी बीए पार्ट टू में हो गई लेकिन उसने शादी के बाद बीए पूरा किया, उसके बाद फैशन डिज़ायनिंग का कोर्स किया, फिर समाजशात्र में एमए. अब वह ग्वालियर में खुद का एनजीओ चलाती है. तीसरी बहन का नाम है ज़या जिसने हिस्ट्री से एमए, एमफिल करने के बाद बीएड भी किया, प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने के बाद वह सोशल वर्क से जुड़ गई. सबसे छोटी और आखिरी नंबर की बहन मैं हूं. मैंने बीएससी किया फिर भोपाल से पत्रकारिता में मास्टर डिग्री ली और फिर लगभग 13 साल मीडिया में काम किया. अब बात अपनी मां और अब्बा की करती हूं. मां का नाम ज़ुबेदा ख़ातून है. वे शादी के पहले यानि 1970 में बीए कर चुकीं थी, तीन-तीन सरकारी नौकरियां ठुकराने के बाद मां ने परिवार को चुना. अब्बा यानि जनाब अब्दुल रहमान सरकारी शिक्षक थे, रिटायर हो चुके हैं. यह सारी बातें मैं आपको इसलिए बता रही हूं ताकि आपको हमारे परिवार के एजुकेशन का अंदाज़ा हो जाए.

किसी को कुरआन को समझते हुए नहीं देखा
अब आते हैं मज़हबी तालीम की तरफ, तो हम चारों बहनों ने औरों की तरह की बचपन में ही कुरआन शरीफ़ पूरा पढ़ लिया था. मुस्लिम परिवारों में बच्चा जब बोलना शुरू करता है तो सबसे पहले जोर अलिफ़, बे, ते पढ़ने पर दिया जाता है. मां-बाप घर में पढ़ाना शुरू करते हैं और फिर मौलवी साहब कुरआन शरीफ़ की तालीम देते हैं. मैं जब अपने घर पर यानी छतरपुर में थी तब मैंने किसी से नहीं सुना कि क़ुरआन शरीफ किसी दूसरी भाषा में भी होता है. यही सुना कि क़ुरआन शरीफ अरबी में ही पढ़ा जाता है. यही सच मानकर हम क़ुरआन को पढ़ते आए. जो आयतें नमाज़ में पढ़ी जाती हैं उनका रट्टा मार लिया. क़ुरआन शरीफ़ पढ़ाने के लिए जब मौलाना साहब आते तो हम वुज़ू बनाकर, दुपट्टा ओढ़कर कुरआन पढ़ते और फिर उसे चूमकर अलमारी में रख देते. मैंने अपने आसपास इसी तरह लोगों को कुरआन पढ़ते देखा, किसी को भी कुरआन को समझते नहीं देखा, न ही उसे किताब जानकर पढ़ते देखा. एक तरह से हम क़ुरआन की पूजा करते थे.

मर्दों ने अपने काम काम की चीज़ें कुरआन से चुन लीं
जब भोपाल होते हुए दिल्ली आई तो आसपास के लोगों को सुना, कुछ मदद इंटरनेट से ली तो समझ आया कि क़ुरआन का तर्जुमा भी होता है. तब दिल्ली में सीपी की मस्ज़िद से अरबी, उर्दू और हिंदी में तर्जुमा किया हुआ क़ुरआन ले आई. जैसे-जैसे उसे पढ़ती गई समझती गई आंखें खुलती गईं. समझ आया कि क़ुरआन में क्या लिखा है और लोग असल जिंदगी में उसे कैसे अमल में लाते हैं. मर्दों ने अपने काम की चीज़ें कुरआन से निकाल लीं. इस्लाम को तमाशा बनाने में कुछ फर्जी मौलानाओं का बड़ा हाथ है. उन्होंने अपने फायदे के लिए कुरआन और असल इस्लाम को लोगों तक पहुंचने ही नहीं दिया. वे जैसा-जैसा अपनी आंखों से दिखाते गए हम देखते गए और उसी को सही भी मानते रहे. मैंने अपने परिवार की शिक्षा के बारे में इसलिए बताया ताकि यह समझ आ सके कि जब हम जैसे पढ़े लिखे लोग कुरआन का तर्जुमा नहीं पढ़ पाए और यह जानने की कोशिश नहीं की कि कुरआन में आखिर लिखा क्या है? आखिर कौन सी आयत क्या कहती है? आखिर औरतों के क्या हकूक हैं?

औरतों को ताकीदें बताईं, उनके हक नहीं बताए
मां जब दिल्ली आईं तो उन्होंने क़ुरआन का तर्जुमा पढ़ा और समझा भी. मेरे और मां के अलावा शायद ही किसी बहन ने कुरआन का तर्जुमा पढ़ा हो और उसे समझा हो. अब्बा ने बचपन में कुरआन पढ़ा था लेकिन वे अब कुरआन का तर्जुमा पढ़ना नहीं चाहते. कहते हैं कि नमाज़ के बाद मस्ज़िद में मौलाना कुरआन के बातें बताते हैं. यानी वे खुद यह जानना नहीं चाहते कि आखिर कुरआन में है क्या? जो मौलाना साहब ने समझा दिया वही सही और पत्थर की लकीर है. अब्बा ने घर आकर अक्सर औरतों के बारे में बताई बातों का ज़िक्र किया कि इस्लाम में औरतों को क्या ताकीद हैं. यह नहीं बताया कि औरतों के हक क्या हैं. न ही यह बताया कि मर्दों के लिए कुरआन में क्या लिखा है. खैर उनको समझा नहीं सके.

अशिक्षा के कारण दुनियावी और मज़हबी पिछड़ापन                     
इससे साफ होता है कि जिस पाक किताब को मुसलमान चूमकर ऊंची अलमारी में बंद कर रख देते हैं, उसे वे कितना समझते होंगे. हमारा पूरा खानदान पढ़ा-लिखा और नौकरीपेशा है लेकिन कुरआन और इस्लाम के बारे उतना ही जानते हैं जितना तक़रीरों में सुना और मौलानाओं ने समझाया. मुस्लिमों में अशिक्षा की सबसे बड़ी वजह है उनका पिछड़ापन, चाहे वह दुनियावी हो या मज़हबी.

एकतरफा या सुलह के प्रयास के बिना तलाक का जिक्र कहीं नहीं
बात जब एक साथ तीन तलाक़ की चल रही है तो ज्यादातर औरतों को नहीं पता कि क्या क़ुरआन में कहीं भी एक बार में तीन तलाक कहने से तलाक लिखा है? कुरआन में तलाक़ की पूरी प्रक्रिया है जिसे बहुत कठिन बनाया गया है लेकिन पर्सनल लॉ के पैरोकार इसे बेहद सरल बनाए हुए हैं. मियां-बीवी में अगर कोई झगड़ा है तो कुरआन में परिवार में बातचीत, पति-पत्नी के बीच संवाद और सुलह पर जोर दिया गया है. पवित्र कुरआन में कहा गया है कि जहां तक संभव हो, तलाक न दिया जाए. यदि तलाक देना जरूरी हो जाए तो कम से कम इसकी प्रक्रिया न्यायिक हो. पवित्र कुरआन में एकतरफा या सुलह का प्रयास किए बिना दिए गए तलाक का जिक्र कहीं भी नहीं मिलता. इसी तरह पवित्र कुरआन में तलाक प्रक्रिया की समय अवधि भी स्पष्ट रूप से बताई गई है. एक ही क्षण में तलाक का सवाल ही नहीं उठता.

खत लिखकर या टेलीफोन पर एकतरफा और जुबानी तलाक की इजाजत इस्लाम कतई नहीं देता. एक बैठक में या एक ही वक्त में तलाक दे देना गैर-इस्लामी है. कुरआन में स्पष्ट किया गया है कि एक साथ तीन तलाक नहीं कहा जा सकता. एक तलाक के बाद दूसरा तलाक बोलने के बीच करीब एक महीने का अंतर होना चाहिए. इसी तरह का अंतर दूसरे और तीसरे तलाक के बीच होना चाहिए. यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि आखिरी समय तक सुलह की गुंजाइश बनी रहे. ऐसे में एक साथ तीन तलाक मान्य नहीं हो सकता.

प्रापर्टी में बेटी का भी हिस्सा
यही बात मां-बाप की संपत्ति पर, बेटी के हक़ पर लागू होती है. क़ुरआन में साफ-साफ लिखा है कि मां-बाप की प्रापर्टी में बेटी का भी हिस्सा होता है. लेकिन बात जब बेटियों के हिस्से की आती है तो अक्सर मां-बाप और भाईयों को यह कहते सुना है कि शादी कर दी अब कोई हिस्सा नहीं है. तुम्हारा हिस्सा शादी में खर्च हो गया.अगर कोई बेटी फिर भी न माने तो सालों कोर्ट के चक्कर लगाती है.

मुस्लिमों में ज्यादातर लोग वही इस्लाम जानते और समझते हैं जो उन्हें बताया गया है. क़ुरआन में बहुत कुछ है लिखा है, जिसे समझने की जरूरत है, जिससे औरतों के हक़ूक पता चलें, असल इस्लाम मालूम चले. जरूरत कुरआन को चूमकर अलमारी में रखने की नहीं है बल्कि उसे समझने की है, उसके मायने जानने की है. यानी कुरआन को अपनी भाषा में लोगों तक पहुंचाना होगा, उन्हें खुद पढ़ना होगा कि आखिर इस पाक किताब में लिखा क्या है. फिर उन्हें तय करने दें सही और गलत.

(निदा रहमान पत्रकार और लेखिका हैं.)

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