कादम्बिनी शर्मा के की-बोर्ड से : राहुल गांधी की छुट्टी

नई दिल्‍ली:

राहुल गांधी क़रीब दो महीने की छुट्टी से वापस आ गए हैं। कहां गए क्या किया ये सवाल पूछने पर कांग्रेस के बड़े छोटे सभी नेता कहते हैं कि ये उनका निजी मामला है। हो सकता है हो, लेकिन ये सवाल बार-बार इसलिए पूछा गया क्योंकि भारत में किसी भी नेता का पार्टी या राजनीति से छुट्टी लेकर निकल जाना एक नई बात है।

शायद कांग्रेस के पुराने नेताओं को भी ये ब्रेक ना समझ में आया और ना पचा। लेकिन क्योंकि कांग्रेस में गांधी परिवार के फ़ैसलों पर अब तक सवाल उठाने की परंपरा नहीं थी तो पहले ब्रेक को जस्टिफाय करने की, सही ठहराने की कोशिश हुई। कहा गया कि राहुल आत्मचिंतन कर रहे हैं। लेकिन ये भी धीरे-धीरे साफ़ हो गया कि छोटे तो क्या कांग्रेस के बड़े से बड़े नेता को नहीं पता कि राहुल हैं कहां और कर क्या रहे हैं।

जैसे-जैसे राहुल की छुट्टी से वापस आने की तारीख़ आगे खिसकती गई, सोशल मीडिया और मीडिया में 'राहुल की छुट्टी' मज़ाक़ का विषय बन गई। और यहीं से शुरू हुआ राहुल की पार्टी संभालने की क़ाबिलियत और उन्हें कमान थमाने के वक़्त पर सवाल- ख़ुद कांग्रेस के अंदर से। भले ही हम कितना भी कह लें कि ये कांग्रेस में ओल्ड गार्ड वर्सेज़ न्यू गार्ड है लेकिन बॉटमलाइन यही है कि सवाल उठने शुरू हो गए हैं।

इन सवालों की अहमियत पर मैं वापस आउंगी लेकिन उसके पहले ये भी बताना ज़रूरी है कि आख़िर मीडिया ने महंगा पेपर स्पेस और एयर स्पेस राहुल की छुट्टी और उनकी वापसी को क्यों दिया। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और सबसे लंबे वक़्त तक सत्ता में रही है। आधुनिक भारत के इतिहास के कई बड़े नाम उससे जुड़े रहे हैं। अच्छे बुरे कई दौर से गुज़री है लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जैसी ज़बर्दस्त हार कांग्रेस को मिली है कि दस महीने के बाद भी नेता सकते में हैं और कार्यकर्ता निराश।

विपक्ष संसद में इतना कमज़ोर नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की मज़बूती ख़त्म होने लगे। क्षेत्रीय पार्टियां हैं लेकिन पैन नेशनल पार्टी अभी तक कांग्रेस ही रही है। कांग्रेस में कमान राहुल के हाथ में देने की बात लंबे समय से चल रही है लेकिन मीडिया के लिए भी किसी राजनेता का छुट्टी पर जाना नई चीज़ ही है और ख़ासकर तब जब उस नेता पर ये विश्वास उसके लोग जता रहे हों कि बस वो आएंगे  और पार्टी का उद्धार हो जाएगा।

और तो और जैसे-जैसे राहुल के आने की तारीख़ आगे खिसकती गई, बीमारी से जूझ रही सोनिया गांधी एक बार फिर कमान ज़ोर शोर से संभालती नज़र आईं। ज़मीन अधिग्रहण विधेयक एक ऐसा मुद्दा है जिस पर कांग्रेस सरकार को अच्छी तरह से घेर सकती है लेकिन राहुल नदारद रहे। राजनीति में जो मौक़े का फ़ायदा ना उठाए वो नेता कैसा और कभी ऑन कभी ऑफ नेता अपने समर्थकों में भरोसा तो नहीं जगा सकता।

राहुल ने ऐसे वक़्त पर छुट्टी पर जाकर सवाल उठाने का मौक़ा ख़ुद दिया है। और मौक़ा ही नहीं उम्मीदें ऐसी बढ़ा दी हैं कि लौट कर आने पर बस अब वो कोई चमत्कार करने वाले हैं और अब तक अपने ज़ख़्म सहलाती कांग्रेस पार्टी पलक झपकते तंदुरुस्त हो जाएगी।

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लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, किसी गांधी पर सवाल अहमियत रखता है- इसका मतलब ये भी है कि कहीं किसी स्तर पर पार्टी में बदलाव आ रहा है। आज अगर अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए सवाल हो रहे हैं तो कल पार्टी को बचाए रखने के लिए गांधी परिवार और उनके फ़ैसलों पर भी सवाल हो सकते हैं। एक तरह से ये कांग्रेस पार्टी का वो दौर है जहां पन्ना पलटने की हिम्मत और कूवत परखते कई नेता नज़र आएंगे। पार्टी में ये आत्ममंथन नहीं मंथन का दौर बन सकता है।