राजीव पाठक की कलम से : आखिर किरण बेदी क्यों बनीं नरेंद्र मोदी की पसंद...?

नरेंद्र मोदी तथा किरण बेदी का फाइल चित्र

अहमदाबाद:

मैं नरेंद्र मोदी की राजनीति को पिछले करीब 18 सालों से देख रहा हूं, पढ़ रहा हूं। वह गुजरात के मुख्यमंत्री बने, उससे भी काफी पहले से, इसीलिए वह कोई फैसला लेते हैं तो उसके पीछे की मंशा या गणित का अंदाजा लगाना मेरे लिए उतना मुश्किल नहीं रह गया है।

नरेंद्र मोदी के जिस सबसे ताज़ा फैसले की सबसे ज़्यादा चर्चा है, वह है किरण बेदी को दिल्ली के मुख्यमंत्री पद के लिए बीजेपी के उमीदवार के तौर पर पेश करने का। वैसे, तकनीकी तौर पर तो यह बीजेपी का फैसला है, लेकिन राजनीति को जानने वाले सभी को पता है कि मौजूदा समय में बीजेपी, यानि नरेंद्र मोदी।

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी मोदी से बिना पूछे कोई फैसला नहीं करते। वर्ष 2002 से नरेंद्र मोदी की सत्ता की विकास यात्रा में शाह उनके सबसे भरोसेमंद सिपहसालार रहे हैं, और शायद इसीलिए वह आज बीजेपी के अध्यक्ष भी हैं।

अब रही किरण बेदी की बात, तो वह जब अन्ना हजारे के आंदोलन में सक्रिय थीं, तभी से मोदी की फैन रही हैं। जंतर मंतर पर आंदोलन के बाद जब अन्ना गुजरात आए थे, उन्होंने मोदी सरकार को भी भ्रष्ट बताया था, लेकिन तब भी बेदी ने मोदी के बारे में आलोचनापूर्ण कुछ नहीं बोला, बल्कि इसके उलट, उन्होंने सभी को अपनी गुजरात यात्रा के दौरान यही समझाने की कोशिश की कि अन्ना को मोदी-विरोधी बरगला रहे हैं।

बदले में जब किरण बेदी पर एनजीओ के जरिये भ्रष्टाचार के आरोप लगे, तब मोदी समर्थक भी चुप रहे। तभी से गुजरात में राजनीति की समझ रखने वाले सभी लोगों को यह पता चल गया था कि मोदी और बेदी साथ-साथ हैं।

लेकिन इसके बावजूद, जितना मैं मोदी को समझता हूं, इतना काफी नहीं है कि मोदी किसी को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी ऑफर कर दें। उनके साथ चुनावी गणित हमेशा से राजनैतिक दोस्ती पर हावी रहता आया है, और इस बार भी बात कुछ वैसी ही है। मोदी और शाह हमेशा से चुनावों को बहुत बारीकी से परखते हैं। इन दोनों की आदत रही है कि उनसे या उनकी प्रतिष्ठा से जुड़े हर चुनाव में वे अपने तौर पर सर्वेक्षण करवाते हैं, और मीडिया के चुनावी सर्वेक्षणों पर ज़्यादा भरोसा नहीं करते।

इस बार भी उन्होंने ज़रूर अंदरूनी सर्वेक्षण करवाया होगा और शायद वह मीडिया में आ रहे सर्वेक्षणों के नज़दीक होगा। यानि, केजरीवाल बीजेपी को कड़ी टक्कर ज़रूर दे रहे होंगे। दिल्ली में जीत की राह उतनी आसान नहीं होगी, इसीलिए अपने कार्यकर्ताओं की नाराज़गी की कीमत पर भी कुछ एक्स्ट्रा पुश की ज़रूरत महसूस हुई होगी।

नरेंद्र मोदी गुजरात और लोकसभा चुनावों में उम्मीद से ज़्यादा वोट इसीलिए पाते रहे हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद के लिए वह लोगों की पहली पसंद रहे हैं, और दिल्ली में बीजेपी को सीटें भले ही ज़्यादा मिल रही हों, लेकिन मुख्यमंत्री पद की दौड़ में केजरीवाल सबसे आगे रहे हैं और यही वजह है कि मोदी और शाह को एक डर ज़रूर रहा होगा कि कहीं यह फैक्टर आखिरी समय में आम आदमी पार्टी को बीजेपी के मुकाबले लाकर खड़ा न कर दे।

और यह भी सच है कि राजनीति में आप भले ही 10 चुनाव जीतें, लेकिन एक हार, और आपकी लोकप्रियता पर असर पड़ना शुरू हो जाता है। अगर दिल्ली में बीजेपी जीत नहीं पाई तो यह चर्चा शुरू हो ही जाएगी कि मोदी का करिश्मा घटने लगा है, जो मोदी और शाह, दोनों के लिए बेहद नागवार लम्हा होगा। इसीलिए कुछ ऐसा करना था, जिससे एक मज़बूत बाज़ी लगाई जाए, और जो फैक्टर सबसे बड़ी कमज़ोरी है, उसे दुरुस्त कर लिया जाए। अरविन्द केजरीवाल की मुख्यमंत्री पद की लोकप्रियता के मुकाबले मुख्यमंत्री पद का कोई ऐसा उम्मीदवार, जो आम लोगों को भी लगे, टक्कर का है।

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...और सिर्फ इसीलिए अपनों को नाराज़ करके भी एक फैसला ले लिया गया... मोदी ने चुना बेदी को... सो, अब देखना है कि इस बार मोदी का यह गणित कितना सफल हो पाता है।