भोपाल गैस त्रासदी के 34 बरस बाद देश के दूसरे सबसे स्वच्छ शहर का तमगा लिए भोपाल में सैकड़ों मीट्रिक टन ज़हरीला कचरा अब भी ज़हर घोल रहा है. आश्चर्य है कि स्वच्छ भारत, स्वच्छ प्रदेश और स्वच्छ शहर के विमर्श में यह कचरा कहीं नहीं है. इसको निपटाने की तमाम कवायदें असफल हो चुकी हैं, क्योंकि इसे निपटाना शायद किसी की प्राथमिकता नहीं है, अलबत्ता धीरे-धीरे इसके प्रभावितों का दायरा यूनियन काबाईड कारखाने के आसपास बसी 20 कॉलोनियों से बढ़कर 42 कॉलोनियों तक फैल चुका है.
नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में सबसे अधिक प्राथमिकता से जो काम किया, वह देश को स्वच्छ बनाने का है. देश में अब तक लाखों टॉयलेट बनाकर खुले में शौच से मुक्ति का नारा दे दिया गया है. केवल भोपाल ही नहीं, पूरे मध्य प्रदेश को इसी साल 2 अक्टूबर को अख़बार में विज्ञापन छापकर ODF, यानी खुले में शौच से मुक्त घोषित किया जा चुका है. स्वच्छ भारत का दायरा केवल शौचालय बनाने भर तो सीमित नहीं था, इसीलिए इसे और विस्तारित करने के लिए शहरों में स्वच्छ होने की घोषित स्पर्द्धा भी हुई, इसमें प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर के बाद मध्य प्रदेश की राजधानी दूसरे स्थान पर आ भी गई.
ऐसा शायद इसलिए भी है, क्योंकि अब से 300-400 बरस पहले तक भोपाल शहर की योजना ही इस तरह से बनाई गई होगी कि वह तमाम विकास के बाद अब भी हरा-भरा और पानीदार दिखता है, यदि आप कहेंगे कि इसमें मौजूदा समाज और सरकार को श्रेय जाता है, तो कहना होगा कि नहीं, क्योंकि यदि आप आज के भोपाल को विकास करता देखेंगे, तो उसमें से हरियाली गायब है, पहाड़ियां काटी जा रही हैं, और जलस्रोतों को तो लगातार उपेक्षित किया जा रहा है. स्वच्छ भारत का विमर्श वास्तव में पर्यावरण के गंभीर सवालों तक तो पहुंचा ही नहीं, जो समाज के लिए ज्यादा घातक हैं, और एक ही रात में एक पूरे शहर के लिए जानलेवा साबित होते हैं.
स्वच्छता को मापने के क्या पैमाने थे, यह एक और विषय हो सकता है, लेकिन झीलों के उसी शहर के बीचों-बीच तकरीबन 340 मीट्रिक टन हत्यारा कचरा मौजूद रहता है, यह कचरा दो तरह का है. एक वह, जो गोदाम में भरा हुआ है, और एक वह, जो कारखाने के संचालन के वक्त निकलता था. गैस पीड़ित संगठनों का दावा है कि तकरीबन 10,000 मीट्रिक टन कचरा खाली ज़मीन में दफ़न कर दिया गया. यूनियन काबाईड कारखाने में अब भी मौजूद इस कचरे पर एक शब्द भी नहीं कहा जाता, साल दर साल, पीढ़ी दर पीढ़ी यह कचरा धीरे-धीरे ज़मीन में रिस रहा होता है, इस कचरे पर जब-तब आवाज़ें भी उठाई जाती हैं, लेकिन जहां स्वच्छता का मतलब सिर्फ शौचालय भर से जोड़ दिया जाता हो, वहां इसकी गंभीरता की उम्मीद करें भी तो कैसे.
सरकारें आती रहीं, जाती रहीं, आती-जाती रहेंगी भी, लेकिन अब तो हाशिये के इस कचरे को कोई अपने मैनिफेस्टो में कहता भी नहीं, किसी राजनीतिक दल के नेता उस पर भाषण नहीं देते, कोई उन व्यवस्थाओं को ठीक करने की कोशिश नहीं करता, जो गैस पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम ही लगा सके. ठीक बात है कि शौचालय से वोट मिल सकते हैं, लेकिन इस कचरे की आवाज़ कचरे में ही दबी है. वह आवाज़ साल में बस एक दिन यानी 'बरसी के दिन' की आवाज है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं.
आइए, बरसी आ गई है, जो लोग इसे भूल गए हैं, या जिन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं है, उन्हें बता दें कि 1984 में 2 और 3 दिसंबर के बीच की रात भोपाल शहर पर कहर बनकर टूटी थी. यह हादसा दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक था, जब यूनियन कार्बाइड कारखाने से एक खतरनाक ज़हरीली गैस रिसी थी, और पूरे शहर को अपनी चपेट में ले लिया था. इस मामले में सरकार ने 22,121 मामलों को मृत्यु की श्रेणी में दर्ज किया था, जबकि 5,74,386 मामलों में तकरीबन 1,548.59 करोड़ रुपये की मुआवज़ा राशि बांटी गई, लेकिन क्या मुआवज़ा राशि बांट दिया जाना पर्याप्त था. भोपाल गैस त्रासदी के एक भी गुनहगार को सरकार सज़ा नहीं दिला पाई, और सबसे बड़ा कुसूरवार वॉरेन एंडरसन तो सिर्फ एक ही बार भोपाल लाया जा सका. आज ही के अख़बार ने बताया है कि इस रात के एक और गुनहगार की तो CBI के पास फोटो तक नहीं है. बताइए, जिस व्यक्ति की फोटो तक नहीं है, उसकी गिरफ्तारी के लिए क्या तरीका अपनाया जा रहा होगा.
खैर, एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी को याद कर लिया जाए. एक-दो ट्वीट कर लिए जाएं, एक-दो जगह मोमबत्ती जला दी जाए, इससे अधिक और क्या करें, जिन्हें कुछ करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी, वे इसके हत्यारे को ला नहीं पाए, कई बार सोचते हैं कि क्या भारत की सरकारें इतनी पंगु रही हैं. जो हुआ, उसे भुला भी दें, लेकिन जो कुछ हो रहा है, क्या उस पर नहीं सोचा जाना चाहिए. कृपया, उस कचरे पर गंभीरता से एक बार क्यों नहीं सोच लेते.
अगस्त, 2015 में केवल एक बार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की निगरानी में टीएसडीएफ पीथमपुर में केवल 10 मीट्रिक टन कचरे का निपटान हुआ, उसके तीन साल गुज़र जाने के बाद बाकी कचरे का क्या किया गया है, ऐसी कोई जानकारी या ख़बर नहीं है. कुछ राजनेताओं ने यह भी कहा कि यह कचरा अब प्रभावशील नहीं रहा, यह अपनी ज़िम्मेदारी से बचने भर का बयान है, यदि मामला ऐसा भी है, तो भी कारखाने में मौजूद कचरे को भोपाल से पीथमपुर के 250 किलोमीटर ले जाने और नष्ट करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सवाल प्राथमिकताओं का है.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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