क्‍या शरबती के घर में ‘कठिन’ सवालों पर बात करेंगे पीएम !

क्‍या शरबती के घर में ‘कठिन’ सवालों पर बात करेंगे पीएम !

प्रतीकात्‍मक फोटो

मध्यप्रदेश के सीहोर जिले का शेरपुर गांव अचानक चर्चा में है। सीहोर वही जिला है जिसका शरबती गेहूं देशभर  के बाजारों में “मध्यप्रदेश के गेहूं” के नाम से बिकता है। जिले की एक खासियत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले के कारण भी है। शेरपुर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 18 फरवरी को किसान सम्मेलन को संबोधित करने वाले हैं।

यह सम्मेलन पहले राजधानी भोपाल में होना प्रस्तावित था, लेकिन अपने हर अंदाजे बयां में नवाचार करने वाले प्रधानमंत्री के लिए किसी गांव में यह आयोजन तय हुआ। मध्य प्रदेश के तकरीबन 51 हजार गांवों में से शेरपुर का चुनाव किया गया। मध्यप्रदेश में बंपर उत्पादन के लिए लगातार चौथे “कृषि कर्मन अवार्ड” का जश्न कुछ ऐसे मनाना तय हुआ। मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि जिस शेरपुरा में यह कार्यक्रम हो रहा है वहां की जमीन बंजर है, पानी लगभग साढ़े चार सौ फुट नीचे चला गया है, गांव के युवाओं के पास भी देश के अन्य युवाओं की तरह कुछ खास काम नहीं है। देशभर में शरबती गेहूं के आटे की रोटियां लोगों को तृप्त करती हैं, यह अलग बात है कि इस महासम्मेलन से पहले शेरपुर गांव की तकदीर नहीं बदल पाई।

देश में हर रोज करीब ढाई हजार किसान छोड़ रहे खेती
अब जरा व्यापक संदर्भ में देखें, जनगणना 2011 के आंकड़ों का विश्लेषण हमें बताता है कि देश में तकरीबन रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। सरकारी होर्डिंग्स की पंच लाइन “खेती को लाभ का धंधा बनायेंगे” यह सिद्ध करती है कि खेती अब भी जोखिम भरा काम है और इसमें किसान लगातार पिट रहा है। आजीविका और किसानों की जिंदगी से जुड़ी “परंपरागत खेती” नगद फसलों में तब्दील हो चुकी है। अब खेती भी बाजार में टिके रहने के लिए अन्य धंधों की तरह भारी पूंजी की मांग करती है।

शहरों की ओर बढ़ता जा रहा पलायन
कर्ज में लदे किसानों की इतनी हैसियत नहीं है कि वह खेती की बढ़ती लागत के बीच अपने साहस की जोर-आजमाइश कर सकें। यही कारण है कि खेती से लगातार लोग कम होकर शहरों की और पलायन कर रहे हैं। आरोप तो यह भी हैं कि ऐसा अनजाने में नहीं, बल्कि जान बूझकर किया जा रहा है। इस सदी के पहले 10 सालों में भारत में कुल कामकाजी जनसंख्या में 8 करोड़ की वृद्धि हुई, लेकिन इसी बीच किसान कम हो गए। साल 2001 में देश में 12.73 करोड़ लोग खेती करते थे, लेकिन साल 2011 की जनगणना में इनकी संख्या में 86.2 लाख की कमी आई यानी हर रोज 2368 किसान अपने खेतों से दूर हो गए। कुछ राज्यों को देखें तो उत्तरप्रदेश में 31 लाख, पंजाब में 13 लाख, हरियाणा में 5.37 लाख, बिहार में 9.97 लाख, मध्यप्रदेश में 11.93 लाख और आन्ध्रप्रदेश में 13.68 लाख किसानों ने खेती छोड़ दी।   

10 सालों में खेतिहर मजदूरों की संख्‍या में हुआ इजाफा
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि इन 10 सालों में 3.75 करोड़ खेतिहर मजदूर बढ़ गए। उत्तरप्रदेश में दस सालों में कृषि मजदूरों की संख्या में 1.25 करोड़ का इजाफा हुआ। बिहार में 49.27 लाख, आंध्र प्रदेश में 31.35 लाख और मध्यप्रदेश में कृषि मजदूरों की संख्या 47.91 लाख बढ़ी है। इन आंकड़ों का मतलब तो यही है कि खेती किसानी छोटे और सीमांत किसानों के लिए बेहद मुश्किल भरी साबित हो रही है और इसका दोष केवल खराब मौसम को नहीं दिया जा सकता है। इसकी जड़ में वह नीतियां भी हैं जिन्होंने खेतिहर को फांसी लगाने पर मजबूर कर दिया है। देखना यह है कि “कृषि कर्मन अवार्ड” की चमक आत्महत्याओं के कलंक को कैसे और कब तक दबा पायेगी अथवा इस महासम्मलेन में तकरीबन पांच लाख किसानों के सामने कोई ठोस विमर्श होगा कि देश में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा कुछ कम हो।   

किसान महासम्‍मेलन में मोदी के संबोधन पर टिकी निगाहें
किसान महासम्मेलन के मंच से जब मोदीजी हजारों किसानों को बंपर उत्पादन के लिए शाबासी देंगे तब क्या वह इस बात का भी जिक्र करेंगे कि साल 2009 से 2013 के बीच तकरीबन 70 हजार किसानों ने खेती और इससे जुड़े संकटों के कारण मौत को गले लगा लिया है और यह आंकड़े किसी एनजीओ या किसान संगठन के नहीं बल्कि उनके राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हैं। क्या वह इस बात को भी समझायेंगे कि 2007 से 2012 के बीच केवल पांच सालों में तकरीबन तीन करोड़ लोग क्यों शहरों की ओर चले गए हैं ? और अब और ज्यादा किसान भले ही वह महाराष्ट्र के हों, आंध्र के, राजस्थान या गुजरात के, शहरों की ओर नहीं जायेंगे। देखना यह भी होगा कि फसल बीमे की जिस प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बीमा योजना का शुभारंभ इस मंच से होगा, वह किसानों को कहां तक राहत पहुंचा पाती है।

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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