एक त्रासदी जो हमसे सवाल करती है...

एक त्रासदी जो हमसे सवाल करती है...

भोपाल के इतिहास में ये तारीखें बहुत शिद्दत से याद की जाती रही हैं - 2 और 3 दिसम्बर. इन दो तारीखों के बीच की रात में जो कुछ हुआ उसे दुनिया अब तक अपनी भीषणतम त्रासदियों में याद करती है. इस त्रासदी ने उन दो तारीखों में लोगों को जो दुख दिया, वो तो दिया ही, उसके बाद भोपाल के शरीर पर पड़े छाले इसलिए दर्द देते रहे क्योंकि इसके गुनहगारों को हम सजा ही नहीं दिलवा पाए. पिछले तीस—चालीस सालों में केन्द्र और राज्य की किसी भी राजनीति ने इतना दम नहीं दिखाया कि गुनहगारों के गिरेबां तक पहुंचतीं, उसने तो तमाम सबूतों के बावजूद उन अधिकारियों को भी इतने सालों तक बख्शे रखा. भोपाल त्रासदी अब भी हजारों लोगों की एक रात में हुई मौतों का जवाब मांगती है. अलबत्ता अब तो राजनीतिक फलक से भी यह तिथियां, यह त्रासदी, हजारों लोगों के खून के आंसू एक मोमबत्ती के पिघलने से ज्यादा नहीं रह गए हैं.

ज़रा देखिये कि इन दो तारीखों के 32 बरस बाद अब भोपाल क्या कर रहा है? चार दिसम्बर को भोपाल एक महाआयोजन कर रहा है. इस दिन साफ—सफाई को लेकर एक महामैराथन का आयोजन किया है, जिसमें हजारों लोग दौड़कर स्वच्छता का सन्देश देंगे. अच्छी सेहत रखने का सन्देश देंगे. इस दौड़ में वैसे तो कोई बुराई नहीं है, चूंकि एक स्वच्छ भारत का सपना माननीय प्रधानमंत्री जी ने देखा है तो इसको परवान चढ़ाने के लिए पूरा सिस्टम लगा ही है, लेकिन स्वच्छ भोपाल के लिए उठाया कदम भोपाल गैस त्रासदी की बात पूरी किये बिना कैसे सफल सिद्ध हो सकता है?

भोपाल की ज़मीन और उस खूनी कारखाने में अब भी मौजूद हजारों टन जहरीले कचरे को हटाए बिना क्या भोपाल असल मायनों में स्वच्छ हो सकता है. हर बारिश में यही हजारों टन कचरा भूजल को खराब कर रहा है और कई वैज्ञानिक शोध में भी इस बात का पता चल चुका है कि भोपाल के पानी में अब भी वे खतरनाक रसायन अपना असर दिखा रहे हैं तो इस बात के लिए आजतक क्यों कोई प्रण नहीं किया गया. जो ज़िंदगियां खराब हुईं सो हुईं लेकिन क्या आज की पीढ़ी को भी यह राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था इस त्रासदी के बाद की त्रासदी से मुक्त करा रही है. कुछ जगह झाड़ू लगा देने से, कुछ होर्डिंग्स लगा देने से, कुछ दौड़ लगा भर देने से क्या एक शहर साफ हो जायेगा जबकि उसकी तो रगों में जहर भरा हुआ है, आखिर तीस बत्तीस साल बाद यह कचरा भोपाल में कैसे मौजूद है. यही कचरा भोपाल का असली कचरा है और इसके लिए कौन प्रण करेगा? भोपाल शहर को साफ रखने के लिए नगर निगम ने एक स्वच्छ एप्प लॉन्च किया है, जिसके जरिये साफ सफाई सम्बन्धी शिकायत की जा सकती है, क्या इस मोबाइल एप्प में कोई सिस्टम इस कचरे के लिए है? शायद नहीं, क्योंकि इसके लिए न तो कोई प्रधानमंत्री सपना देखते हैं, न ही कोई मुख्यमंत्री सपना देखते हैं.
 


भोपाल त्रासदी के अगले ही दिन मध्यप्रदेश सरकार जो करने जा रही है वह और भी दिलचस्प है. त्रासदी के कालेपन के छंटने की परवाह किए बिना शहर के एक इलाके में उत्सव की बहार है. जंबूरी मैदान के सड़क पर आजू—बाजू रंगीन झंडे इस तरह लहरा रहे हैं मानो कि कोई उत्सव मनाया जाने वाला हो. सड़कों के गड्ढे भरकर, स्वच्छता अभियान की मंशा अनुरूप सड़कों का चेहरा चमका दिया गया है. मैदान से तकरीबन चार किलोमीटर तक प्रधानमंत्री जी और मुख्यमंत्री जी के होर्डिंग चमचमा रहे हैं. गौर करने वाली बात यह है कि इन होर्डिंग्स में किसी विभागीय मंत्री तक की एक भी तस्वीर नहीं है. इस कार्यक्रम का नाम दिया गया है मध्यप्रदेश के सभी हितग्राहियों के लिए जनकल्याणकारी योजनाओं का प्रशिक्षण कार्यक्रम. मजे की बात यह है कि इसी अवधि में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्रित्व काल के 11 साल पूरे हो रहे हैं. अब जनता इस बात के लिए असमंजस में है कि यह शिवराज सिंह चौहान के 11 साल पूरे होने का कार्यक्रम है या कि प्रशिक्षण कार्यक्रम. संभवत: मध्यप्रदेश सरकार ने इतना बड़ा विशालकाय प्रशिक्षण शिविर इससे पहले आयोजित नहीं किया गया होगा. खैर, अच्छी बात है कि सरकार चाहती है कि लोग आगे आये और लाभ उठायें, पर भोपाल तक बुलाए जाने की जगह जिला स्तरों पर कम खर्च में ऐसे आयोजन ज्यादा प्रभावी हो सकते थे.

इस प्रशिक्षण शिविर को भोपाल गैस त्रासदी से जोड़ने पर सवाल उठ सकते हैं लेकिन सवाल यही है कि त्रासदी के काले झंडों को जिस वक्त दुनिया के सामने उठाया जाना चाहिए था, हमारी सरकारों ने उन्हीं दौर में अपनी ही जमीनों पर रंग—बिरंगे झंडे सजाए, इसके गुनहगारों पर कभी ओबामा की तरह वह दबाव ही नहीं बना सके, जो अपने देश की जनता के दुश्मनों को जूते की नोंक पर मारने की धमकी दे पाते थे. हमारी सरकार विदेशियों के बजाय अपने ही देश के आम लोगों को चाबुक चलाकर कतार में खड़ा कर देने पर आमादा रही हैं. एंडरसन जैसे गुनहगार बचे रह जाते हैं,  उन पर  हमारा कोई बस नहीं चलता. इसके लिए सरकार ने कभी तीस बत्तीस सालों में कोई विशालकाय तम्बू क्यों नहीं लगाया? क्यों लोगों को उनके जायज़ मुआवज़े के लिए सालों चक्कर काटने पड़े और क्यों अब भी गैस राहत के नाम पर बने अस्पतालों में इस त्रासदी के दिए दर्दों की माकूल दावा मौजूद नहीं है. क्यों?
 
हर साल बरसी आती है, कुछ लोग मोमबत्ती जलाते हैं, चंदा करके टेंट लगा लेते हैं, कुछ भाषण हो जाते हैं, एक साल और खत्म हो जाता है. यही साल दर साल की कहानी है. पर भोपाल गैस त्रासदी के उन सवालों को कभी जवाब नहीं मिलता जो हर साल बार बार सामने आ जाते हैं, वह हमें डराते हैं, वह यह भी कहते हैं कि देखो हजारों हत्याओं के बाद भी हम बचे रह जाते हैं, वह हमें चेताते भी हैं कि देखो कल मैं गैस बनकर आई थी, देखों कल मैं आग बनकर भी आ सकती हूँ, कल मैं रेल के पहियों पर चढ़कर भी आ सकती हूं, देखो कल मैं किसी विशालकाय बांध को तोड़कर भी आ सकती हूँ, मैं आ सकती हूँ, कभी भी कहीं भी !

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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