बच्चों की मौत के मामलों में टॉप पर यूपी, फिर भी क्यों नहीं हो रही चर्चा!

बच्चों की मौत के मामलों में टॉप पर यूपी, फिर भी क्यों नहीं हो रही चर्चा!

प्रतीकात्‍मक फोटो

इधर मध्यप्रदेश में बच्चों में कुपोषण और पोषण आहार को लेकर भले ही हंगामा मचा हुआ हो, लेकिन क्या आप जानते हैं बच्चों की हालत सबसे अधिक कहां खराब है?  क्या आप जानते हैं सबसे अधिक बच्चे कहां मरते हैं ?  उत्तरप्रदेश. जी हां, खाट से लेकर हाथी और साइकिल वाली राजनैतिक उठापटक के बीच हाल ही में वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण  के जो आंकड़े आए हैं, वह बताते हैं कि बच्चों के बदतर स्वास्थ्य हालातों में जो देश के सबसे ज्यादा खराब सौ जिले हैं उसमें सबसे ज्यादा जिले (46) इसी उत्तरप्रदेश से पाए गए हैं.

सोचने की बात यह है कि ऐसे चुनावी समय में जबकि ऐसे संवेदनशील विषय विपक्षी पार्टियों को राजनीति गरम करने के मौके दे सकते हैं, ऐसे भयावह आंकड़े जो किसी भी दल की सरकार को असफल साबित करने के काम आ सकते हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं दे रहा. उतनी ही सोचने लायक बात यह भी है कि एक अरसे से समाजवादी पार्टी दूसरे दलों को मीडिया की चर्चा में आने का कोई मौका ही नहीं दे रही. इस चुनावी अखाड़े में उनका भरोसा सबसे ज्यादा सुल्तानों वाला दिख रहा है, उन्हें पूरा भरोसा है इसीलिए वे मुख्यमंत्री पद की सबसे ज्यादा बात करते नजर आ रहे हैं, ऐसे में बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की राजनीति में वह दम ही नहीं दिख रहा जो इस नाजुक वक्त पर दिखाई देना चाहिए.

ऐसी पार्टी नहीं बनी, जिसने बच्‍चों के विकास को एजेंडा बनाया हो
बच्चे वोट भले ही नहीं देते हैं, लेकिन उनके विषयों पर सियासत जरूर की जा सकती है, आम आदमी पार्टी बन गई, बहुजनों की, बामनों की, दलितों की, मजदूरों की, किसानों की, महिलाओं की, सभी की पार्टी बन गईं, लेकिन आजादी के बाद से आज तक एक भी ऐसी सियासी पार्टी नहीं बनी, जिसने बच्चों के विकास को अपना एकमात्र एजेंडा बनाया हो. अब सवाल यह भी है कि बच्चों के लिए वोट कौन देगा भला? जाहिर सी बात है उसी तरह बच्चों की राजनीति भी आखिर कौन करेगा ? पर क्या देश की राजनीति इतनी भी समझदार नहीं है कि वह ऐसे मामलों को सूंघकर उसे अपने हित में उपयोग ही कर सके?

इन भयावह आकड़ों पर कोई चुनावी सरगर्मी नहीं
आज की राजनीति केवल उथली-उथली बातें करके मीडिया को मसाला देने भर का काम कर रही है. यदि असल मुद्दों को पकड़ा होता तो इस बात पर अब तक तूफ़ान मच जाना चाहिए था कि पांच साल तक के बच्चों की मौत, एक साल तक के बच्चों की मौत और नवजात शिशुओं के मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है. आश्चर्य है कि इन भयावह आंकड़ों पर चुनावी सरगर्मी में कोई दंगल नहीं है.

बच्‍चों की आवाज को सुनने वाला कोई नहीं
समाजवादी व्यवस्था में बच्चों की आवाज सुनने वाला कोई नहीं है, खाट पर बैठकर भी बच्चों की इस दशा पर कोई चिंतन आया और राम और कृष्ण की जन्मभूमि वाले प्रदेश में कभी उनको राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा मानने वाली पार्टी, उनके नाम पर सियासत लहराने वाली पार्टी भी अब के ‘बाल-गोपालों’को देख ही नहीं पा रही. क्या यूपी की राजनीति केवल जाति आधारित व्यवस्थाओं पर सीमित रहेगी या समाज में भी बच्चों की दलित/उपेक्षित हो जाने की नियति को चुपचाप देखे और उस पर कोई सवाल खड़ा नहीं करेगी.

नौ राज्‍यों में कराया जाता है यह सर्वे
जिन आंकड़ों की हम बात कर रहे हैं वह आए कहां से ? यह किसी एनजीओ या संगठन का सर्वे नहीं है. इसे भारत सरकार खुद कराती है इसलिए इसमें जो आंकड़े हैं उन्‍हें आप सत्य मान सकते हैं. आंकड़ों को कम करके बताने की जो आदत सिस्टम में मौजूद है उसके देखते हुए इसे हम ज्यादा भी मान सकते हैं. यह ‘एनुअल हेल्थ सर्वे’ है. मौजूदा वक्त से साल दो साल पीछे चलता है, अभी जो आया है वह साल 2012-13 की परिस्थिति है और हम यह अनुमान लगाते हैं कि इन दो सालों में अखिलेश सरकार ने कोई चमत्कार नहीं ही कर दिया है. यह सर्वे 9 राज्यों में कराया जाता है. इसमें 243 जिले कवर किए जाते हैं.

नवजात शिशु मृत्यु दर के मामले में यूपी के 46 जिले
इसके आंकड़ों को जब हमने देखना शुरू किया तो पाया कि ऐसे बच्चे, जो जन्म लेने के सात दिन के अंदर जिंदा नहीं रह पाते जिसे हम तकनीकी भाषा में नवजात शिशु मृत्यु दर कहते हैं इसमें शीर्ष 100 जिलों में 46 उत्तप्रदेश के खाते में आते हैं. हमने उनसे बड़े बच्चों यानी शिशु मृत्यु दर (जो बच्चे जो अपना पहला जन्मदिन ही नहीं मना पाते) पर नजर डाली तो उसमें भी शीर्ष 100 जिलों में सबसे ज्यादा जिले उत्तरप्रदेश के हैं. और जब हमने उससे भी बड़े यानी पांच साल तक के बच्चों अर्थात बाल मृत्यु दर को देखा तो उसमें भी उत्तरप्रदेश ही आगे खड़ा हुआ है.

उत्तरप्रदेश की राजनैतिक-सामाजिक चेतना से यह सवाल पूछा जाना चाहिए, आखिर बच्चों के लिए वह एक सुरक्षित समाज आज तक क्यों नहीं बना पाए, एक समृद्ध धरती, जिसे गंगा-जमुना जैसी नदियां वरदान देती हैं, जो वीरों की धरती रही, कई राजवंशों ने जिसे अपनी राजधानी बनाया, जहां खेती किसानी के लिए लंबे—लंबे उपजाऊ मैदान हैं, दूध-दही-माखन की धरती आज बच्चों के खून से क्यों लाल है ? समाजवाद में बच्चे कहां हैं, दलित राजनीति में बच्चे कहां हैं, भगवा झंडे के तले बच्चे कहां हैं, कांग्रेस के 'पंजे' का बच्चों के सिर पर साया है या नहीं, यह केवल अलग—अलग राजनीतियां हैं या उससे भी जुदा कुछ है.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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