हमारे यहां सरकारें बने हुए कितने साल हुए - 60 साल, 70 साल.. पैकेज शब्द कितने सालों से प्रचलन में आया - 20 साल, 30 साल और समाज, वह तो सदियों से जिंदा है। अपनी ताकत पर महाभयंकर आपदाओं-त्रासदियों सूखे, अकाल, बीमारियों के बावजूद जिंदा है, वह खत्म नहीं हुआ, पैकेज के बिना भी जिंदा रहा।
और आजकल सरकारें, जो ऐसा दावा करती हैं, दिखाती हैं कि उनकी वजह से ही समाज चल रहा है, उनके पैकेज की वजह से ही आपदाओं से मुक्ति मिलती है, इस समाज के वही अंतिम और सर्वोपरि कर्ताधर्ता हैं, तो माफ कीजिए। इस बात को अपने दिल और दिमाग से बिल्कुल निकाल दीजिए, क्योंकि झेलता तो समाज ही है, लड़ता तो समाज ही है, गिरता तो समाज ही है, गिरकर संभलता तो समाज ही है। आपका पैकेज तो पूरी तरह वहां पहुंच ही नहीं पाता।
इसलिए इस समाज को बुरे से बुरे वक्त में भी (जैसा आज का चेन्नई) दयादृष्टि नहीं, सहयोग चाहिए, जो उसे परिस्थितियों से लड़ने में मदद कर सके, इसलिए कृपया सूखे, अकाल, बाढ़ में सीना तानकर आप जो हजारों-करोड़ों की घोषणाएं करते हैं, कीजिए, लेकिन समाज की ताकत के बारे में भी सोचिए, उससे इंकार मत कीजिए, उसका सम्मान कीजिए।
आप जो पैकेज भेजते हैं, उसकी गत होती हमने देखी है। आज से नहीं, सालों से, हर पार्टी और हर नेता की सरकार से। आपने जब सूखा राहत का पैकेज भेजा, हमने देखा कि बुंदेलखंड में सैकड़ों तालाबों के ऊपर दोबारा तालाब बनाकर बोर्ड लगा दिए गए। आपने जब किसानों के लिए फसल राहत का पैकेज भेजा तो हमने देखा कि हजारों किसान हाथ ही फैलाते रह गए, आपने बिहार में भी कई-कई शून्य लगाकर पैकेज भेजा!! अब आप बाढ़ राहत का पैकेज भेज रहे हैं।
पैकेज सुनकर हमें जमीनी पत्रकार पी. साईंनाथ की किताब 'तीसरी फसल' याद आती है। अपने जमीनी अनुभवों से उन्होंने बताया है कि वर्तमान दौर में अकाल, सूखा या विपदाएं कैसे-कैसे संकट लेकर सामने आती हैं। अनुभव बताते हैं कि ऐसे मौके पैकेज के अवसर उपलब्ध कराते हैं। बड़ा पैकेज पैकेज देने वाले की छवि को चमका देता है, और पैकेज बांटने का अवसर हमारे सिस्टम के लिए मुस्कान का कारण बन जाता है।
दादा हरिशंकर परसाई ने अपने व्यंग्य 'सुदामा के चावल' में हमारे इस सिस्टम को (जो आज भी नहीं बदला है) बड़े अच्छे से समझा दिया था। उन्होंने बता दिया था कि सब आखिर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, मलाई सभी को अनिवार्यतः चाहिए होती है और जो सत्ता की कड़ाही से निकली खुरचन लेने से इंकार कर देता है, उसे सिस्टम जात बाहर कर देता है।
चेन्नई में हमारे लाखों भाई-बहन जिंदगी की जंग लड़ते रहेंगे, तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक वे उठकर खड़े नहीं हो जाते, दौड़ने नहीं लगते, और इसमें पैकेज...! क्या आप तौलोगे...? पैकेज का कितना योगदान रहा...? हां, यह ठीक बात है आपका पैकेज 'सड़क' बना देगा, 'नाली' बना देगा, 'हवाईअड्डे' को फिर से चलाने लायक बना देगा, लेकिन... लेकिन समाज तो अपनी लड़ाई खुद ही लड़ता है, ऐसे वक्त में ही समाज दिखाता है कि उसकी असली ताकत खुद में समाहित है...
इसीलिए जो सोशल मीडिया पर हम भावनाओं का गुबार देख रहे हैं चेन्नई के लिए, और जिसे सोशल मीडिया के जमाने से पहले भी अभिव्यक्त किया जाता था भिन्न-भिन्न रूपों में, वही देश की असली ताकत है, किसी भी पैकेज के परे।
हैरत तो इस बात पर है कि आपने 'अपने पैकेज' को ही सबसे बड़ा समझ लिया, अपने ढांचागत विकास को ही सच समझ लिया। समाज के विज्ञान को, उसके तौर-तरीकों को भी समझते तो और अच्छा होता।
ख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने राजस्थान में तालाबों के जरिये हमें एक छोटी सी मिसाल दी, जिसे 'आज भी खरे हैं तालाब' किताब में पढ़ा जा सकता है... देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद ऐसी हजारों मिसालें बिखरी पड़ी हैं... पी. साईनाथ अपने भाषण में ठेठ मछुआरों के ऐसे ही एक समाज की मिसाल पेश करते हैं... जब पढ़े-लिखे इंजीनियर घुटने टेक देते हैं तो कैसे नदी में गिरी रेलगाड़ी को मछुआरा समाज अपने देसी विज्ञान से एक झटके में बाहर ले आता है।
क्या आप एकदम देसी पद्धति से जमीन के नीचे पानी पता करने वाले अचूक इंसानों के बारे में जानते हैं...? क्या आपने सोचा है कि सदियों पहले खजुराहो के मंदिरों पर शिखर कैसे स्थापित कर दिए गए, पहाड़ों पर फसल पैदा कर लेने का हुनर तो पहाड़ी ने ही ईजाद किया...! घायल शेर को मरहम-पट्टी करने का कमाल तो केवल बैगा ही कर सकते हैं, मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालकर ले आना भारियाओं से ज्यादा कोई अब तक नहीं जान पाया है, बालाघाट के खूबसूरत घरों में आप जेठ के गर्मी में बिना वातानुकूलित हवा के सुकून से सो सकते हैं...
मिट्टी से लोहा बना देने का देसी अंदाज अगरिया समाज से ज्यादा अच्छा कोई नहीं जानता... देश में जितने गांव-मजरे-टोले होंगे, खोजें तो... जीने के, संघर्ष के उतने ही तौर-तरीके आपको मिल जाएंगे। एकदम ठेठ तरीके। एकदम मौलिक तरीके। परिवेश में रचे-बसे तरीके।
लेकिन हम उनका सम्मान नहीं करते... आधुनिक समाज को लगता है कि उनका परिवेश ही श्रेष्ठ है, बाकी जो गंवई है, वह पिछड़ापन है, विकसित नहीं है... लगातार ऐसा कहते रहने से हमने उस परिवेश का आत्मविश्वास ही कमजोर कर दिया है, इसलिए वह भी अब अंधी दौड़ का एक हिस्सा है...
इस दौर में सबसे ज्यादा और सबसे जरूरी यह भी है कि समाज को उसकी खोई ताकत लौटाई जाए, उसका सम्मान लौटाया जाए, उसकी अस्मिता का सम्मान किया जाए... उसके संघर्ष के तौर-तरीकों को लौटाया जाए... वास्तव में ऐसा हो पाया तो सबसे कठिन समयों में भी सबसे कम पैकेज में हमारा काम चल जाया करेगा...
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं
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