प्रतीकात्मक फोटो
बिहार के नियोजित शिक्षक पहले से ही 32 तरह के काम में व्यस्त थे. जाहिर है बच्चों को पढ़ाना केवल एक काम गिना जाएगा. शिक्षक पढ़ाने के लिए ही हुआ करते थे, कालांतर में उनकी भूमिका बदलती गई. यहां तक कि जिस देश में लाखों युवा बेरोजगार घूम रहे हों, वहां खुले में शौच से पूर्ण मुक्ति के लिए शिक्षकों को अजीबोगरीब फरमान दे दिया गया. शिक्षक के साथ ऐसे अपमानजनक व्यवहार से बुरा और क्या हो सकता है भला.
वैसे यह मुद्दा कोई बहुत नया नहीं है. बहुत पहले से शिक्षकों के जनगणना में डयूटी लगाए जाने सहित कई तरह के गैर शैक्षणिक कार्यों के कार्टून अखबारों में बनते-छपते रहे हैं. इसमें नया यह है कि इस बात को भी अब नापा-तौला जाएगा कि एक समाज में शिक्षक की हैसियत क्या है और उसकी छवि को समाज में किस तरह से गढ़ा जा रहा है. इसमें सबसे बड़ी विडंबना यही है कि नीतिगत रूप से उसकी भूमिका शिक्षक से ज्यादा प्रबंधन की मानी जाने लगी है, ठीक अखबारों के संपादकों जैसी.
वीडियो: अतिथि शिक्षकों को बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं मिड डे मील जैसी योजनाओं जरूरी होने के बावजूद इसका भार अंतत: शिक्षकों पर ही आ गया. स्कूल प्रबंधन का जो हिस्सा एक अलग कैडर बनाकर किया जा सकता था, वह भी शिक्षकों को ही करना पड़ रहा है. ऐसी परिस्थितियों में जब भी शिक्षकों को ऐसे फरमान सुनाए जाते हैं, तो चिंता शिक्षकों से ज्यादा देश के वर्तमान और भविष्य की हो जाती है, चिंता शिक्षा की गुणवत्ता हो जाती है, ज्यादा चिंता उन सरकारी स्कूलों की हो जाती है, जो अब भी देश के सबसे ज्यादा बच्चों को बिलकुल सस्ती और निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराते हैं. क्या लाखों लाख युवा बेरोजगारों वाले देश में पढ़े-लिखे युवाओं का एक ऐसा कैडर नहीं बनाया जा सकता, जो शिक्षकों को जनगणना से लेकर समग्र और आधार तक के ऐसे कामों से मुक्ति दिला सकें, जो उनके मुख्य काम यानी पढ़ाने को प्रभावित करते हैं.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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