आज शिक्षक दिवस है. देश के तकरीबन 14 लाख स्कूलों के बच्चे अपने प्रिय शिक्षक को तरह-तरह से शुभकामना दे रहे होंगे. किसी ने अपने प्रिय शिक्षक के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने के लिए घर के बगीचे से फूल तोड़कर दिया होगा, कुछ ने ग्रीटिंग कार्ड बनाकर दिया होगा. किसी भी आधारभूत सुविधा से ज़्यादा बड़ी ज़रूरत शिक्षक का होना है. हम सभी के ज़हन में अपने-अपने प्रिय या अप्रिय भी शिक्षक की छवि कैद ज़रूर होती है, लेकिन देखिए कि देश की एक बड़ी विडम्बना है कि देश के लाखों बच्चों के पास अपने प्रिय शिक्षक चुनने का विकल्प ही नहीं है, क्योंकि वहां उन्हें पढ़ाने के लिए केवल एक ही शिक्षक मौजूद है. एक ही शिक्षक के भरोसे पूरा स्कूल है, सारी कक्षाएं हैं, ऐसे में आप खुद ही सोच लीजिए कि हमारे देश के ऐसे स्कूल का क्या होने वाला है...? बिना शिक्षक के स्कूल कैसे चलने वाले हैं, भविष्य का भारत कैसे और कैसा बनने वाला है...?
डाइस देश में शिक्षा व्यवस्था की आधारभूत व्यवस्था का एक रिपोर्ट कार्ड रखता है. यह कोई गोपनीय दस्तावेज़ नहीं है, यूडाइस नामक वेबसाइट पर जाकर आप खुद भी देश की शिक्षा व्यवस्था का साल दर साल लेखा-जोखा हासिल कर सकते हैं. यह डेटा पूरी तरह सरकारी है, विश्वसनीय है. इसका सबसे ताजा आंकड़ा, जो साल 16-17 का है, कहता है कि देश में तकरीबन 7.2 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं, जहां पर कि सिंगल टीचर मौजूद हैं. देश के 14,67,680 कुल स्कूलों में यह संख्या तकरीबन 1,05,672 होती है. इससे पहले के साल में भी यह संख्या 7.5 फीसदी थी. मतलब तेज़ी से विकास करने वाली, डिजिटल इंडिया बनाने वाली और अच्छे दिन लाने वाली सरकार भी सिर्फ प्वाइंट तीन प्रतिशत की कमी कर पाई है...!
गुणवत्ता एक अलग सवाल है और आधारभूत संरचनाओं का विकास इसका दूसरा पक्ष है. पिछले सालों मे शिक्षा का अधिकार कानून आ जाने के बाद संरचनात्मक विकास पर बेहद ज़ोर रहा है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षण पर यह बातचीत शून्य है. इसे आप केवल खबरों की हेडलाइन पढ़कर समझ सकते हैं, जो केवल यह बताती हैं कि स्कूल में कमरा नहीं है, शौचालय नहीं बना है, मध्याह्न भोजन खराब है या ज़्यादा गहराई में गए, तो भवन बनाने में घपले की ख़बर निकलकर सामने आ जाएगी.
स्कूली शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की सबसे बड़ी इकाई केवल और केवल शिक्षक है, शिक्षक स्कूल सुधारने या स्टूडेंट को सुधारने का काम ही नहीं करता, वह समाज को सुधारता है, देश को सुधारता है. आप केवल एक पल को सोच लीजिए, जिन विद्यालयों में केवल एक शिक्षक नियुक्त होता होगा, उसमें और छड़ी लेकर जानवरों के पीछे जा रहे चरवाहे मे क्या कोई अंतर हो सकता है...? क्या चरवाहे और शिक्षक का काम एक जैसा हो सकता है, यह बात थोड़ी कड़वी है और इसकी तुलना करना बेहद गलत है, लेकिन मैं यह चाहता हूं कि यह बात आपको अंदर तक चुभे और आप सरकार से यह मांग करें कि इन एक लाख से ज़्यादा स्कूलों में जल्दी से जल्दी शिक्षकों की व्यवस्था करें. कम से कम अगले साल जब यह यू डाइस अपनी रिपोर्ट जारी करे, तो इसमें केवल प्वाइंट तीन प्रतिशत की शर्मनाक कमी नहीं आए, इसमें कम से कम पूरे तीन प्रतिशत की कमी तो ज़रूर आनी चाहिए.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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